श्री गणेशाय नमः
हिंदुत्व गाथा
पूर्वकथन
इस बार नवरात्र पर
प्रेरणा मिली कि हिंदू नामधारी लोगों का ध्यान कुछ वैज्ञानिक तथ्यों की ओर आकर्षित
करने का प्रयास किया जाए, जिससे उनके दिमाग की खिड़कियां खुलें और वे समझ सकें कि हिंदुत्व
का आधार क्या है और जो कुछ चल रहा है, उसका हिंदुत्व से क्या संबंध हो सकता है? यह
एक डायरी के रूप में लिखी गई पुस्तक है, जिनमें प्रतिदिन के अनुसार अलग-अलग अध्याय
हैं।
प्रारंभ
आज 29 सितंबर है, अश्विन
शुक्ल प्रतिपदा, नवरात्र का प्रारंभ। नवमी तक मनाया जाता है। अगले दिन दशहरा है। उसके
चार दिन बाद शरद पूर्णिमा और फिर कार्तिक माह की शुरूआत। पंद्रह दिन बाद कार्तिक अमावस्या
पर दीपावली। नवरात्र से ठीक पहले पंद्रह दिन श्राद्ध पक्ष चलता है। इस तरह यह तिथि
अनुसार पर्वों और त्योहारों का सिलसिला है, जो देश के कई हिस्सों में भाद्रपद शुक्ल
चतुर्थी से ही शुरू हो जाता है, जिसे हम गणेशोत्सव कहते हैं। महाराष्ट्र में इस दिन
बहुत धूमधाम होती है। गणेशोत्सव के बाद श्राद्ध पक्ष। श्राद्ध पक्ष के बाद नवरात्र।
यह भारतीय पंचांग के
अनुसार तिथि विभाजन है, जिसका संबंध पूरे ब्रह्मांड की गति से है। प्राचीन मनीषियों
ने अपनी ईश्वर प्रदत्त बुद्धि से मनुष्य का प्रकृति और
सृष्टि के साथ संबंध स्पष्ट करने के लिए पंचांग की रचना की होगी। प्रकृति की निरंतरता ही सृष्टि कहलाती है। धरती घूमती है। घूमती हुई 365 दिन
में सूर्य का चक्कर लगाती है। धरती की ही तरह अन्य ग्रह भी सूर्य की परिक्रमा करते
हैं। मंगल, बुध, गुरु, शुक्र और शनि। एक उपग्रह है चंद्रमा, जो स्वयं घूमता हुआ धरती
की परिक्रमा करता है।
धरती
पर चंद्रमा के घूमने से सूर्य पर पड़ने वाले चंद्रमा के प्रकाश का अंतर धरती पर नियमित
घटता बढ़ता है। भारत में चंद्रमा की गति के अनुसार पंद्रह दिन में अमावस्या आती है
और फिर चंद्रमा की कला बढ़ते हुए पूर्ण होकर पूर्णिमा तिथि बनाती है। इस तरह एक पक्ष
के बाद दूसरा पक्ष चलता रहता है। धरती के सूर्य की परिक्रमा करने के समय के आधार पर
365 दिन के बारह महीने बने हैं। एक महीने में कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष पंद्रह-पंद्रह
दिन के होते हैं। पक्ष के अलावा सात तिथियों का सप्ताह अलग बना है। रविवार (सूर्य),
सोमवार (चंद्रमा), मंगलवार, बुधवार, गुरुवार, शुक्रवार, शनिवार।
प्रकृति
के अनुसार सृष्टि की निरंतरता का ज्ञान होता है। इसी आधार पर दुनिया भर के पंचांग और
कैलेंडर बने हैं। भारत में विभिन्न राज्यों में करीब एक दर्जन अलग-अलग तरह के पंचांग
हैं, जबकि दुनिया के अन्य हिस्सों में भी माह, सप्ताह और तारीख के आधार पर ही कैलेंडर
बने हैं। ब्रह्मांड की गति प्रमाणित करने के लिए गहन अनुसंधान हुआ है। पंचांग के अगले
चरण में ज्योतिष की रचना हुई है, जिसे हम प्रकारांतर से नक्षत्र विज्ञान या खगोल शास्त्र
कह सकते हैं। इसमें ग्रहों की गति का निर्धारण करते हुए चंद्रमा की गति के अनुसार तिथियां
तय की गई हैं।
एक तिथि
करीब चौबीस घंटे की होती है। ये चौबीस तिथियां सूर्य-चंद्रमा की गति के आधार पर बारह
राशियों में विभाजित है। प्रत्येक तिथि ग्रहों और सत्ताइस नक्षत्रों की गति के तालमेल
के अनुसार बारह राशियों के आधार पर बारह लग्नों में विभाजित है। ब्रह्मांड के सृष्टि
चक्र में सूर्य की परिक्रमा करने वाले पांच ग्रहों, धरती की परिक्रमा करने वाले उपग्रह
चंद्रमा और स्वयं सूर्य के अलावा दो ऐसे बिंदुओं की परिकल्पना की गई, जहां इन सब ग्रहों
के बीच एक शून्य जैसी स्थित ठीक आमने-सामने विपरीत बिंदुओं पर बनती है, जिनके कारण
धरती और चंद्रमा पर ग्रहण की स्थिति बनती है। इन स्थितियों को भी ग्रह मानते हुए उन्हें
राहु और केतु की संज्ञा दी गई है। इस तरह भारतीय पंचांग में राहु और केतु को भी स्थान
दिया गया है। दुनिया के अन्य हिस्सों में भी ब्रह्मांड की गति के अनुसार इसी तरह समय
विभाजन किया गया है।
अध्ययन
और सनातन धर्म की स्थापना
घूमती
हुई धरती की गति का ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में हुआ
है। प्रकृति की निरंतरता का अध्ययन मनुष्य हर कोण से करता आ रहा है और अब भी यह अनुसंधान
जारी है। प्रकृति की सृष्टि के साथ तालमेल की निरंतरता का सटीक अध्ययन धरती के उसी
भूभाग पर ही उचित रूप से संभव है, जहां यह संभव हो सकता है। इसके लिए उत्तर में स्थित
हिमालय पर्वत श्रेणी से लेकर दक्षिण में तीन समुद्रों के संगम तट वाला स्थान सर्वथा
उपयुक्त है, इसलिए इसी क्षेत्र में ब्रह्मांड की गति का सबसे ज्यादा अध्ययन किया गया
है। बह्मांड की गति का सटीक अध्ययन करने के अनुकूल होने के कारण इसे पुण्य भूमि कहा
गया है। बाद में इसे भारतवर्ष की संज्ञा दी गई।
जिन नियमों के आधार पर यह ब्रह्मांड गतिशील है उनके आधार पर धर्म की रचना हुई है। समय का उचित ज्ञान होने से मनुष्य के जीवनक्रम के संचालन में सुविधा होती है। मनुष्य का और उसके समाज का जीवन स्तर सुधरता है। इसके आधार पर वह प्रकृति के साथ तालमेल बनाए रखने के उपाय सीखता है। समय का ज्ञान होने से प्राकृतिक विपत्तियों का अनुमान पहले से लगाया जा सकता है। उसके आधार पर आपदा से बचने के प्रयास संभव हो जाते हैं। इस तरह सामाजिक जीवन में निरंतरता बनती है और संस्कृति का स्वरूप तय होता है। इसके आधार पर धरती के विभिन्न हिस्सों में समय और भौगोलिक परिस्थितियों के आधार पर अलग-अलग प्रकार की संस्कृति आकार लेती है।
जिन नियमों के आधार पर यह ब्रह्मांड गतिशील है उनके आधार पर धर्म की रचना हुई है। समय का उचित ज्ञान होने से मनुष्य के जीवनक्रम के संचालन में सुविधा होती है। मनुष्य का और उसके समाज का जीवन स्तर सुधरता है। इसके आधार पर वह प्रकृति के साथ तालमेल बनाए रखने के उपाय सीखता है। समय का ज्ञान होने से प्राकृतिक विपत्तियों का अनुमान पहले से लगाया जा सकता है। उसके आधार पर आपदा से बचने के प्रयास संभव हो जाते हैं। इस तरह सामाजिक जीवन में निरंतरता बनती है और संस्कृति का स्वरूप तय होता है। इसके आधार पर धरती के विभिन्न हिस्सों में समय और भौगोलिक परिस्थितियों के आधार पर अलग-अलग प्रकार की संस्कृति आकार लेती है।
संस्कृतियों
के आधार पर अलग-अलग धर्म बनते हैं। धर्म के आधार पर परंपराएं बनती हैं, जो समयानुसार
परिवर्तित नहीं होने के कारण रूढि़ में बदल जाती है और इस तरह कई लोग रूढि़वादी हो
जाते हैं। जैसे सर्दियों में कोट-स्वेटर पहनना उचित है। इसे परंपरा के नाम पर गर्मियों
में पहनना रूढि़वाद है। यह रूढि़वाद पूरी दुनिया में दिखाई देता है। भारत में टाइ के
नाम से गले को कसकर रखना जरूरी नहीं है, लेकिन यह विलायती परंपरा होने से भारत में
भी इसका पूरी तरह पालन होता है और बच्चों तक को टाई पहनने के लिए विवश किया जाता है।
हम इस तरह के कई उलटे काम देख सकते हैं, जिनका हिंदुत्व से या धर्म से कोई संबंध नहीं
है। ब्रह्मांड की गति का ज्ञान और उसके आधार पर उचित जीवन शैली का निर्धारण भारतीय
भूभाग की सनातन जीवन पद्धति रही है। यही सनातन जीवन पद्धति भारतीय संस्कृति है।
जब धरती
पर मनुष्य ने आवागमन की सुविधाएं विकसित कर ली, तब उसने लंबी यात्राएं करना शुरू किया।
कई लोग दुनिया के एक हिस्से से दूसरे हिस्से तक यात्राएं करने लगे। इस तरह दुनिया के
अन्य हिस्सों के लोग भारतवर्ष भी पहुंचे। उनमें से कई लोग यहां रहकर ज्ञान प्राप्त
करने लगे और उस ज्ञान को अपने क्षेत्रों मे ले गए। वे अपने यहां का ज्ञान भारत लाते
थे और यहां का ज्ञान अपने यहां ले जाते थे। इस तरह सांस्कृतिक आदान-प्रदान का सिलसिला
बना।
भारत
जहां ज्ञान आधारित था, वहीं पश्चिमी जगत का जीवन विज्ञान पर आधारित रहा। विज्ञान में
प्रकृति से जुड़ी प्रत्येक वस्तु और विचार
का तार्किक विश्लेषण किया जाता है, फिर उसकी पुष्टि की जाती है। उसके बाद मनुष्य के
लिए उपयोगी कृत्रिम वस्तुओं का निर्माण होता है। धरती के पूर्वी क्षेत्र भारतवर्ष में
जहां ज्ञान के माध्यम से योग और खगोल शास्त्र का विकास हुआ और स्वस्थ जीवन जीने के
तौर-तरीके विकसित हुए, वहीं पश्चिमी देशों जीवन को अनुकूल बनाने के लिए कृत्रिम साधन
विकसित किए गए। विश्व के जीवन क्रम के विकास में पूर्वी ज्ञान और पश्चिमी विज्ञान,
दोनों का योगदान रहा। इस तरह धरती की सतह पर वातावरण को मनुष्य के अनुकूल बनाने के
कई भौतिक प्रयास हुए। इसमें जुटे लोग वैज्ञानिक कहलाए। वैज्ञानिकों ने समय, बल, गति
और तापमान का गहन अध्ययन करते हुए कई आविष्कार किए, जिनकी वहज से आज दुनिया में मनुष्य
के लिए इतनी सारी सहूलियतें बन गई हैं।
विदेशियों
का आगमन और सनातन धर्म का विभाजन
जब भारतवर्ष
से पश्चिमी एशिया के यवन, पठान आदि पहुंचने लगे तो उन्होंने तलवार के दम पर भारत में
इस्लामी शासन व्यवस्था लाने का प्रयास किया। इससे पहले ही भारत में बड़ी उथल-पुथल हो
चुकी थी और कई लोग पुरानी सनातन संस्कृति में पैदा हुए तरह-तरह के धार्मिक मतभेदों
के बीच बौद्ध धर्म का पालन का शुरू कर चुके थे। बौद्ध धर्म का विस्तार हो रहा था और
इसका प्रचार करने वाले चीन, जापान तक पहुंचने लगे थे।
भारतीय
संस्कृति में महाभारत के बाद जो अफरा-तफरी मची थी, उसकी वजह से सनातन संस्कृति में
धार्मिक आधार पर बड़े मतभेद पैदा हो चुके थे। इनकी वजह से भारतीय समाज का मूल ढांचा
तहस-नहस हो गया था और भगवान शिव को प्रमुख ईश्वर मानने वाले शैव और भगवान विष्णु को
प्रमुख ईश्वर मानने वाले वैष्णव आमने-सामने आ चुके थे और उनमें संघर्ष भी होने लगे
थे। देवी को पूजने वाला एक अन्य शाक्त संप्रदाय भी उभरने लगा था। वैष्णवों ने मनुष्यों
के बीच ऊंच-नीच के आधार पर समाज को बांटना शुरू कर दिया था।
भले
ही विष्णु के प्रमुख अवतारों राम और कृष्ण ने कभी भी जातिवाद की बात नहीं की और विश्व
में मनुष्यों के बीच प्रेम का महत्व रेखांकित किया था। इसके बावजूद वैष्णव अलग धारणाएं
बनाकर खुद को हिंदुओं में श्रेष्ठ साबित करने में जुटे थे और इस कार्य में ब्राह्मणों
ने जमकर योगदान दिया। उस दौरान रची गई कई पौराणिक कथाओं में भी शिव का हास्यास्पद स्वरूप
पेश किया गया है। महादेव को महाकाल के रूप में प्रसिद्ध किया गया है, जबकि राम ने लंका
पर चढ़ाई करने से पहले महादेव शिव की पूजा की थी।
महाभारत
के समय पांडवों ने भी कृष्ण के सहयोग से अनेक शिव मंदिर बनवाए थे। इसका अर्थ यह हुआ
कि जिनकी विष्णु के अवतार के रूप में पूजा होती है, उन्होंने भी अपने कार्यों में सफल
होने के लिए महादेव का आशीर्वाद मांगा था। इसके बावजूद इस देश के ब्राह्मणों ने पता
नहीं किस रीति-नीति के तहत निराकार भगवान शिव के स्वरूप को मनुष्य के रूप में दिखाने
और उनका चरित्र चित्रण करने में इस तरह का काम किया कि धरती पर मौजूद तमाम नशीली वनस्पतियां
शंकरजी को प्रिय घोषित हो गई। वे सांप को हार बनाकर गले में डालते थे। बैल पर सवारी
करते थे। उनके विवाह के समय देवी का बहुत अपमान हुआ तो उन्होंने पिता के घर अग्निकुंड
में आत्मदाह करना पड़ा। शंकरजी जब बारात लेकर पहुंचे थे, तब तमाम भूत, प्रेत, पिशाच
आदि उनकी बारात में शामिल थे। इन सबका क्या मतलब था। ये कथाएं शायद महाभारत के बहुत
बाद में रची गई हैं, जिन्हें कई लोग सत्य मानते हैं।
इस तरह
शिव, विष्णु और देवी के भिन्न स्वरूपों को लेकर भारत में तीन अलग-अलग संप्रदाय बनने
लगे थे। उनसे जुड़ी घटना प्रधान कथाएं भी रची गई। सनातन धर्मी लोगों की आपसी फूट के
कारण बौद्ध धर्म के विस्तार के लिए जमीन तैयार हुई और बुद्ध के साथ महावीर उभरे, जिनकी
शिक्षाओं के आधार पर जैन धर्म ने आकार लिया। सनातन संस्कृति का पालन करने वाले लोग
इस प्रकार पांच संप्रदायों में बंट चुके थे। वैष्णव, शैव, शाक्त, बौद्ध और जैन। इनमें
धर्म के आधार पर अहिंसा और मनुष्यों के बीच आपसी भाईचारे के नए तत्व जुड़े। नए कर्मकांड
प्रचलित हुए।
इससे
पहले जिसे धर्म माना जाता था, उसकी विचारधारा अलग थी। भारत में धर्म की अवधारणा यही
थी कि प्रकृति में उपस्थित पांच प्रमुख तत्वों
जल, वायु, धरती, अग्नि और आकाश के आधार पर सृष्टि की रचना हुई है, जिससे मनुष्य सहित
तमाम जीवधारियों का अस्तित्व धरती पर बना है। हर जड़ और चेतन तत्व का अपना-अपना धर्म
होता है, जिसके आधार पर उनके गुण होते हैं और उन्हीं के आधार पर उनकी भूमिका होती है।
जैसे अग्नि का स्वभाव ताप है तो वह जलाएगी, पानी का स्वभाव भिगोने डुबोने बहने का है,
धरती का स्वभाव है अन्य तत्वों को धारण करना और वायु का स्वभाव प्रत्येक जीवधारी की
सांस को गतिमान बनाए रखना और वस्तुओं को गति देने का है। अंतरिक्ष शून्य होता है, जहां
इनमें से किसी तत्व की उपस्थिति नहीं है। वह इन तत्वों के लिए जगह बनाता है।
इसी
प्रकार प्रत्येक जीवधारी का अपना-अलग धर्म है। कुछ जीवधारी अन्य जीवधारियों को अपना
आहार बनाते हैं तो अन्य जीवधारी वनस्पति को आहार बनाते हुए जीवन व्यतीत करते हैं। इस
तरह एक जीव दूसरे जीव का आहार बनता है। वनस्पति का पोषण जल, धरती और सूर्य के प्रकाश
के जीवंत संयोग से होता है। सूर्य के प्रकाश में गर्मी होने से प्रकारांतर से वह अग्नि
का स्वरूप ही माना जाएगा। इस तरह धरती पर सृष्टि धर्म के आधार पर बनी है।
इन सब
बातों पर विचार करते हुए मनीषियों ने धर्म की अवधारणा बनाई थी और इस सिलसिले में इस
पर भी विचार हुआ कि मनुष्य का क्या धर्म होना चाहिए। उसके बाद से मनुष्य के धर्म को
लेकर विवाद की स्थिति बनी हुई है, जो पूरी धरती पर मनुष्यों के इतने सारे धर्म बनने
के बावजूद कायम है। ये सभी धर्मावलंबी अब तक यह बात तय नहीं कर पाए हैं कि मनुष्य का
क्या धर्म होना चाहिए। सनातन धर्म में, जो इस समय हिंदू धर्म के रूप में प्रचारित किया
जाता है, ईश्वर को लेकर स्पष्ट अवधारणा बनी हुई है, जिसको राजनीतिक स्वार्थों के कारण
लगभग समाप्त कर दिया गया है।
हिंदू
शब्द की उत्पत्ति
आजकल
लगभग सभी भारतीयों पर हिंदू होने के नाम पर राजनीतिक रूप से एकजुट होने का दबाव है।
इसके उत्कट प्रयास हो रहे हैं। कई जगह गैर हिंदुओं के खिलाफ विचित्र कार्रवाई की जा
रही है। धर्म के आधार पर अल्पसंख्यक घोषित होने का प्रयास करने वाले जैन धर्म के लोग
इस कार्य में हिंदुओं के साथ हैं। बौद्ध धर्म के समर्थकों को बीआर अंबेडकर का प्रचार
करते हुए एक खेमे में लाने की कोशिश हो रही है। ईसाई समुदाय पहले से इस आश्वस्ति के
साथ बेफिक्र है कि पूरी शिक्षा व्यवस्था तो अंग्रेजी हिसाब-किताब की है, जो अंग्रेज
सरकार ने लागू की थी। इसके अलावा धर्म परिवर्तन कर चुके कई ईसाइयों के नाम भी बिलकुल
हिंदुओं जैसे हैं, जिनकी वजह से वे हिंदुओं के बीच भी सम्मान के साथ बने रहते हैं।
सिर्फ मुस्लिम बचे हैं, जो इस देश में अलग-थलग दिखाई देते हैं और उनकी जिद से भारतीय
भूभाग में अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश नाम से अलग देश पहले ही बन चुके हैं।
अब प्रचार यह है कि उनसे अखंड भारत को अभी भी खतरा है।
जबकि
हकीकत यह है कि मुगलों को यहां अपनी सत्ता स्थापित करने का मौका भारतीय संस्कृति में
मनुष्य के साथ भगवानों के आधार पर भेदभाव के कारण पहले ही मिल चुका था और हमलावर मुसलमानों
ने उसी का फायदा उठाया। इस भूभाग पर उनका प्रशासनिक दखल तीन-चार सौ साल चला। तब तक
भारत में धार्मिक आधार पर जबर्दस्त भेदभाव की खबरें समुद्र पार के देशों तक भी पहुंचने
लगी थी। पश्चिमी देश समुद्री यातायात का विस्तार कर चुके थे और दुनिया भर से जहाजों
से सामान लाकर अपने देशों में व्यापार करने लगे थे। इनमें पुर्तगाल, फ्रांस और इंग्लैंड
शामिल थे। उन्होंने अपनी विकसित नौसेनाएं भी तैयार कर ली थी। पुर्तगालियों को गोवा
में सरकार बनाने का मौका मिल गया। फ्रांस ने पांडिचेरी और उसके आसपास के कुछ क्षेत्रों
में प्रभुत्व जमाया, जबकि अंग्रेजों ने कोलकाता से शुरू करते हुए पूरे देश को अपने
कब्जे में लेने की रणनीति अपनाई।
मुगल
भी इस देश में सिर्फ इस्लामी कानून कायदों से अपना अखंड साम्राज्य नहीं बना पाए थे।
तब अकबर ने दिल्ली की सल्तनत संभालने के बाद दीन-ए-इलाही नाम से नई धार्मिक रीति-नीति
घोषित करते हुए अपनी सल्तनत कायम रखने का प्रयास किया। उससे पहले बाबर और औरंगजेब भारत-भूमि
पर इस्लाम के नाम पर काफी तोड़फोड़ मचा चुके थे। औरंगजेब की सल्तनत को दक्षिण में शिवाजी
के समर्थन में जुटी छापामार सेना ने हिलाकर रख दिया था। अकबर की सल्तनत को मारवाड़
में राणा प्रताप से चुनौती मिली थी।
सनातन
धर्मियों का हिंदू नामकरण मुसलमानों का शासन लागू होने के बाद हुआ था। उससे पहले सभी
सनातन धर्म के अनुयायी हुआ करते थे, जो भगवान के अलग-अलग नामों के आधार पर बंटे हुए
थे। जिस भारतवर्ष में योग और अध्यात्म का चरम विकास हुआ, जहां प्रकृति और मनुष्य के
संबंधों के आधार पर सृष्टि की परिकल्पना की गई। भाषा का विकास हुआ। लेखन की शुरूआत
हुई। मनुष्यों के आपसी संबंधों का अध्ययन करते हुए समाज की रचना की गई। मनुष्य को शिक्षा
देने के लिए कई प्रयास किए गए।
इस तरह
भारतीय भूभाग पर पर्यावरण के साथ संतुलन बनाए रखने वाली जो आदर्श भारतीय संस्कृति कायम
हुई थी, उसका वैज्ञानिक विकास ईश्वर के स्वरूप को लेकर विभिन्न मतभेद पैदा होने से
अवरुद्ध हो गया। वरना यहां गणना का विस्तार करने के लिए शून्य का आविष्कार हो चुका
था। अंतरिक्ष को लेकर अनुसंधान की प्रक्रिया जारी थी, लेकिन विकट मतभेद पैदा होने के
बाद यह सिलसिला रुक गया। इससे मध्य क्षेत्र की मुगल आदि जातियों को यहां फैलने का मौका
मिला और अंग्रेजों के आने पर शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाओं के विस्तार के नाम पर हिंदुओं
की मानसिकता को बदलने का काम किया गया।
भारत
के प्राचीन साहित्य को अवैज्ञानिक घोषित करने का कुत्सित प्रयास हुआ। इसके फलस्वरूप
आज भी बाबरी मस्जिद टूटने के बाद चल रहे अदालती मुकदमे में विरोध का एक बिंदु यह भी
है कि अयोध्या में राम थे भी या नहीं। कृष्ण के बारे में प्रचलित कथाएं सत्य है या
नहीं। कृष्ण की सत्यता तो भारत में श्रीमद्भगवद्गीता की मौजूदगी के कारण साबित होती
है, लेकिन राम को लेकर कई कथाएं हैं। थाईलैंड और वियनाम तक राम की पूजा होती है। राम
ने लंका पर चढ़ाई करके सीता को रावण की कैद से मुक्त करवाया था और राक्षसों का संहार
किया था, इसके प्रमाण के रूप में भारत के निकट एक द्वीप लंका की मौजूदगी है जबकि वहां
तक बनाए गए रामसेतु का अस्तित्व भी है, जो उपग्रहों के अध्ययन से भी प्रमाणित है। इस
राम सेतु को तोड़ने की योजना भी बन गई थी।
इसके
बावजूद बाबरी मस्जिद के विवाद में राम सवालों के घेरे में हैं। अगर यह साबित हो गया
कि राम थे तो फिर यह सवाल उठेगा कि तो फिर उस जगह मंदिर था या नहीं। और यह पौराणिक
इतिहास में भी स्पष्ट है कि राम के जमाने में त्रेतायुग चल रहा था और उस समय मंदिर
जैसे धार्मिक स्थलों का निर्माण नहीं होता था। राजा थे, लेकिन उनके राज में मंदिर बनने
का उल्लेख नहीं है। द्वापर युग के महाभारत में शिव के मंदिर अवश्य बने थे और शिव की
आराधना पांडव-कौरव, दोनों ही समान आस्था के साथ करते थे। उसके बाद भी भारत भूमि में
महाभारत के बाद अलग-अलग संप्रदाय बनने लगे थे।
हिंदुत्व
की विचारधारा और काल गणना
हिंदुत्व
के बारे में मैं अपने विचारों और अब तक पढ़े-लिखे के अनुसार विचार कर रहा हूं। हिंदुत्व
के आधार पर एक मजबूत सरकार बन गई है। इसका अर्थ यह भी है कि कुछ लोगों ने योजनाबद्ध
तरीके से हिंदुत्व के नाम पर उन लोगों का ध्रुवीकरण करने का प्रयास किया है, जो सनातन
विचारधारा के बारे में ज्यादा नहीं जानते हैं और हिंदुत्व के प्रति जिनकी आस्था है।
मुगलकाल के बाद सनातन विचारधारा को ही हिंदुत्व की संज्ञा दी गई है। इस सनातन विचार
धारा की गति प्राचीन काल से विद्यमान है और यह विदेशी आक्रांताओं के लगातार हमलों के
बाद हिंदुत्व के नाम से रूपांतरित हो गई। इसका पालन करने वाले हिंदू कहलाने लगे।
यह सनातन
धर्म किसी अन्य धर्म की तरह किसी व्यक्ति विशेष पर आधारित नहीं है, जैसा कि अन्य धर्मों
के मामले में देखा जाता है। इस्लाम की रचना पैगंबर मोहम्मद के उपदेशों के बाद हुई।
ईसाई धर्म ईसा मसीह के साथ शुरू हुआ और ईसा मसीह के दिवंगत हो जाने के बाद ईस्वी सन
की शुरूआत हुई, जिसे अब 2018 साल हो चुके हैं और 2019वां साल चल रहा है। सन 2019।
मुसलमानों
का हिजरी सन उस दिन से शुरू माना जाता है, जिस दिन हजरत मोहम्मद मक्का से मदीना हिजरत
के लिए रवाना हुए थे। इसका अरबी नाम अत-तक्वीम-हिज़री और फारसी नाम तकवीम-ए-हिज़री-ये-कमरी
है। यह कैलेंडर चंद्रमा की गति के अनुसार बनाया गया है, जिसके मुताबिक इसका एक साल
354-355 दिनों का होता है, जो कि सूर्य की गति के आधार पर प्रचलित 365 दिन के कैलेंडर
से 11 दिन पीछे है। यह अब हिजरी सन के रूप में प्रचलित है। इसके मुताबिक एक अक्टूबर
2019 के दिन हिजरी सन की तारीख एक सफर 1441 होती है। मुसलमानों के पर्वों का निर्धारण
इसी कैलेंडर के आधार पर होता है।
हिंदुओं
में कई तरह के पंचांग प्रचलित हैं, जिनमें से सरकार ने शक संवत को प्राथमिकता देते
हुए इसे भारतीय संवत के रूप में मान्यता दी है। शक भारतवर्ष में बाहर से आए थे और यहां
कई क्षेत्रों में उन्होंने अपना शासन स्थापित कर लिया था, जिनमें पंजाब, हरियाणा, गुजरात,
राजस्थान, सिंध, खैबर-पख्तूनख्वा और अफगानिस्तान शामिल थे। शक प्रजाति के लोग प्राचीन
आर्यों के वैदिक कालीन संबंधी बताए जाते हैं, जो शाकल द्वीप पर रहने चले गए थे, इसलिए
वे शक नाम से प्रसिद्ध हुए। शक संवत के बारे में एक इतिहासकार का मत है कि इसे उज्जयिनी
के क्षत्रप चेष्टन ने प्रचलित किया था। शकों के साम्राज्य को चंद्रगुप्त विक्रमादित्य
ने समाप्त कर दिया था। शकों के अंतिम शासक की याद में शक संवत शक संवत को मान्यता दी
गई है। आज सरकार की तरफ से मान्य भारतीय कैलेंडर के मुताबिक एक अक्टूबर 2019 को शक
संवत की तारीख मिति (शुक्ल पक्ष) अश्विन 4 शक संवत 1941 है। शक संवत की कालगणना भी
विक्रम संवत के अनुरूप है जो कि हिंदुओं में सर्वमान्य है।
विक्रम
संवत के प्रणेता भारत के धर्मपाल भूमिवर्मा विक्रमादित्य बताए जाते हैं। कुछ लोग इसका
प्रारंभ भारत के सम्राट विक्रमादित्य से मानते हैं। मगध के सम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय
ने अयोध्या और उज्जयिनी पर विजय हासिल करने के बाद खुद को विक्रमादित्य की उपाधि दी
थी। इतिहास में उससे पहले विक्रमादित्य का उल्लेख नहीं मिलता है, इसलिए कई शोधकर्ता
भूमिवर्मा विक्रमादित्य से विक्रम संवत की शुरूआत मानते हैं। यह संवत चंद्रमा की गति
पर आधारित है, इसलिए सौर वर्ष से 11 दिन, 3 घटी, 14 पल छोटा होता है। एक घटी में
24 मिनट होते हैं और एक पल 24 सकंड का होता है। पूर्णिमा के दिन चंद्रमा जिस नक्षत्र
में होता है, उसी के आधार पर इसके 12 महीनों का नामकरण हुआ है। सौर वर्ष से 11 दिन
से कुछ अधिक समय छोटा होने के कारण सौर वर्ष से तालमेल बैठाने के लिए हर तीन वर्ष बाद
इसमें एक माह अतिरिक्त जोड़ दिया जाता है। इस तरह हर चौथे साल विक्रम संवत में 13 महीने
हो जाते हैं। इस अतिरिक्त माह को अधिकमास कहा जाता है। एक अक्टूबर 2019 को विक्रम संवत
के अनुसार तिथि है आश्विन शुक्ल 3 संवत 2076। नवरात्र चल रहे हैं। नवरात्र का त्योहार
अश्विन शुक्ल 1 से अश्विन शुक्ल 9 तक मनाया जाता है, जिसके अगले दिन विजयादशमी या दशहरा
मनाया है।
भारतीय
त्योहारों को मनाए जाने की तिथियों का निर्धारण भारतीय पंचांग के आधार पर ही होता है,
लेकिन भारतीय पंचांग के संवत विभिन्न मतों के अनुसार अलग-अलग होते हैं। भारत सरकार
ने जहां शक संवत को मान्यता दी है, वहीं सर्वमान्य रूप से प्रचलित विक्रम संवत है।
इसके
अलावा देश के विभिन्न हिस्सों में और भी संवत हैं, जिनकी संवत वर्ष संख्या अलग-अलग
है। इस समय बंगाली संवत 1426 चल रहा है। इसे बंगाल, त्रिपुरा और असम के कई लोग मानते
हैं। बांग्लादेश में यह राष्ट्रीय कैलेंडर के रूप में मान्य है। इसे बंगाली सन कहा
जाता है। जो अन्य संवत प्रचलित हैं, उनमें जैनियों में वर्धमान संवत, बौद्धों में बुद्ध-निर्माण
संवत, गुप्त संवत, हर्ष संवत, बंगाल में लक्ष्मणसेन संवत, मलाबार में परशुराम संवत
शामिल हैं। इस तरह विभिन्न कालगणनाओं में भी हिंदुओं के अलग-अलग वर्ष संवत हैं।
हिंदुत्व,
लोकतंत्र और गांधी
हिंदुओं
से हिंदू धर्म के आधार पर एकजुट होने की अपील की जा रही है। इसमें कोई एतराज नहीं है।
लेकिन यह बात सत्य मानी जानी चाहिए कि जिसे हम हिंदू कहते हैं, वे दरअसल भारतीय भूभाग
में बसने वाले मूल निवासी हैं और वह भूभाग हिमालय पर्वत श्रेणी को घेरते हुए अंत में
तीन महासागरों, अरब सागर, बंगाल की खाड़ी और हिंद महासागर के मिलन स्थल कन्याकुमारी
तक है। यह पूरा भाग अफगानिस्तान से लेकर अरुणाचल प्रदेश तक है। दक्षिण में केरल, तमिलनाडु
तक है। हिमालय पार का क्षेत्र चीन के साथ जुड़ता है।
लोकतंत्र
की स्थापना के बाद यह जरूरी हो गया है कि लोग सामूहिक रूप से एकजुट होकर किसी एक पार्टी
या पार्टी समूह के पक्ष में वोट करें, जिससे कि सरकार बहुमत के आधार पर भलीभांति चल
सके। यही पद्धति अमेरिका, ब्रिटेन सहित तमाम विकसित देशों में चल रही है, जिसमें कोई
भेदभाव नहीं है। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद विश्व के अधिकांश देशों में लोकतांत्रिक शासन
प्रणाली स्थापित हो चली थी, जो किसी से भी प्रेरित हो, उन देशों में शानदार तरीके से
चल रही है। जहां यह प्रणाली नहीं चलती है, वहां का शासक दुनिया में तानाशाह घोषित होता
है।
जनता
को विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सभी देशों में होना विकसित लोकतंत्र का लक्षण
माना जाता है। जहां इस पर पाबंदियां लगती हैं, उस देश की सरकार पर कई तरह के आरोप लगते
हैं। कुछ सरकारें इन आरोपों का ध्यान रखते हुए लोगों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देने
के पक्ष में रहती हैं। उनके शासकों को जनता के सामने निर्भीक होकर बिना सुरक्षा के
घूमने में कोई डर नहीं लगता है। अगर उसके सामने कोई डकैत, जघन्य अपराधी भी आ जाए तो
वे उन्हें अपनी बात कहने का मौका देते हैं। उनसे निडर होकर बात करते हैं। अब मीडिया
आ गया है। इस देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का ठेका मीडिया के पास है।
धरती
पर इसका अस्तित्व तब बना, जब छपाई की मशीनों का आविष्कार हुआ और अखबार छपने लगे। इनमें
समाचार भी होते थे और विभिन्न पक्षों की विचारधारा भी स्पष्ट होती थी। महात्मा गांधी
ने भी दक्षिण अफ्रीका में प्रवासी भारतीयों को कानूनी अन्याय से बचाने के लिए संघर्ष
शुरू करते हुए सबसे पहले डरबन में छपाई मशीन लगाई थी और अंग्रेज सरकार को सुधारने के
लिए मीडिया का इस्तेमाल किया था। अकादमिक रूप से यह सवाल पूछा जाए कि जनता की आवाज
सरकार के कानों तक पहुंचाने के लिए धरती के पूर्वी क्षेत्र के लोगों के हित में सबसे
पहले मीडिया का इस्तेमाल किसने किया तो उसके सीधे जवाब में महात्मा गांधी का नाम उभरता
है।
महात्मा
गांधी ने कई अखबार निकाले। डाक विभाग का जमकर इस्तेमाल किया। उस समय अंग्रेज सरकार
चौंक गई थी। उसके सारे बल प्रयोग महात्मा गांधी की मीडिया की ताकत के आगे फेल हो गए
थे और उन्होंने सरकार के कई कानूनी नियम बदलवा दिए थे। उनके जिस सत्याग्रह और असहयोग
आंदोलन का प्रचार हो रहा है, वह दरअसल अफ्रीका में उनके भारतीय होने के नाते मानव हित
में किए गए प्रयोग थे।
महात्मा
गांधी बैरिस्टर थे। अदालतों में मुकदमे लड़कर इतना पैसा कमाते थे कि आम आदमी की तुलना
में उनका जीवन स्तर कई गुना ऊंचे दर्जे का था। उन्हें भारतीय होने पर गर्व था और वे
बचपन में पौराणिक कथाएं, उनके आधार पर मिलने वाली सीख आदि से बड़े हुए थे। अगर वे अंग्रेजी
तौर-तरीके से रहते तो उन्हें सामाजिक और आर्थिक, किसी भी स्तर पर कोई परेशानी नहीं
थी। वे मुकदमा लड़ने भारत से दक्षिण अफ्रीका पहुंचे थे। युवा थे और भारतीयों के मूल
गुण-स्वभाव के अनुरूप स्वाभिमानी थे।
गांधी
की प्रेरणा से भारत में भी अखबार निकले और उनके माध्यम से अंग्रेज सरकार की आलोचना
शुरू हुई। मोहनदास गोखले की प्रेरणा से महात्मा गांधी भारत लौटे और उन्होंने सबसे पहले
पूरे देश में आम आदमी की तरह भ्रमण करके परिस्थितियों का अध्ययन किया था। किताबें छपवाई
थीं। अखबार निकाले थे और अखबारों में लेख लिखने लगे थे। वे नेता बाद में बने लेकिन
पहले वह पेश से वकील और स्वभाव से पत्रकार थे। वे जनता की बातों को सुनते थे और उसके
आधार पर अखबारों में लेख लिखते थे। उनकी पूरी विचार शक्ति हिंदू हित में समर्पित थी।
उस तरह नहीं, जिस तरह वर्तमान में हिंदुओं को निरूपित करने का प्रयास किया जा रहा है।
दक्षिण
अफ्रीका में भी गांधी ने एक हिंदू के रूप में भारतीयों के हित में संघर्ष किया था,
जिनमें मुस्लिम, पारसी, दक्षिण भारतीय, उत्तर भारतीय सभी थे और बड़ी संख्या में थे।
सरकार के गलत कानूनों के कारण उन लोगों की दयनीय परिस्थिति से गांधी हिल गए थे। इतने
हिंदुओं की यह स्थिति, अपना जीवन किस काम का? उन्होंने खुद बैरिस्टर होने के बावजूद
अपमानजनक व्यवहार का सामना किया था।
हिंदुत्व
की विवेचना एक प्रेरणा के तहत नवरात्र के दौरान की जा रही है। इसमें भारतीय भूभाग की
सामाजिक विवेचना आवश्यक है। पंद्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी के बाद हिंदू शब्द का प्रचलन
शुरू हुआ था। सिंधु सभ्यता के दौरान भारतवर्ष नामक भूभाग में जो लोग बसते थे, उनके
नाम पर हिंदू नाम बना। इन्हें अंग्रेजी में इंडस क्षेत्र कहा जाता है, इसलिए यहां के
लोग इंडियन हो गए। अंग्रेजों ने इसे इंडिया नाम दिया। इस्लाम के नाम पर दबंगई होने
पर हिंदुस्तान नाम पड़ा। उससे पहले इसका नाम भारत था। हिंदुस्तान और इंडिया इस भूभाग
के आधुनिक नाम हैं। मूल नाम भारत ही है।
भारत
के निवासी भारतीय हैं और यहां की ज्ञान परंपरा अतुलनीय रही है। यहां के सामाजिक संगठन
आश्चर्यजनक रहे हैं। ज्ञान परंपरा, मनुष्य के रूप में व्यवहार और प्रकृति के साथ उनका
संबंध अद्भुत है। यही भारतीयता है। जो परंपरागत है, जिसमें मानव हित में राम संघर्षरत
रहे, कृष्ण संघर्षरत है। और महात्मा गांधी भी रहे।
धर्म
निरपेक्षता बनाम हिंदुत्व
हिंदू
होने के नाते हिंदुत्व पर विचार आवश्यक है। आखिर हिंदुत्व का अर्थ क्या है? क्या एक
पार्टी को बहुमत से जिताकर उसकी सरकार बनवा देना हिंदुत्व है? क्या सिर्फ मुसलमानों
के साथ भेदभाव करना हिंदुत्व है? अन्य धर्मावलंबियों को निशाना बनाना हिंदुत्व है?
स्वामी विवेकानंद ने तो ऐसा नहीं कहा था। हिंदुओं के नाम पर दक्षिण पंथी राजनीति का
उभार देश में आजादी से पहले ही शुरू हो गया था। नफरत के बीज बोए जा रहे थे। या पिछली
सदियों की दबी हुई नफरत को सतह पर लाया जा रहा था, जो मुसलमानों के लिए अलग देश बनाने
की तैयारी देखकर भड़क गई। महात्मा गांधी सभी से भाईचारा बनाए रखने की अपील कर रहे थे।
विभाजन के समय भारी नरसंहार हुआ और एक बड़ी आबादी का विस्थापन।
हिंदुत्व
की विचारधारा इसके बाद से फैली और कुछ लोगों ने इसे सांप्रदायिक उन्माद में परिवर्तित
करने का प्रयास किया। धर्म निरपेक्षता बनाम हिंदुत्व की विचारधारा सामने आई और भारतीय
लोग हिंदुत्व और धर्म निरपेक्षता में बंटने लगे। देश आजाद होने के बाद दुनिया का स्वरूप
काफी बदल चुका है। काफी विकास हो चुका है। पूंजीवाद का जलवा है। जहां कुछ सरकारें साम्यवाद
और मार्क्सवाद के आधार पर शासन कर रही थी, उन देशों में अब काफी तोड़फोड़ हो चुकी है।
रूस
जो पहले साम्यवादी विचारधारा के आधार पर सोवियत संघ के रूप में महाशक्ति हो गया था,
वह पंद्रह देशों में विभाजित हो चुका है और वहां भी लोकतंत्र स्थापित हो गया है। भले
ही वहां छद्म तरीके से लोकतंत्र चल रहा हो, व्लादीमिर पुतिन का रूस पर एकछत्र शासन
हो गया हो, लेकिन वहां भी लोकतंत्र के हिसाब से नियमित रूप से संसद चुनी जाती है और
उसी हिसाब से प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति चुने जाते हैं।
जहां
भी लोकतंत्र चल रहा है, वहां लोकतंत्र के भेष में भी चुनाव अवश्य होते हैं। वहां की
सरकारों को विश्व में अपनी साख बनाए रखने के लिए लोकतंत्र का दिखावा अवश्य करना पड़ता
है। जैसे पाकिस्तान, जहां सरकार इस्लाम परस्त है, वहां भी चुनाव कराने के बाद सरकार
बनानी पड़ती है। जो नेता सत्ता संभालने के बाद चुनाव का रास्ता त्याग देते हैं, वे
तानाशाह कहलाते हैं। यह परिभाषा पूरी दुनिया में चल रही है। भारत में देश आजाद होने
के बाद कांग्रेस ने धर्म निरपेक्षता का मंत्र अपनाया, जो कि एक कपोल कल्पित अवधारणा
है। उसके आधार पर कांग्रेस ने कम से कम चालीस साल एकछत्र शासन किया। इंदिरा गांधी ने
जब देश में पहली बार आपातकाल लगाया था, तब उन्हें भी तानाशाह कहा जाने लगा था। आखिरकार
उन्हें 19 महीनों के बाद आपातकाल हटाना पड़ा था और लोकसभा चुनाव कराने पड़े. जिसमें
जनता ने उनकी सरकार को विदा कर दिया था।
धर्म
निरपेक्षता का विचार इसी लिए सामने आया था कि इस भूभाग में सिर्फ हिंदू-मुसलमान की
विवाद नहीं है, हिंदू कहलाने वाले विभिन्न समुदायों में भी एक-दूसरे का विरोध रहा है,
जिसकी वजह से महाभारत होने के कुछ वर्षों बाद फिर युद्धों का सिलसिला शुरू हो गया और
यहां के लोगों की आधी जिंदगी किसी अन्य राजा के साथ संघर्ष करने में ही गुजरी। मुसलमान
हमलावरों के आने से पहले ही भारतीय भूभाग विभिन्न राजाओें के अधिकार में रहा था और
सबसे ज्यादा युद्ध इसी भूमि पर लड़े गए। कोई-कोई राजा इस भूभाग के बाकी हिस्सों के
राजाओं को अपने अधीन करके अपने नियमों के अनुसार शासन करने की स्वतंत्रता दे देते थे।
जो सबसे ज्यादा राजाओं को अपने अधीन कर लेता था, वह चक्रवर्ती सम्राट कहलाता था।
महाभारत
के बाद पहला चक्रवर्ती सम्राट चंद्रगुप्त हुआ, जिसने महामात्य कौटिल्य के मार्गदर्शन
में जनता के बीच से उठकर नंद वंश के राजाओं से लोहा लिया और फिर उसके बाद युद्ध करते
हुए अधिकतर भारतवर्ष अपने अधिकार में कर लिया था। तब कौटिल्य चाणक्य कहलाए। चंद्रगुप्त
ने शासन प्रणाली में लोकतंत्र के नियमों को शामिल किया था, जिसमें शासन के जनता से
जुड़े रहने की भावना प्रमुख थी। वह शासन प्रणाली लंबे समय तक चली। चंद्रगुप्त मौर्य
का कार्यकाल इतिहास में ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में माना जाता है। मतलब आज से करीब
2500-2600 साल पहले।
भारतीय
कालगणना में महाभारत का समयकाल उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर करीब-करीब तय हो चुका है।
जो कालगणना अब तक हुई है, उसमें कलियुग का प्रारंभ ईसा पूर्व 3102 से प्रारंभ माना
जाता है। हिंदुओं की धार्मिक मान्यता के अनुसार द्वापर युग का समापन कृष्ण के महाप्रयाण
के बाद हुआ। उसके बाद कलियुग की शुरूआत हुई थी। ईसा पूर्व के समय की गणना के मुताबिक
कृष्ण का जीवनकाल ईसा पूर्व 3227 से लेकर 3102 के दौरान होने का अनुमान लगाया जाता
है।
महाभारत
के समय हस्तिनापुर था। एक वंश का एकछत्र साम्राज्य चल रहा था। उसके परिवार में दो गुट
बन गए। एक गुट कौरव कहलाया, दूसरा गुट पांडव। ये दोनों गुट बनने, उनमें संघर्ष होने
तक का इतिहास पौराणिक कथाओं के माध्यम से उपलब्ध है। वहां तक पहुंचने के लिए एक बार
फिर पीछे लौटना पड़ेगा और वह अलग विषय हो जाएगा। पौराणिक कथाएं कितनी सत्य हैं और कितनी
अतिशयोक्ति पूर्ण तरीके से लिखी गई हैं, इसका अनुमान लगाना मुश्किल है क्योंकि पौराणिक
कथाओं में वेद आधारित बहुत कम है।
वेद
के संक्षिप्त सूत्र संस्कृत में उपलब्ध हैं, जो इतने कसे हुए हैं कि उनमें व्याकरणगत
चालाकी से हेरफेर और भाव परिवर्तन की गुंजाइश नहीं है। वे एकदम संक्षिप्त हैं एकदम
सांकेतिक रूप से विभिन्न शब्दों के आधार पर प्रस्तुत हैं। जिन्हें मंत्र कहा जाता है।
इन चार वेदों के शीर्षक ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद हैं। ये भारत भूमि पर
उन ऋषियों के अनुसंधान पर आधारित हैं, जो उन्होंने प्रकृति और उसके संचालन के नियमों
के आधार पर मनुष्य सहित ब्रह्मांड, सूरज, धरती, चंद्रमा और अन्य ग्रहों की भूमिका,
उनमें अंतरसंबंध, उनकी परिक्रमा की नियमितता का अध्ययन करते हुए धरती पर मौजूद मनुष्य
सहित समस्त जीवधारियों की प्रकृति और प्रवृत्ति के आधार पर रचे हैं। इनमें मनुष्य, आत्मा, परमात्मा, परमात्मा
से आत्मा का प्रकृति से संबंध, आत्मा का गुण,
स्वभाव, आत्मा और परमात्मा, व्यवहार, आचरण, स्वर, व्याकरण, भाव आदि पर प्रकाश डालने
का प्रयास हुआ है। जैसे तमसो मा ज्योतिर्गमय, सत्यमेव जयते आदि इत्यादि। (बाकी अगली
किस्त में)
वेद,
उपनिषद और षड्दर्शन
हिंदुत्व
नामकरण होने से पहले भारत में करीब एक दर्जन दर्शन अस्तित्व में आ चुके थे। इनमें से
छह वेदों पर आधारित हैं। वेदों का रचनाकाल स्पष्ट नहीं है। वेद भारतीय धर्म, दर्शन,
साहित्य, संस्कृति सभी के मूल स्रोत माने जाते हैं। वेदों की रचना में हजारों साल का
समय लगा है। भारतीय धार्मिक परंपरा में वेदों को नित्य, अपौरुषेय और ईश्वरीय माना जाता
है। कई ऋषियों के सामूहिक प्रयास से वेदमंत्रों की रचना हुई है। वेदमंत्रों के आधार
पर वैदिक साहित्य का विकास हुआ है, जो चार चरणों में माना जाता है। संहिता, ब्राह्मण,
आरण्यक और उपनिषद। मंत्रों और स्तुतियों के संग्रह को संहिता कहते हैं। संहिता के मंत्र
यज्ञ के मौके पर देवताओं की स्तुति के लिए गाए जाते थे। आज भी धार्मिक और सांस्कृतिक
कार्यों के मौके पर इनका गायन होता है।
ब्राह्मण
ग्रंथों में यज्ञों की विधि, उनके प्रयोजन, फल आदि का विवेचन है। आरण्यक ग्रंथों में
आध्यात्मिकता की ओर झुकाव है जो वानप्रस्थियों के लिए उपयोगी है। उपनिषदों में आध्यात्मिक
चिंतन की प्रधानता है। ब्राह्मण ग्रंथों में शतपथ, तांडय आदि प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण
है। ऐतरेय और तैत्तिरीय आदि नाम के आरण्यक और उपनिषद दोनों हैं। इनके अलावा उपनिषदों
में ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुंडक, मांडूक्य आदि प्रमुख हैं। ये सभी भारतीय चिंतन के
आदिस्रोत हैं। वेदों को दर्शन में शामिल नहीं किया गया है। दर्शन उपनिषद काल से अस्तित्व
में आने लगा था। दर्शन का अर्थ है देखना। जिसके द्वारा देखा जाए या जिसमें देखा जाए।
यह देखना प्रकृति में आत्मा और परमात्मा के संबंधों के बारे में संकेत करता है। उपनिषद
काल के बाद भारतीय जीवन में षट्दर्शन अस्तित्व में आए। ये सभी छह दर्शन वेदों पर आधारित
और आस्तिकता से परिपूर्ण है।
षड्दर्शन
में न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा, वेदांत शामिल हैं। न्याय दर्शन के प्रणेता
महर्षि गौतम हैं। वैशेषिक दर्शन के रचयिता महर्षि कणाद हैं। सांख्य दर्शन की रचना महर्षि
कपिल ने की। महर्षि पतंजलि ने योग दर्शन प्रस्तुत किया। मीमांसा दर्शन मीमांसासूत्र
पर आधारित है, जिसकी रचना महर्षि जैमिनी ने की थी। वेदांत दर्शन वेदों का अंतिम सिद्धांत
माना जाता है, जिसके रचयिता महर्षि व्यास हैं, जिन्हें वेद व्यास भी कहा जाता है। वेदों
के अध्ययन और उनके आधार पर दर्शन की रचना का सिलसिला इसके बाद समाप्त हो गया। हम कह
सकते हैं कि महाभारत के बाद भारत में बनी परिस्थितियों के कारण यह विकास रुक गया होगा।
वेद
आधारित षट्दर्शनों में विष्णु और शिव में भेद करने वाली बातें नहीं हैं। यह भेद महाभारत
के बाद जो भारतीय समाज विकसित हुआ, उसमें पैदा हुआ होगा। महाभारत की रचना वेद व्यास
ने की थी, ऐसा सभी मानते हैं। महाभारत लिखने के लिए उन्होंने गणेशजी की सेवाएं ली थीं,
जो शिव-पार्वती के पुत्र माने जाते हैं। अनुमान लगाया जा सकता है कि महाभारत के बाद
विष्णु भक्तों और शिव भक्तों के अलग-अलग समूह उभरने लगे होंगे। उस समय के अलग-अलग राजाओं
में कुछ विष्णु भक्त होंगे और कुछ शिव भक्त। उनमें परस्पर प्रतिद्वंद्विता रही होगी।
महाभारत के बाद भारत में वेदांत पर आधारित ही अनेक संप्रदाय बन चुके थे, जिन्हें अद्वैत,
द्वैत, द्वेताद्वैत, विशिष्टिाद्वैत आदि नामों से जाना जाता है। इनमें आपस में भी परस्पर
मतभेद पैदा हो चुके थे।
यह अनुमान
आजादी के बाद भारत सरकार की तरफ से शक संवत को महत्व देने से पुष्ट होता है। हिंदुओं
में ज्यादातर लोग विक्रम संवत के आधार पर कालगणना करते हैं, जबकि शक संवत के अनुसार
काल गणना भी विक्रम संवत के अनुरूप है। विक्रम संवत विक्रमादित्य के आधार पर माना जाता
है, जबकि शक संवत के बारे में कोई सर्वमान्य राय नहीं है। शक संवत का नाम शालिवाहन
है। पौराणिक कथाओं में शक वंश की उत्पत्ति सूर्यवंशी राजा नरिष्यंत से मानी जाती है।
नरिष्यंत को राजा सगर ने शासन से हटाकर देश से निकाल दिया था और म्लेच्छ घोषित कर दिया
था। तब शक मध्य एशिया में शाकल द्वीप पर जाकर बस गए थे। वह शाकल द्वीप आजकल सीरिया
नाम से जाना जाता है। शकों का निष्कासन उस जमाने में शिव भक्तों और विष्णु भक्तों के
बीच खाई पैदा होने का संकेत है। शकों के निष्कासन के बाद भारत में वैष्णव भक्तों का
वर्चस्व बन गया था।
शाकल
द्वीप पर बसने के बाद शकों की ताकत बढ़ गई और उन्होंने एक बड़े क्षेत्र पर अपना आधिपत्य
स्थापित करने के बाद भारत वर्ष में हमले करने शुरू किए। तक्षशिला, मथुरा, महाराष्ट्र
और उज्जैन में शकों का शासन स्थापित हो चुका था। वैष्णव लोग शकों के खिलाफ थे। विक्रमादित्य
ने शकों का शासन समाप्त कर दिया था, इसलिए उनकी याद में विक्रम संवत की शुरूआत हुई
थी। शक संवत और विक्रम संवत में जो विवाद है, वह वैष्णवों की ओर से उठाया गया प्रतीत
होता है, जबकि यह प्रमाणित है कि शक भी मूल रूप से भारतीय ही थे। भारत सरकार ने इसी
आधार पर शक संवत को भारतीय संवत घोषित दिया है। इस समय हिंदुओं की प्रचलित विचारधारा
है, जिसे हम हिंदुत्व कहते हैं, उसमें वैष्णवों की प्राथमिकता है।
महाभारत
के बाद भारत के सनातन धर्मियों में षट्दर्शनों के अलावा कुछ और दर्शन अस्तित्व में
आए। इनमें लोकायत, शैव एवं शाक्त दर्शन प्रमुख हैं। उन्हें भी प्रमुख हिंदू दर्शनों
में शामिल किया गया है। शैव दर्शन में शिव की और शाक्त में शक्ति (देवी) की उपासना
को प्रमुखता दी गई है। इसके अलावा ब्रहस्पति सूत्र पर आधारित चार्वाक दर्शन है, जिसके
प्रणेता महर्षि चार्वाक माने जाते हैं। यथार्थवाद और भौतिकवाद पर आधारित इस दर्शन को
नास्तिकवाद का आधार माना जाता है। इसमें आत्मा, परमात्मा, स्वर्ग आदि को काल्पनिक बताया
गया है। इसके अनुसार भूतों के संयोग से देह में चेतना पैदा होती है, जो मौत के बाद
समाप्त हो जाती है। आत्मा नित्य नहीं है। उसका पुनर्जन्म नहीं होता इसलिए जीवनकाल में
सुख की साधना करना ही जीवन का लक्ष्य होना चाहिए।
समझा
जा सकता भारतीय संस्कृति वेदों पर आधारित होने के बावजूद उसमें कितने मतभेद पैदा हो
चुके थे। यह सिलसिला आगे भी जारी रहा। इसके बाद जैन और बौद्ध धर्म अस्तित्व में आए।
महाभारत
के बाद की तस्वीर
समझा
जा सकता है कि महाभारत के बाद भारत का सामाजिक वातावरण अस्त व्यस्त हो चुका था। हिंदू
या सनातन मान्यता के मुताबिक काल अनंत है। इसके चार युग माने जाते हैं। सतयुग, त्रेता,
द्वापर और कलियुग। सतयुग में जीवन अलग था। सत्य पर आधारित था। त्रेता में कुछ आसुरी
ताकतों का विस्तार हुआ। समाज में छल कपट की मात्रा बढ़ी। राजा हुए। सामाजिक शासन व्यवस्था
बनी। राम का अवतार हुआ। द्वापर में आसुरी ताकतों का विस्तार बहुत बढ़ गया। अन्याय का
सिलसिला शुरू हुआ। राजदरबार में चीरहरण हुआ। स्त्रियों के अपहरण की घटनाएं बहुत होने
लगी। सामर्थ्यवान लोग जगह-जगह अपने शासन का विस्तार करने लगे। कृष्ण का अवतार हुआ।
धर्म और अधर्म के पक्ष में पांडव और कौरव आमने-सामने हुए। महाभारत का युद्ध हुआ, जिसमें
कौरव वंश का नाश हो गया। पांडवों की सेना में भी बहुत कम लोग बचे। इसके बाद दुनिया
बदल गई।
कृष्ण
नहीं रहे, पांडव नहीं रहे। भारत में तरह-तरह के राजाओं की मनमानी फिर शुरू हो गई। उनमें
घमासान होने लगा। युद्धों का सिलसिला जारी रहा। कई बार राजाओं की आपसी खुन्नस में युद्ध
हुए। कलियुग का प्रारंभ हो चुका था। अनीति का विस्तार होने लगा था। प्राचीन ऋषियों
के अनुसंधान पर आधारित परंपरा से चला आ रहा ज्ञान विलुप्त होने लगा। परंपरा से ज्ञान
इस प्रकार चला आ रहा था कि ऋषि गण किसी विषय पर अनुसंधान करते थे और निष्कर्ष निकालने
के बाद उन्हें संक्षिप्त मंत्र के रूप में स्वरबद्ध करते थे, जिन्हें संगीतबद्ध तरीके
से गाया भी जा सकता था। बाद में इन मंत्रों को लिपिबद्ध किया जाने लगा।
वेदों
में ऐसे मंत्र बड़ी संख्या में संग्रहीत हैं। इन मंत्रों को कंठस्थ करके अगली पीढ़ी
तक पहुंचाने वाले लोग ब्राह्मण कहलाते थे। ब्राह्मणों का बहुत सम्मान था। समाज व्यवस्था
सुचारु बनाए रखने में क्षत्रियों का योगदान महत्वपूर्ण होता था। कारोबार प्रारंभ होने
के बाद इसकी जिम्मेदारी वैश्य वर्ग ने संभाली और श्रम के माध्यम से सेवा करने का कार्य
शूद्रों के लिए तय हुआ। पहले कार्यों के माध्यम से वर्ग तय होता था। बाद में इन कार्यों
के लिए जातियां बन गईं। उनके आधार पर अलग-अलग रीति-रिवाज बन गए। परंपराएं बनीं और रूढ़
हो गईं। जातियों के आधार पर मनुष्यों में भेदभाव का सिलसिला बना और अब कर्म कुछ भी
हो जाति के आधार ही मनुष्य की श्रेष्ठता देखी जाती है। वेदमंत्रों से मिलने वाली शिक्षा
पर कोई ध्यान नहीं देता। कुछ वेदमंत्र बचे हैं जो धार्मिक कर्मकांडों तक सीमित रह गए
हैं।
महाभारत
को पश्चिमी इतिहासकार प्रामाणिक नहीं मानते, लेकिन भारत में वह कई लोगों के लिए पौराणिक
इतिहास का प्रमुख अंग है। भारत के कालक्रम के अनुमान पर इतिहास का जिस तरह आकलन हुआ
है, उसमें चार वेदों की रचना का उल्लेख है। वेदों की रचना का समय पौराणिक इतिहास के
अनुसार अलग है और आधुनिक पाश्चात्य इतिहासकारों के अनुसार अलग। आधुनिक इतिहाकारों का
वेदों की रचना के समय का अनुमान गलत हो सकता है, लेकिन महाभारत काल के कुछ समय बाद
से कालक्रम की गणना का विश्वसनीय प्रयास अवश्य हुआ है।
महाभारत
के तत्काल बाद के इतिहास का वर्णन न पुराणों में है और न ही इतिहास में। विश्वसनीय
तरीके से इतिहास लेखन का कार्य बहुत बाद में शुरू हुआ, जिसमें ईसा पूर्व 600 के बाद
से भारत में किन शासकों का शासन रहा, इसका उल्लेख है। उस समय भारत 16 महाजनपदों में
विभाजित था। ये थे अंग, अस्सक या अस्मक, अवंति, चेदि, गांधार, काशी, कांबोज, कोसल,
कुरु, मगध, मल्ल, मच्छ या मत्स्य, पांचाल, शूरसेन, वज्जि, वत्स या वम्स।
इन महाजनपदों
में विभिन्न राजवंशों का शासन रहा। इनमें हर्यक, शिशुनाग, नंद, मौर्य, इंडो-ग्रीक,
शक, कुषाण, शुंग, कण्व, सातवाहन, पांड्य, चोल, चेरि, गुप्त, पुष्यभूति, राष्ट्रकूट,
गंग, पल्लव आदि राजवंश प्रमुख थे। नंद वंश के शासनकाल के दौरान ईसा पूर्व 326 में भारत
पर हमला करने यूनान से सिकंदर सेना लेकर सिंधु नदी पार करके आ गया था। पोरस ने उसके
साथ युद्ध किया था। उस समय यूनानी शासकों ने भारत में पहली बार सोने के सिक्के जारी
किए थे और भारत का यूनानी संस्कृति से परिचय हुआ था। यूनानी शासकों ने भारत के पश्चिमी
हिस्से में कुछ इलाकों पर अपना राज्य स्थापित कर लिया था।
कौटिल्य
की सहायता से नंद वंश का शासन समाप्त कर चंद्रगुप्त मौर्य ने मौर्य वंश का शासन स्थापित
किया था। मौर्य वंश के अंतिम शासक सम्राट अशोक थे। ईसा पूर्व 563 से 483 तक बुद्ध का
जीवन माना जाता है। ईसा पूर्व 540 से 468 तक महावीर का जीवन काल माना जाता है। इन दोनों
के उपदेशों के आधार पर नए बौद्ध और जैन धर्म बने। सम्राट अशोक ने कलिंग युद्ध के बाद
बौद्ध धर्म को प्रोत्साहन देना शुरू कर दिया था। बुद्ध और महावीर के उपदेशों से भारत
में धार्मिक क्रांति शुरू हो गई थी। बड़ी संख्या में लोग दोनों नए धर्मों को अपनाने
लगे थे। तब तक भारत में हिंदू शब्द का प्रचलन शुरू नहीं हुआ था। हिंदुस्तान शब्द भी
नहीं बना था।
हिंदुत्व
के नाम पर राजनीतिक ध्रुवीकरण
इस समय
हिंदुत्व के नाम पर राजनीतिक ध्रुवीकरण हो रहा है। यह लेखक और उसके सभी परिचित हिंदू
ही हैं लेकिन कुछ खास किस्म के लोग हमें सिर्फ धर्म के आधार पर हिंदू मानते हैं और
खुद को किसी अन्य धर्म का अनुयायी बताने में गर्व का अनुभव करते हैं। इनमें मुसलमान
सबसे स्पष्ट वर्ग है। दूसरा प्रमुख वर्ग है ईसाई। बाकी अन्य है बौद्ध, जैन, सिख, पारसी,
आदि।
इन सभी
धार्मिक वर्गों से हिंदुओं का ढांचा बिलकुल अलग है। हिंदुओं का कोई एक विशेष गुरु या
देवता नहीं है। कोई किसी देवता की पूजा करता है, कोई किसी देवी की तो कोई निराकार परमात्मा
की। कुछ लोग परमात्मा को मानते ही नहीं। वे नास्तिक हैं फिर भी हिंदू ही कहलाते हैं।
अन्य धर्मों में कोई नास्तिक नहीं है।
यह हमारे
धर्म की उदारता ही है कि आत्मा और परमात्मा के संबंध में किसी को भी अपने स्पष्ट विचार
रखने की स्वतंत्रता है। जब ये तमाम धर्म अस्तित्व में नहीं आए थे, तब भी धर्म का अस्तित्व
था और महाभारत में धर्म और अधर्म के बीच युद्ध हुआ था। वह धर्म कौनसा था? तब तक भारत
भूमि पर किसी अन्य द्वीप के सदूर स्थित क्षेत्रों के लोगों का आगमन नहीं हुआ था। आवागमन
की सुविधा ही नहीं थी तो आते कहां से? निश्चित ही तब सनातन धर्म था।
जब लंका
में रावण का राज था, तब भी सनातन धर्म ही था और राम के अवतार लेने से पहले था। राम
से पहले रावण था। रावण को समाप्त करने के लिए राम का अवतार हुआ था। राम के बाद कुछ
समय अवश्य समाज में शांति रही होगी। लेकिन बाद में फिर धांधली शुरू हो गई अनीति विस्तार
होने लगा। समाज में उपद्रव शुरू हो गए थे।
मथुरा
का राजा कंस इस कदर दुष्ट हो चुका था कि उसने अपनी मौत के भय से बहन देवकी के तमाम
पुत्रों की जन्मते ही हत्या कर दी थी। देवकी और वसुदेव के आठवें पुत्र के रूप में कृष्ण
का अवतार हुआ। राम के युग में चलने वाली नीतियां और आदर्श बदल चुके थे। कृष्ण ने भारतीय
समाज को नई दिशा दिखाई। धर्म के पक्ष में वातावरण बनाया।
जब यह
सब धर्म के पक्ष में और अधर्म के विरुद्ध चल रहा था तो कैसे? इसकी व्याख्या करने के
लिए कई पौराणिक कथाएं हैं। क्या हुआ होगा, इसका हम अपनी बुद्धि से ही अनुमान लगा सकते
हैं। पश्चिमी लोगों की बुद्धि अलग तरह से काम करती है और पूर्व की बुद्धि अलग तरह से।
पश्चिम में भौतिकवाद की प्रधानता है और पूर्व में आध्यात्मिकता की। पहले विचारधाराएं
स्पष्ट हुआ करती थीं। अब वे सारी विचारधाराएं गड्डमड्ड हो चुकी हैं। कई नई विचारधाराएं
बन चुकी हैं और उनमें परस्पर संघर्ष की स्थिति बनती रहती है।
तो बात
वहीं से शुरू करनी होगी, कि सबसे पहले धरती पर मनुष्य कब बना? इसको लेकर तमाम धर्मों
में अलग-अलग मान्यताएं है। हिंदुओं के अनुसार ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना की। इस्लाम
के मुताबिक परमात्मा पहले से था। उनका एक दूत धरती पर आया था, जिसे पैगंबर कहते हैं।
पैगंबर ने मनुष्यों का समाज बनाया। ईसाइयों के धर्मग्रंध बाइबिल के अनुसार दो लाख नौ
हजार साल पहले परमात्मा ने एडम्स (आदम) और ईव (हौवा) को सजा के बतौर धरती पर भेजा था।
उन्होंने यहां संभोग के माध्यम से सृष्टि की रचना की।
वैज्ञानिक
विचारधारा के अनुसार सृष्टि का क्रमिक रूप से विकास हुआ। सबसे पहले एक कोशीय जीव बने।
उनके म्यूटेशन के जरिए नए जीवों का विकास होता रहा। इस तरह म्यूटेशन के आधार पर विभिन्न
प्राणियों की रचना होती रही। नए विकसित प्राणी बनने लगे। जलचर बने, उभयचर बने, सिर्फ
जमीन पर रहने वाले प्राणी बने। जमीन पर चलने के साथ ही आसमान में उड़ने वाले पक्षियों
की रचना हुई। पैरों वाले प्राणी बने। चार पैरों वाले जानवर बने फिर दो पैरों के प्राणियों
का विकास होते-होते मनुष्य बन गया। लेकिन सबसे पहले एक कोशीय जीव भी कब बना, इसके प्रमाण
किसी के पास नहीं है।
मनुष्य
का जन्म और समाज की रचना
अगर
हम सब धर्म का पालन करते हैं तो पूछा जाएगा धर्म कौनसा? हम यही जवाब दे सकते हैं कि
हम हिंदू हैं। मान लेते हैं कि अन्य तमाम धर्मों की मौजूदगी के बीच स्वयं को परिभाषित
करने के लिए हिंदू धर्म कहना ठीक है तो यह अन्य धर्मों के पहले से चला आ रहा है, यह
मानना पड़ेगा। धर्म के आधार पर बहुत विवाद पैदा होते हैं और लड़ाई-झगड़े होते हैं।
हिंदू-मुसलमान के दंगे इस देश में बहुत होते रहे हैं। मुसलमानों का धर्म इस्लाम नया
है। सिर्फ डेढ़ हजार साल पुराना। उन्होंने भारत में आकर यहां के लोगों को मारना शुरू
किया और शासन करने लगे। उनके आने से पहले तो कभी हिंदू शब्द प्रचलित नहीं हुआ। मुसलमानों
के आने के बाद से ही हिंदू शब्द प्रचलित है।
दरअसल
हुआ यह था कि धरती पर किसी भी तरह मनुष्य का जन्म हो गया। उसके पास बुद्धि है, विश्लेषण
क्षमता है, सीखने की क्षमता है, दूसरों को सिखाने की क्षमता है, बोलने की क्षमता है,
अभिव्यक्ति की क्षमता है, बुद्धि है और उसके प्रयोग की क्षमता है। और भी क्षमताएं हैं,
जो अन्य प्राणियों के पास नहीं है। अन्य प्राणियों की क्षमताएं अलग हैं। मनुष्य अपनी
बुद्धि के प्रयोग से अन्य प्राणियों की क्षमताओं का भी अपने हित में उपयोग कर सकता
है। लेकिन यह सब अकस्मात नहीं होता। सीखना पड़ता है।
सोचने
की बात है, मनुष्य का इस धरती पर पहला दिन कैसा होता है। वह करीब डेढ़-दो किलो वजनी
मांसपिंड के रूप में एक स्त्री के शरीर के विशेष छिद्र योनि से नीचे टपक जाता है। उस
मांसपिंड का विकास स्त्री के शरीर में होता है। जहां होता है, उसे गर्भ कहते हैं। गर्भ
में अंडे बनते रहते हैं। हर अट्ठाइस दिन में वे अंडे योनि से दुर्गंधयुक्त द्रव के
रूप में बाहर निकलते हैं। किसी पुरुष के साथ वयस्क स्त्री का संभोग होने के बाद मनुष्य
के वीर्य में उपस्थित शुक्राणुओं में से कोई भाग्यशाली एक गर्भ में अंडे तक पहुंचकर
उससे चिपक जाता है और नए मनुष्य के बनने की प्रक्रिया शुरू होती है।
मनुष्य
स्त्री के गर्भ से उसी प्रकार अपने आप बाहर निकलता है, जैसे देह में पुरुष के लिंग
और स्त्री की योनि के समानांतर पिछले द्वार से शरीर का सारा खाया-पीया मल के रूप में
बाहर निकलता है। संभोग में पुरुष के लिंग का उपयोग होता है, जिसका आकार ऋतु, वातावरण,
अवस्था, मनोस्थिति के आधार पर घटता बढ़ता है। अधिकांश पुरुष शरीर के इस विशेष अंग को
चरम आनंद का प्रमुख स्रोत मानते हैं। लिंग हमेशा जमीन की तरफ गुरुत्वाकर्षण से बंधा
लटकता रहता है। उससे मूत्र का विसर्जन होता रहता है। काम भावना जाग्रत होने पर विशेष
परिस्थिति में वह कठोर होकर ऊर्ध्व स्थति में पहुंचता है। उसकी प्रोग्रामिंग बदल जाती
है, जिससे संभोग की इच्छा और परिस्थिति का निर्माण होता है। उसके बाद ही नए मनुष्य
के जन्म के मौके बनते हैं।
स्त्री
प्रत्येक मनुष्य को जन्म देती है। वह इस विषय में क्या सोचती है, आज तक कोई पुरुष नहीं
जान पाया। उसकी योनि भी सिकुड़ती फैलती है, लेकिन उसे छिपाकर रखने का रिवाज प्राचीन
काल से है। स्त्री काम वासना जाग्रत होने पर सिर्फ संकेत और व्यवहार से अभिव्यक्त करती
है, लेकिन अधिकांश पुरुष इसे समझ नहीं पाते। यह स्त्रियों की सबसे बड़ी समस्या है।
स्त्री का पुरुष को संभोग के लिए प्रेरित करना प्यार, मोहब्बत के नाम से जाना जाता
है। इसका प्रतीकात्मक वर्णन बहुत हुआ है। साहित्य का ढेर है। लेकिन साफ शब्दों में
बात करने के उदाहरण बहुत कम मिलते हैं।
मनुष्य
को जन्म के बाद आधि-व्याधि से बचते हुए वयस्क होना पड़ता है। वह बच्चे से बड़ा होता
है। उसके शरीर का विकास पचास-पिचत्तर किलो तक पहुंच जाता है। और ऊंचाई पांच से साढ़ेपांच-साढ़े
छह फीट तक। पुरुष का भी, स्त्री का भी। पुरुष का शरीर अलग तरीके से विकसित होता है।
स्त्री का शरीर अलग तरह से। दोनों के मस्तिष्क का पता नहीं लेकिन शरीर की कार्यप्रणाली
अलग-अलग होती है। भोजन आदि समान होता है, लेकिन भोजन ग्रहण करने के बाद बाकी व्यवस्थाएं
बदल जाती है। समाज की पूरी व्यवस्था पुरुष के पास होने से वह स्त्री को कभी भी अच्छी
तरह से नहीं समझ पाता। भारतीय विवाह परंपरा में लंबे समय तक के लिए विवाह की व्यवस्था
इसी लिए है। विवाह के बाद दोनों एक दूसरे को समझते हैं। दोनों की पूरी जिंदगी निकल
जाती है, एक दूसरे को कभी नहीं समझ पाते। हर दिन एक नया सवाल जीवन की गति बनाए रखता
है।
समाज
व्यवस्था पर पूरी तरह पुरुषों का नियंत्रण है। जितने भी अवतार और पैगंबर, जिनके नाम
पर कट्टरता फैलाई जाती है, वे भी पुरुष थे। सभी ने जितना भी ज्ञान बांटा है, उसमें
स्त्री को विशेष वस्तु की तरह माना है। स्त्रियों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भयानक
रूप से सीमित है। उनकी देह का इस्तेमाल बहुत है, लेकिन उनकी बुद्धि को मान्यता नहीं
है। कई महिलाओं की सिर्फ देह का व्यापार अनाप-शनाप तरीके से बढ़ चुका है। वह तमाम विज्ञापनों
में इस्तेमाल हो रही है। पुरुषों की काम वासना पूरी करने के लिए स्त्री देह की मंडियां
हैं, बाजार सजे हैं। इसका बहुत बड़ा कारोबार चल रहा है।
यह सब
अश्लीलता फैलाने के लिए नहीं, यह स्पष्ट करने के लिए लिखा जा रहा है कि पता नहीं, राजनीतिक
लाभ के लिए कट्टरता फैलाने वाले लोग मनुष्य के जन्म और विकास के बारे में बुनियादी
तथ्य जानते हैं या नहीं? यह सब हो रहा है, प्रत्यक्ष है, छिपी हुई बात नहीं है और हम
सब हिंदू हैं, देख रहे हैं। अन्य धर्म में भी नहीं जा सकते क्योंकि यहीं के हैं तो
हिंदू ही हैं और हिंदू ही रहेंगे। और हिंदू अगर अन्य धर्मों के साथ मिल-जुलकर रहना
सीख गए हैं तो हिंदुत्व के नाम पर उनकी राजनीतिक गोलबंदी क्यों? यही बात दुखी करने
वाली है। क्या द्वेष पालने के लिए समाज की नारकीय बुराइयां कम पड़ रही हैं, जिन्हें
सभी मनुष्य मिलकर पैदा किए हुए हैं?
मनुष्यों
की समानता और सामाजिक भेदभाव
पहले
मनुष्य का जन्म हुआ। स्त्री और पुरुष के संयोग से उसका परिवार बना। उसके बाद उसकी बुद्धि
से समाज बना। एक जोड़ा बनने के बाद जैसे-जैसे अन्य जोड़े बनने लगे वैसे ही नए मनुष्यों
का जन्म होने लगा। इस तरह समाज बना। समाज की व्यवस्थाएं बनीं। सामाजिक रूप से जीवन
यापन के तौर-तरीके विकसित किए गए। वह समाज आज यहां तक विकसित और विस्तारित हो चुका
है कि अब समेटने में नहीं आ रहा है। प्रकृति प्रदत्त जितने साधन-संसाधन धरती पर हैं,
सभी पर मनुष्य का अधिकार है और उनका जमकर दुरुपयोग हो रहा है।
जब सबसे
पहले मनुष्य का जन्म हुआ होगा तो स्त्री-पुरुष के संभोग से ही हुआ होगा। उसके अलावा
नए मनुष्य के जन्म का कोई उपाय भी नहीं है। जब कुछ भी नहीं था। सिर्फ तमाम प्राणियों
से परिपूर्ण यह धरती थी। उसमें किसी भी तरह मनुष्य बन गया। खुदा ने भेजा हो या म्यूटेशन
से विकसित हुआ हो। पहला मनुष्य तो बना ही था। हम सभी जीवित मनुष्यों की धरती पर उपस्थिति
इसका साक्षात प्रमाण है।
अब यहां
सवाल है कि सबसे पहले जो मनुष्य बना, वह पुरुष था या स्त्री, या पहले पुरुष बना और
स्त्री को पैदा करने के बाद उससे संभोग करने लगा। या पहले स्त्री बनी और उसने किसी
तरह गर्भधारण करने के बाद पुरुष को जन्म दिया। कुछ भी हो सकता है। कुछ तो हुआ ही होगा।
कार्य-कारण संबंधों का विचार करें तो मनुष्य के जन्म का कोई कारण अवश्य रहा होगा। तमाम
धर्म इसके अलग-अलग कारण बताते हैं।
हमारी
उम्र बहुत कम है। सौ डेढ़ सौ साल से ज्यादा तो बिलकुल नहीं। अगर कोई इससे भी ज्यादा
जीवित रह जाए तो उसमें अतिरिक्त अमानवीय क्षमता होगी। ऐसे प्रमाण भी कहीं-कहीं हैं।
हिमालय के दुर्गम क्षेत्रों में धरती पर लंबे समय से रहने वाले महामानवों की उपस्थिति
बताई गई है। भारत की पौराणिक गाथाओं में आठ व्यक्ति अमर हैं। वे या तो किसी वरदान से
या श्राप से अमरत्व प्राप्त हैं। हम भारत में इस समय चल रही हिंदुत्व की विचारधारा
पर विचार कर रहे हैं, जिसे सांप्रदायिक कट्टरता में परिवर्तित करने का प्रयास किया
जा रहा है।
गंभीरता
से विचार किया जाए तो यही निष्कर्ष सामने आता है कि सभी मनुष्य समान हैं और उनमें उनके
अपने व्यक्तित्व और विचारधारा के आधार पर भेदभाव हैं। अगर प्रेम है तो मनुष्यों के
बीच सांप्रदायिकता के आधार पर भेदभाव नहीं होना चाहिए। अगर होता है तो इसके पीछे द्वेष
की भावना अवश्य है। एक मनुष्य दूसरे से द्वेष करता है, इसलिए भेदभाव पैदा होता है।
यह भेदभाव कट्टरता में बदल जाता है। यह कट्टरता धर्म के आधार पर क्यों?
हिंदुओं
ने पहले से ऊंची जाति, नीची जाति, विष्णु, शिव, शक्ति दुर्गा आदि के नाम से मनुष्यों
में आपस में भेदभाव करने के लिए तरह-तरह की कट्टरता बना रखी है। इस कट्टरता के चलते
आत्मा और परमात्मा के बारे में कपोल-कल्पित रचनाएं करके एक विशाल भ्रमजाल पहले ही बनाया
जा चुका है। विकास और विनाश के सभी कारण मनुष्य ने स्वयं अपनी बुद्धि से उत्पन्न कर
लिए हैं। ऐसे में नए विषय खोजकर उनके आधार पर नई तरह की कट्टरता पैदा करना क्या उचित
है?
अगर
यह सिर्फ कुछ वर्ष एक भूभाग पर अपनी सत्ता स्थापित करने के लिए है तो इससे मानवता का
कौनसा भला होने वाला है? हम धर्मपरायण हिंदू होने के नाते रावण, कंस, दुर्योधन, जरासंध,
शिशुपाल जैसे लोगों को अधर्मी मानकर निंदा करते हैं। वे भी तो यही करते थे। आज अगर
कोई यह कहे कि वह बुरी ताकतों को खत्म करने के लिए चुनाव जीतना चाहता है, भ्रष्टाचार
खत्म करना है, धन को काला और सफेद मानकर उसमें संतुलन बनाना चाहता है तो इसका क्या
मतलब है? लोकतंत्र में लोग चुनाव से पहले कही गई बातों के आधार पर नेता चुन लेते हैं।
अगर वह नेता चुनाव के बाद विपरीत आचरण करने लगे और लोगों की मुसीबतें बढ़ जाएं तो ऐसे
लोग किस श्रेणी के माने जा सकते हैं?
भारत
में युद्धों के वातावरण में सामाजिक जीवन
हिंदू
संज्ञा करीब डेढ़ हजार साल पहले बनी। उससे पहले सनातन धर्म था। सनातम धर्म में विभिन्न
देवी-देवताओं के आधार पर कट्टरता पैदा हुई। अलग-अलग संप्रदाय बने और उनमें तनाव पैदा
हुआ। लड़ाई-झगड़े होने लगे। महाभारत के बाद भी यह सिलसिला नहीं थमने पर बुद्ध और महावीर
के माध्यम से अहिंसा, संयम आदि के आधार पर नए धर्म बन गए। पहले बौद्ध धर्म बना, फिर
जैन धर्म बना। जैन धर्म अहिंसा पर आधारित था, इसलिए समाज में अहिंसा का प्रचार हुआ।
इससे पहले अकारण हिंसा का विरोध अवश्य था, लेकिन अहिंसा की कट्टर अवधारणा नहीं थी।
महावीर ने साबित किया कि मनुष्य अहिंसा के आधार पर भी जीवित रह सकता है।
इसके
बावजूद विभिन्न राजाओं के बीच युद्धों का सिलसिला जारी रहा। जो इतना बढ़ा कि यहां लोगों
को युद्ध का नियमित प्रशिक्षण मिलने लगा। भारत बाहुबल प्रधान हो गया। चालाकी और छल-कपट
से भरी नीतियों के आधार पर सत्ता पर नियंत्रण होने लगा। इस तरह कई राज्य बन गए थे।
उस समय भी साधु-संन्यासी हुआ करते थे। उन्हें कोई परेशान नहीं करता था, क्योंकि सभी
राजा सनातन धर्मी ही हुआ करते थे। अलग-अलग रीति-रिवाजों के कारण अलग-अलग जातीय समूह
बनने से अलग-अलग राज्यों की शासन प्रणालियों में भिन्नता रही। साधु-संन्यासियों का
सभी राज्यों में सम्मान होता था और तीर्थ यात्रा करने वालों को भी आवागमन में कोई रुकावट
नहीं होती थी।
इस देश
में पवित्र नदियों की परिक्रमा करने की परंपरा है। भारत के विभिन्न भागों में जहां-तहां
ईश्वर की उपस्थिति के प्रतीक के रूप में तीर्थ स्थल बने हुए हैं। देवियों के स्थान
भी हैं और देवताओं के स्थान भी हैं। उन स्थानों पर बड़ी संख्या में भारतीयों का आवागमन
सदियों से रहा है। ये तीर्थस्थल अब चीन में शामिल हो चुके मानसरोवर से लेकर सुदूर दक्षिण
में कन्याकुमारी तक है। भारत के लोग दक्षिण से लेकर उत्तर में कराची से 150 किलोमीटर
दूर हिमालय के दुर्गम क्षेत्र में स्थित हिंगलाज माता के मंदिर तक पहुंच जाते हैं।
पूरे देश में धरती पर महादेव की साक्षात उपस्थिति के प्रमाण के रूप में बारह ज्योतिर्लिंग
हैं, जो भारत के दक्षिणी छोर से उत्तर में केदारनाथ तक जगह-जगह फैले हुए हैं। राम ने
भी अपनी सेना लंका तक ले जाने के लिए भारत से लंका तक समुद्र पार करने के लिए पुल बनवाया
था। इसका कार्य शुरू करने से पहले शिवलिंग की स्थापना की थी, उसके प्रतीक के रूप में
रामेश्वरम तीर्थ बन गया है।
तीर्थ
यात्रा के अलावा व्यापार के उद्देश्य से यात्रा करने वालों को भी असुविधा नहीं होती
थी। काबुल के व्यापारी कोलकाता तक व्यापार करने पहुंच जाते थे। रवीन्द्र नाथ टैगोर
ने काबुलीवाला शीर्षक से एक मार्मिक कहानी भी लिखी है। इससे प्रमाणित होता है कि उस
इलाके से कई लोग वहां उत्पन्न होने वाले फल आदि बेचने के लिए भारत में कहीं भी पहुंच
जाते थे। समुद्री यातायात की सुविधाएं विकसित होने के बाद समुद्र पार के व्यापारी भी
भारत पहुंचने लगे थे। कई विदेशी लोग ज्ञान की खोज में भटकने के लिए भारत में आ जाते
थे और यहां अपने देशों का ज्ञान अपने साथ लाते थे। इस तरह वैचारिक आदान-प्रदान का सिलसिला
बना।
भारत
में समुद्र पार के जिन लोगों ने यहां व्यापार किया, उनमें फ्रांस, पुर्तगाल और इंग्लैंड
के लोग प्रमुख थे। अन्य देशों के लोग भी यहां व्यापार के लिए आते थे। भारत में अत्यंत
उर्वर वातावरण हमेशा बना रहता है। यहां धन के अलावा और भी कई लाभ मिलते हैं। यहां के
लोग कट्टर नहीं हैं। धर्मभीरु हैं। उनकी विचारधारा में सत्ता पर कब्जा करने वाली राजनीति
का स्थान नहीं है। ऐसे लोगों पर सरलता से शासन किया जा सकता है। इसी आधार पर कुछ चालाक
लोगों का भारत के अलग-अलग हिस्सों पर अलग-अलग शासन रहा है। भारत के कुछ हिस्सों पर
यूनानी, पुर्तगाली और फ्रांसीसी भी शासन कर चुके हैं। इंग्लैंड के लोगों ने अपनी चतुराई
भरी कूटनीति से पूरे भारत पर प्रशासनिक नियंत्रण कर लिया था। लेकिन इस अलग-अलग शासन
की व्यवस्था में भी पूरे भूभाग की मूल आध्यात्मिक विचारधारा एक जैसी रही है। आत्मा-परमात्मा,
ईश्वर, मनुष्य का जन्म, विवाह, जीवन शैली और मरण एक जैसी आध्यात्मिक विचारधारा पर आधारित
है।
यही
सनातन विचारधारा है और यही हिंदुओं की विचारधारा होनी चाहिए। हिंदुत्व की परिभाषा इसी
आधार पर तय होनी चाहिए। लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है। सत्ता हासिल करने के प्रयास में
हिंदुत्व को धर्म निरपेक्षता के खिलाफ खड़ा किया जा रहा है, जबकि देश में बड़ी संख्या
में लोग राजनीति को धर्म से अलग मानते हुए धर्म निरपेक्षता के आधार पर राजनीति करते
हैं। क्या वे सभी हिंदुत्व के विरोधी हैं?
सतयुग,
त्रेता, द्वापर और कलियुग
हिंदुत्व
के बारे में विचार करते समय कई बातें सोचनी पड़ती हैं। हिंदुओं में यह मान्यता स्थापित
है कि चार युग थे। सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर युग और कलियुग। इस युग का क्रमिक विवरण
भी उपलब्ध है, जिसमें से सारा मिर्च-मसाला हटा दिया जाए तो उसके बाद यह विश्वसनीय प्रतीत
होता है। हम मान सकते हैं कि ये बातें सही होंगी। सतयुग होगा। त्रेतायुग होगा और द्वापर
भी होगा। अब कलियुग है। कलियुग के बारे में पहले से जो विवरण उपलब्ध है, उसमें इस समय
जो वातावरण बना हुआ है, उसकी झलक पहले से मिलती है। जो लोग हिंदुओं को अंधविश्वासी
मानते हैं और अपनी डेढ़ ईंट अलग से जोड़कर अपने अलग धार्मिक इतिहास की रचना करने का
प्रयास कर रहे हैं, उसमें अब तक कोई सफलता नहीं मिल पाई है।
दो हजार
साल पहले से जो इतिहास रचा जा रहा है, उसे विश्वसनीय माना जा सकता है, लेकिन उससे पहले
विज्ञान के आधार पर कालक्रम की गणना करते हुए बहुत पहले से विकसित वेदों पर आधारित
भारतीय संस्कृति के समयकाल को सिर्फ एक हजार साल के भीतर समेटने की जो चौतरफा कोशिशें
हुई हैं, वे निस्संदेह हास्यास्पद और हिंदुओं के साथ मजाक है। कालक्रम की विश्वसनीय
गणना के लिए वैज्ञानिक आधार पर एक अलग विषय क्रोनोलाजी बनाया गया है।
कालक्रम
की गणना में आम तौर पर ईसवी सन को आधार बनाया गया है। इसमें सूर्य के चारों ओर धरती
की परिक्रमा के आधार पर 365 दिनों का वर्ष माना गया है। अभी ईसा मसीह के बाद 2019 वर्ष पूरे हो रहे हैं।
आज की तारीख 07 सितंबर 2019 है। चंद्रमा की गति के आधार पर रचा गया संवत्सर में भी
कमोबेश इतने दिन ही होते हैं। वह ईसामसीह से ज्यादा पुराना है। उसको पश्चिमी देशों
ने मान्यता नहीं दी है। इस समय भारतीय विक्रम संवत 2076 चल रहा है।
क्रोनोलाजी
के तहत ईसा मसीह से पहले की कालगणना में ईसा पूर्व (बीसी अर्थात बिफोर क्राइस्ट) शब्द
का इस्तेमाल होता है। इसके आधार पर चारों वेदों की रचनाकाल का समय ईसा पूर्व 900 से
1200 और उपनिषदों की रचना का समय ईसा पूर्व 700-800 के दौरान बताया गया है। बुद्ध का
समयकाल ईसा पूर्व 483 से 563 वर्ष के दौरान बताया गया है और महावीर का समयकाल ईसा पूर्व
468 से 540 के दौरान बताया गया है। इसके अनुसार विश्व की पहली सभ्यता 3200 ईसा पूर्व
सुमेर वासियों ने स्थापित की थी। हड़प्पा सभ्यता वेदों की रचना से भी बहुत पहले ईसा
पूर्व 2600-3000 साल पुरानी बताई गई है।
ईसा
पूर्व 5000 साल से पांच लाख वर्षों तक तीन चरणों में पाषाण युग बताया गया है। इससे
पहले प्रागैतिहासिक काल था। वैज्ञानिक आधार पर हुई इस कालगणना में राम रावण युद्ध और
महाभारत का कोई उल्लेख नहीं है। इन्हें आज भी मिथक मात्र माना जाता है। पिछले कुछ वर्षों
से हिंदुत्व का बड़ा जोर है और लोगों को जंचाया जा रहा है कि जो विकास आज हो रहा है,
वह भारत में बहुत पहले ही हो चुका है। मंत्री स्तर के नेता भाषणों में कहते रहते हैं
कि टेस्ट ट्यूब बेबी का प्रयोग हमारे यहां महाभारत में हो चुका है। भारत के लोग विमान
भी बना चुके थे और बहुत बड़े वैज्ञानिक थे। यह बात अलग है कि इतना वैज्ञानिक विकास
होने के बावजूद यात्रा के लिए बैलगाड़ी, घोड़ागाड़ी, ऊंटगाड़ी का ही प्रयोग होता था।
एक तरफ
भारत के योगदान को लेकर हास्यास्पद दावे हैं और दूसरी तरफ पश्चिमी विचारधारा सहित अन्य
धर्मावलंबियों की कालगणना में राम और कृष्ण की मौजूदगी को नकारा जा रहा है। राम के
नाम से राजनीति हो रही है और हिंदुत्व के आधार चुनाव जीते जा रहे हैं। एक बार सरकार
बन गई, दूसरी बार भी बन चुकी, लेकिन भारत सरकार की तरफ से यह स्पष्ट घोषणा अब तक नहीं
हुई है कि धरती पर राम और कृष्ण की उपस्थिति पूरी तरह विश्वसनीय है, अब देश राम के
आदर्श और कृष्ण के राजनीतिक सिद्धांतों के आधार पर चलेगा।
वैदिक
ज्ञान का प्रवाह
अगर
हम राम और कृष्ण के अवतार को विश्वसनीय मानते हैं तो यह भी मानते हैं कि राम से पहले
भारतवर्ष में सतयुग था। सतयुग में ऋषि-मुनि थे और उनका जीवन प्रकृति और गति के अनुसंधान
के प्रति समर्पित था। उन्होंने सृष्टि में
मौजूद पंच-तत्व जय, वायु, धरती, अग्नि और आकाश को लेकर अनुसंधान किया। सूर्य, धरती
और चंद्रमा की गति का अध्ययन किया। आत्मा और परमात्मा के संबंधों का अध्ययन किया। देह
के साथ प्रकृति के संबंधों का अध्ययन किया। मनुष्य की प्रकृति का अध्ययन किया। प्रकृति
में मौजूद सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण की खोज की और मनुष्य के संदर्भ में उसका अध्ययन
किया। तंत्र, यंत्र, स्वर और भावनाओं का अध्ययन किया।
इस संबंध
में विभिन्न श्लोकों की रचना की और उन्हें गीतबद्ध करते हुए स्वर दिया, जिससे वे दोहराए
जा सकें, याद किए जा सकें और अगली पीढ़ी तक पहुंचाए जा सकें। इसके लिए गुरुकुलों की
स्थापना हुई जहां प्रतिभाशाली युवक श्लोकों को रटकर कंठस्थ करते हुए ब्राह्मण कहलाए।
इन ब्राह्मणों ने वेदों से मिलने वाले ज्ञान को अगली पीढ़ी तक पहुंचाया और इस दौरान
ऋषिगण नए अनुसंधान भी करते रहे। इस तरह भारत में ज्ञान का विकास होता रहा। ब्राह्मणों
का महत्व इसी लिए है कि वे वेदों से मिले ज्ञान को निरंतर अगली पीढि़यों तक पहुंचाते
रहे हैं।
मान्यता
है कि वेदों का ज्ञान सबसे पहले ब्रह्मा ने ईश्वर से प्राप्त किया। उसके बाद यह ज्ञान
उन्होंने अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा ऋषियों को सौंपा। इसके बाद सात ऋषियों (सप्तऋषि)
को यह ज्ञान मिला। ये हैं व्यास, जैमिनी, पतंजलि, मनु, वात्स्यायन, कपिल और कणाद। इनकी
याद में सौरमंडल के एक तारा समूह का नाम सप्तर्षि रखा गया है। व्यास बादरायण के पुत्र
माने जाते हैं, जो ब्रह्मा के पुत्र थे। वेद हमें ब्रह्मांड के अनोखे, अलौकिक और अनंत
रहस्य बताते हैं, जो समय और समझ से परे है। वेदों में किसी भी मत, पंथ या संप्रदाय
का उल्लेख नहीं होने से साबित होता है कि वेद विश्व में सबसे प्राचीन साहित्य है।
वेदों
की प्रकृति की विज्ञान से निकटता के कारण अब पश्चिमी जगत भी इन्हें महत्व दे रहा है।
ये सृष्टि के आदिकाल से हैं। स्वयं परमात्मा की तरफ से मानव मात्र के कल्याण के लिए
यह ज्ञान दिया गया है। वेदों की रचना के बाद इनकी व्याख्या करने की परंपरा शुरू हुई।
इसे प्रारंभ करने वाले पराशर, कात्यायन, याज्ञवल्क्य, व्यास और पाणिनी प्रमुख वेदवेत्ता
हुए। इस तरह वैदिक ग्रंथों की रचना आरंभ हुई।
वैदिक
ज्ञान श्रुति परंपरा के माध्यम से जीवंत रखा गया। ब्राह्मणों के माध्यम से इसका प्रचार
हुआ। श्रुति परंपरा के तहत वेद मंत्रों के तीन विभाग हैं- पद्य, गद्य और गान। ऋग्वेद
की रचना के पद्य के रूप में है। यदुर्वेद गद्य रूप में है और सामवेद गीतों के माध्यम
से रचा गया है। वेदों की रचना के बाद इनके भाष्य की रचना होने लगी। वेदों का संपूर्ण
अध्ययन छह भागों में किया जाता है, जिसे वेदांग कहते हैं। ये हैं- शिक्षा, निरुक्त,
व्याकरण, छंद, कल्प और ज्योतिष।
शिक्षा
का अर्थ है ध्वनियों का उच्चारण। शब्दमूल, शब्दावली और शब्द निरुक्त के विषय हैं। संधि,
समास, उपमा, विभक्ति आदि का विवरण व्याकरण में है जो वाक्य रचना को समझने के लिए आवश्यक
है। आघात और लय के साथ मंत्रोच्चारण या गायन के लिए छंद बनते हैं। कल्प में यज्ञ के
लिए विधिसूत्र हैं, जिसके आधार पर वेदोक्त कार्य संपन्न किए जाते हैं। समय का ज्ञान
और उसकी उपयोगिता जानने के लिए ज्योतिष है, जिसके तहत आराशीय पिंडों (सूर्य, धरती और
नक्षत्र) की गति और स्थिति का अध्ययन किया जाता है।
ऋग्वेद
की 21 शाखाएं बताई गई हैं, जिनमें से वर्तमान में दो शाखाओं शाकल और शाखायन के ग्रंथ
उपलब्ध हैं। यजुर्वेद में कृष्णयजुर्वेद की 86 शाखाओं में से चार तैत्तिरीय, मैत्रायणी,
कठ और कपिष्ठल के ग्रंथ उपलब्ध हैं। शुक्लयजुर्वेद की 15 शाखाओं में से सिर्फ दो माध्यनिंदनीय
और काण्य की शाखाएं प्राप्त हैं। सामवेद की एक हजार शाखाओं में से सिर्फ कौथुम और जैमिनीय
शाखा के ग्रंथ उपलब्ध हैं। अथर्ववेद की नौ शाखाओं में से दो शौनक और पैप्पलाद की शाखाएं
उपलब्ध हैं। इस तरह वेदों की 12 शाखाओं के ग्रंथ उपलब्ध हैं, जिनमें से सिर्फ छह (शाकल,
तैत्तिरीय, माध्यनंदिनी, काण्य, कौथुम और शौनक) की अध्ययन शैली की जानकारी उपलब्ध है।
हम समझ
सकते हैं कि सतयुग में सबसे पहले ज्ञान अर्जन और उसका प्रसार अगली पीढि़यों तक करने
की परंपरा बनी। जैसे-जैसे वेदों के भाष्य का सिलसिला आगे बढ़ा, वैदिक सिद्धांतों को
लेकर ऋषियों मतभेद बनने लगे थे और उन्होंने अपने दर्शन प्रस्तुत किए। इस तरह वेदों
के बाद छह दर्शन बने जिन्हें षट्दर्शन कहा जाता है, जिनमें न्याय, वैशेषिक, सांख्य,
योग, मीमांसा, वेदांत शामिल हैं। इनका उल्लेख पहले की किया जा चुका है।
हिंदुओं
में जातिवाद और कुलदेवी का महत्व
सोमवार
पांच सितंबर को नवमी थी। नवरात्र का आखिरी दिन। आज दशहरा है। कार्तिक शुक्ल पक्ष की
सप्तमी, अष्टमी और नवमी अधिकांश हिंदुओं में पारिवारिक और कौटुंबिक पर्व के रूप में
मनाई जाती है। ज्यादातर परिवार ये त्योहार अपनी कुलदेवियों के नाम पर मनाते हैं। कई
परिवारों में नवमी के दिन कन्याओं का पूजन कर उन्हें भोजन करवाने का रिवाज है। यह त्योहार
प्रकारांतर से पूरे देश में प्रचलित है। हर कुटुंब की एक कुलदेवी होती है। कुलदेवता
होते हैं। यह सब गोत्र के आधार पर होता है। लड़के-लड़कियों के विवाह तय करते समय गोत्र
और वंश को बहुत महत्व दिया जाता है।
पूरा
हिंदू समाज असंख्य जातियों में बंटा हुआ है। कई तरह की जातियां हैं, जो ब्राह्मण, क्षत्रिय,
वैश्य और शूद्र में बंटी हुई है। भारतीय पंचांग के विभिन्न माह और तिथियों के आधार
पर उनके अलग-अलग पारिवारिक रीति-रिवाज हैं। कुछ जातियां स्वयं को सर्वश्रेष्ठ मानती
हैं, कुछ श्रेष्ठ। बाकी जातियां इनसे निचले दर्जे की होती हैं। सर्वश्रेष्ठ जातियों
में ब्राह्मण स्वयं को सर्वोपरि मानते हैं। उनके वंश वेदज्ञ ऋषियों व्यास, जैमिनी,
याग्यवल्क्य, भार्गव, भारद्वाज, पराशर, कपिल, गौतम वशिष्ठ आदि से प्रारंभ माने जाते
हैं और इसी तरह के उनके उपनाम हैं। कुछ सर्वोच्च स्तर के ब्राह्मण चतुर्वेदी, त्रिवेदी,
दीक्षित नामधारी हैं। इसके बाद और पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक तमाम उपनाम
धारी ब्राह्मण है। अभी देश में पंद्रह सौ से ज्यादा ब्राह्मण जातियां पाई जाती हैं।
श्रेष्ठ
जाति राजपूतों की है। ये अपना वंश किसी बड़े राजवंश से मानते हैं। इनके उपनाम मौर्य,
चौहान, गुप्त, रघुवंशी, सूर्यवंशी, चंद्रवंशी, सोलंकी, सिसोदिया, राजपूत, ठाकुर, यादव,
गुर्जर आदि हैं। दक्षिण भारत में भी तमाम क्षत्रिय जातियां हैं, जिनके उपनाम उत्तर
भारत से अलग हैं। इन सभी के कुटुंबों में कुलदेवी होती है, जिसकी आराधना विशेष पारिवारिक
अवसरों पर अवश्य की जाती है। उसी के आधार पर उनके पारिवारिक रीति-रिवाज हैं। वे ब्राह्मणों
का सम्मान करते हैं और निचली जातियों के साथ उपेक्षापूर्ण व्यवहार करते हैं। हालांकि
इस कुरीति को तोड़ने वाली क्षत्रिय जातियां भी बड़ी संख्या में हैं।
दक्षिण
भारत में अलग क्षत्रिय हैं। वैश्य वर्ग से संबंधित जातियां सामान्य वर्ग की हैं। इनका
वंश किसी राजा या धर्मोपदेशक से जुड़ा होता है। जैन महावीर के अनुयायी हैं, जो अब हिंदुओं
के बीच उन्हीं की तरह रहते हुए कारोबार करते हैं और स्वयं को अलग धर्म का मानते हैं।
वे जैनी कहलाते हैं। उन्होंने सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए हिंदुओं के बीच सम्मानजनक स्थान
बना रखा है, लेकिन अपने समुदाय के आर्थिक हितों के लिए वे सरकार से स्वयं को अल्पसंख्यक
घोषित करवाने की मांग भी करते रहते हैं। कई राजपूत भी जैन बन गए हैं। इस तरह की गतिविधियों
के बीच वे हिंदुओं के सबसे बड़े संगठन विश्व हिंदू परिषद के सदस्य, पदाधिकारी भी बने
हुए हैं। उनकी सामाजिक व्यवस्था में आर्थिक हित सर्वोच्च होता है।
वैश्य
जातियों में जैनियों के अलावा माहेश्वरी, अग्रवाल, गुप्ता आदि शामिल हैं। इनमें भारत
के आर्थिक विकास में प्रमुख योगदान देने वाली प्रमुख जातियां माहेश्वरी और अग्रवाल
प्रमुख हैं। हालांकि जैन भी हैं, लेकिन वे आर्थिक विकास से होने वाले लाभ का एक हिस्सा
जैन धर्म के प्रचार, विकास आदि पर करते हैं। इसके तहत महावीर के भव्य मंदिर बनते हैं।
जैन साहित्य का विकास होता है। यहां तक हो चुका है कि जैनियों के चौबीस तीर्थंकर मानते
हुए संवत वर्ष को हिंदुओं के संवत वर्ष की तुलना में प्राचीन घोषित कर दिया गया है।
राम को नकारते हुए भगवान ऋषभदेव से जैन धर्म का प्रारंभ माना गया है। यह कोई आक्षेप
नहीं है। जैन धर्म अच्छी बातों से भरा हुआ है। सबकुछ ठीक है। लेकिन इसके साथ ही जैन
जातिवाद और कट्टरता भी है। महादेव की उपस्थिति, ब्रह्मा-विष्णु-महेश और भगवती की अवधारणा।
वेदों की रचना, वैदिक संस्कृति का विकास, विचारधारा, व्याकरण आदि सनातन हैं और सनातन
रहेंगे। इसको नकारते हुए अपना अलग पंथ चलाकर मूल सनातन धर्म का पालन करने वाले हिंदू
समाज को गुमराह करने के प्रयास भारत में लंबे समय से चल रहे हैं। कई ताकतें कई तरह
से कर रही हैं।
धर्म
निरपेक्षता, हिंदुत्व और समाज की आर्थिकी
भारत
अपने ज्ञान के अलावा युद्धों के कारण भी प्रसिद्ध रहा है। आज हम हिंदुत्व की बात कर
रहे हैं और हिंदुत्व शीर्षक से राजनीतिक ताकत के रूप में संगठित हो रहे हैं। भारत के
अंग्रेजी शासन से स्वतंत्र होकर दो भाग बनने तक इस तरह हिंदुत्व नाम से कोई राजनीतिक
ताकत नहीं बनी थी, जो अब बन गई है। स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस की सरकार बनी तो उसने
धर्म निरपेक्षता के आधार पर शासन किया। हिंदुत्व की उपेक्षा की। अल्पसंख्यकों को भरपूर
प्रोत्साहन दिया और यह सिर्फ वोटों की राजनीति के लिए किया, क्योंकि सरकार पर नियंत्रण
बनाए रखने के लिए चुनाव में भाग लेना पड़ता है और जनता का बहुमत हासिल करना पड़ता है।
यह एक
नियति की व्यवस्था थी। अब हिंदुत्व की प्रधानता हो गई है, लेकिन हिंदुत्व के नाम पर
किन लोगों का वर्चस्व स्थापित हो रहा है? वर्चस्व आर्थिक ताकत से बनता है। देश के आर्थिक
विकास में योगदान वे लोग देते हैं, जो व्यापार और कारोबार करते हैं। अधिकतर कारोबार
की जिम्मेदारी वैश्य जातियों पर रही है। कुछ विधर्मी लोग भी अच्छा कारोबार करते हैं,
जैसे मुसलमान, पारसी, सिख आदि। जैन स्वयं को विधर्मी नहीं मानते हैं और वे अलग धर्म
का प्रचार करने के बावजूद हिंदुओं के साथ बने हुए हैं। इसी तरह सिख भी हिंदुओं से अलग
नहीं हैं। मुसलमान और पारसी अलग हैं।
हिंदुओं
में भारत के आर्थिक विकास में योगदान देने वाली प्रमुख जातियों में माहेश्वरी और अग्रवाल
प्रमुख हैं। इसके अलावा खंडेलवाल, विजयवर्गीय आदि भी है। हालांकि विजयवर्गीय और अग्रवाल
खुद को क्षत्रिय मानते हैं। माहेश्वरी वंश के प्रणेता भगवान महेश माने जाते हैं। महेश
माहेश्वरियों के कुल देवता हैं। महेश के परिवार में देवी माहेश्वरी, उनके पुत्र गणेश
और कार्तिकेय हैं। माहेश्वरियों के धार्मिक स्थल का नाम महेश मंदिर होता है। माहेश्वरी
उनकी कुलदेवी हैं। उनका अलग माहेश्वरी धर्म है। जन्म-मरण से मुक्त एक ईश्वर महेश में
आस्था और मानव मात्र के कल्याण की भावना माहेश्वरी धर्म का प्रमुख सिद्धांत है। माहेश्वरी
समाज सत्य, प्रेम और न्याय के रास्ते पर चलता है। स्वयं को निरोगी रखना, उचित कर्म
(मेहनत और ईमानदारी से) करना, बांट कर खाना और नाम जप तथा योग साधना माहेश्वरियों के
जीवन के प्रमुख तत्व हैं। वे जहां कहीं भी निवास करते हैं, अपने धर्म का पालन निष्ठा
के साथ करते हैं, वहां की स्थानीय संस्कृति का आदर करते हैं, यह माहेश्वरी समाज की
विशेषता है। आज भारत के हर राज्य, हर शहर में माहेश्वरी बसे हुए हैं और व्यवहार कुशलता
के कारण पहचाने जाते हैं। माहेश्वरियों के रीति-रिवाज में कुलदेवी माहेश्वरी की पूजा
होती है। बिहार के मधुबनी जिले में काश्यप गोत्र धारी ब्राह्मण भी माहेश्वरी को कुलदेवी
मानते हैं। माहेश्वरियों का बोधवाक्य है सर्वे भवंति सुखिनः। यह वैदिक श्लोक का अंश
है। माहेश्वरियों की कुलदेवियों के 82 स्थान हैं और उसी के आधार पर इतने ही गोत्र हैं।
इनमें सोनी, सोमानी, जाखेटिया, सोढानी, कांकाणी, सारडा, गिलड़ा, जाजू, बाहेती, बजाज,
कलंत्री, बिड़ला, कालाणी, झंवर, काबरा, डागा, गट्टानी, राठी, तोषनीवाल, भूतड़ा, मूंदड़ा,
लड्ढा, भंसाली, मालपानी, लाहोटी, असावा, मानधन्या, तोतला, धूत आदि शामिल हैं। माहेश्वरी
समाज ने वाणिज्य के माध्यम से हिंदू समाज में उल्लेखनीय स्थान बनाया है।
माहेश्वरी
भारत में कई बड़े कारोबार चला रहे हैं, जिनकी वजह से असंख्य लोगों को रोजगार मिल रहा
है। हिंदुओं के धार्मिक कार्यों में भी उनका बढ़-चढ़कर योगदान रहता है। समाज हित में
वे कई संस्थाएं चला रहे हैं, जिनमें विद्यालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय, तकनीकी
संस्थान आदि प्रमुख हैं। माहेश्वरियों की तरह जैनियों ने भी इस तरह की कई संस्थाएं
स्थापित कर रखी हैं, जिनसे कई लोगों को रोजगार मिलता है। इसी तरह अग्रवाल हैं। उनकी
भी कई समाजेपयोगी संस्थाएं हैं। अग्रवाल अग्रेयवंशी क्षत्रिय हैं। इस समाज की स्थापना
महाराजा अग्रसेन ने की थी। इनकी प्रमुख गद्दी अग्रोहा है। यूनानी बादशाह सिकंदर के
आक्रमण के बाद अग्रेय गणराज्य का पतन हो गया था। उसके बाद अग्रवाल पूरे देश में फैल
गए और वाणिज्य को अपनी आजीविका का आधार बनाया। आज यह भारत का एक सफल उद्यमी समुदाय
है। महालक्ष्मी इनकी कुलदेवी हैं। 18 गोत्र हैं, जिनमें गर्ग, गोयल, कंसल, बंसल, सिंहल,
बिंदल, मित्तल, जिंदल, नागल, कुच्छल, भंदल, धारण, तायल, तिंगल, ऐरण, मधुकुल, मंगल शामिल
हैं। इसके अलावा अग्रवाल आम तौर पर अग्रवाल उपनाम का ही प्रयोग करते हैं।
भारतीय
समाज व्यवस्था में उद्योग, शिल्प और निम्न कोटि के कार्य शूद्रों के हिस्से में आते
हैं। ये समाज में सेवा धर्म निभाते हैं। इनमें भी कई भेद हो गए हैं। सैकड़ों जातियां
हैं। उनमें भी ऊंच-नीच बन गई है। शाकाहारी लोग ब्राह्मण और वैश्य समुदाय से जुड़ रहे
हैं। मांसाहारी लोग क्षत्रिय वर्ग से जुड़ने के रास्ते पर हैं। सफाई जैसे निम्न स्तरीय
कार्य करने वाली जातियां अलग रह गई हैं। उन्हें दलित कहा जाता है। देश आजाद होने के
बाद इन दलितों की जातियों को अनुसूचित घोषित करते हुए आरक्षण दिया गया है। इसी तरह
एक आदिवासी वर्ग अलग है। ये भारत के ही वनवासी हैं। इनकी भी कई जातियां हैं। अलग जातीय
परंपराएं हैं। अलग रीति-रिवाज हैं। अलग-अलग देवी-देवता हैं। ये शेष प्रमुख हिंदू जातियों
से अलग हैं। भारत सरकार ने इन्हें भी आरक्षण दिया है।
हिंदुत्व,
भ्रष्टाचार और आर्थिक मंदी
हिंदुत्व
के नाम पर इन दिनों विचित्र राजनीतिक वातावरण बना हुआ है। कानून अंग्रेजों के बनाए
चल रहे हैं। शिक्षा व्यवस्था, न्याय व्यवस्था उनकी बनाई हुई है। अंग्रेजों की सरकार
चले जाने के बाद भी उन्हीं के कानून चल रहे हैं, जिसकी मार सबसे ज्यादा हिंदुओं पर
पड़ती है। भारत सरकार धर्म निरपेक्षता के आधार पर चलती है। जो पार्टी इस समय सरकार
चला रही है, वह सरकार के बाहर हिंदुत्व की राजनीति करती है और सरकार के भीतर वह अंग्रेजों
के बनाए कानून का हिंदुओं के खिलाफ ही इस्तेमाल करती है। कहा जाता है कि सरकार भ्रष्टाचार
पर लगाम कस रही है।
भ्रष्टाचार
एक अमूर्त शब्द है। यह मुख्यतः उन लोगों के लिए माना जाना चाहिए जो सरकार से वेतन प्राप्त
करते हुए जनता के लिए काम करते हैं। अगर वे अपनी जिम्मेदारी निभाने के लिए किसी व्यक्ति
के साथ पक्षपात करते हुए अतिरिक्त आमदनी के स्रोत बना लेते हैं तो वह भ्रष्टाचार है।
लेकिन लोगों को भ्रष्ट घोषित करने, उनसे कर, शुल्क आदि वसूल करने का काम सरकारी अधिकारियों
के पास ही होता है, इसलिए वे पाक-साफ होते हैं। वे किसी भी व्यापारी को भ्रष्ट घोषित
कर सकते हैं। हिंदुओं में जिस तरह विभिन्न कार्यों के लिए विभिन्न देवताओं की पूजा
का चलन है, जैसे ग्राम देवता, कुल देवता, स्थान देवता आदि, वैसे ही व्यापारियों के
लिए ये सरकारी अधिकारी देवता होते हैं, जिनकी प्रसन्नता से ही उनका व्यापार कुशलतापूर्वक
चल सकता है। इसलिए सरकारी अधिकारी भ्रष्ट नहीं होते। भ्रष्ट हमेशा आम आदमी होता है।
सिर्फ
कानून तोड़ने वालों को भ्रष्टाचारी कहना इसलिए गलत है, क्योंकि जब अंग्रेजों की सरकार
थी, तब देशभक्त व्यापारी कानून तोड़ते हुए पैसे बचाकर ही स्वतंत्रता आंदोलन के लिए
आर्थिक योगदान देते थे। तब वे भ्रष्टाचारी नहीं होते थे, देशभक्त होते थे। अब सरकार
अपनी है लेकिन कानून वही हैं, जो अंग्रेज सरकार बना गए थे, तो वे टूटेंगे ही। अगर किसी
को भी अपनी आमदनी में से, पचास फीसदी लाभ जबरन सरकार के नाम से निकालना पड़े तो यह
तकलीफ देने वाली बात है। टैक्स देने के अलावा भी रिश्वतें अलग बांटनी पड़ती है। ठेले
पर खोमचा लगाने वाले से लेकर विशालकाय कंपनियों तक, सभी इसके अभ्यस्त हैं कि उन्हें
कितने लोगों को कितना हिस्सा देना है और किस तरह पैसे बचाना है।
अंग्रेज
सरकार को मालूम था कि स्वतंत्रता आंदोलन चलाने वालों को व्यापारियों से भरपूर मदद मिल
रही है। सरकार को टैक्स की बड़ी राशि भी उन्हीं से मिलती थी। इसलिए अंग्रेज सरकार ने
यह सोचकर नए-नए टैक्स लगाए, आर्थिक कानून बनाए कि इस तरह स्वतंत्रता आंदोलन को मिलने
वाले आर्थिक योगदान में कटौती हो सकती है। अंग्रेजों ने भारतीयों को अपनी सरकार में
नौकरी दी तो उन पर आयकर भी जमकर लगाया। व्यापारियों के विक्रय कर, व्यवसाय के लिए कर,
व्यवसाय की अनुमति के लिए कर, समाजोपयोगी कार्य निजी स्तर पर कर रहे हैं तो सेवा कर,
इस तरह के कई कर और शुल्क हैं, जिनका ज्ञान प्राप्त करने के लिए बड़े ग्रंथ चल गए हैं।
विश्वविद्यालयों में अलग विषय चल रहे हैं। करों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए अच्छे-भले
आदमी की पूरी जिंदगी खप जाने की व्यवस्था बना दी गई है।
हिंदुत्व
के आधार पर वोट लेकर राजनीति करते हुए सरकार चलाने वाली पार्टी को पांच साल बाद भी
कर व्यवस्था का दुष्चक्र तोड़ने की फुरसत नहीं मिली जिससे कि हिंदू व्यापारियों को
कुछ राहत मिले। उलटे ऐसे काम किए गए जिससे कि व्यापारियों का दम निकल जाए और वे वाणिज्य
के आधार पर प्रगति करने की जीवटता छोड़कर उन बहुराष्ट्रीय कंपनियों के नौकर बन जाएं,
जिनके लिए भारत के बाजारों को खाली करवाया जा रहा है। यह स्थिति देश में प्रत्यक्ष
देखी जा सकती है। सरकार अच्छी है। मजबूत है तो हिंदू व्यापारियों और कारोबारियों के
दम पर ही है। इसके बावजूद हिंदुत्व के नाम पर वोट देने के बाद व्यापारियों का दम फूला
हुआ है।
इस बार
दशहरा, दीवाली पर सन्नाटा है। अतिरिक्त आमदनी पूरी तरह बंद है। व्यापारियों का तालमेल
किसानों से रहता है। किसानों की स्थिति भी छुपी हुई नहीं है। सिर्फ आर्थिक मुसीबतों
के कारण किसानों की आत्महत्या की खबरें आए दिनों आती रहती है। खेत में फसल होने के
बाद वह लालची मुनाफाखोरों से घिरा होता है और सरकार उचित दामों पर उनकी उपज खरीदने
और बेचने की व्यवस्था नहीं करती है। जो अनाज किसान तीस रुपए किलो में बेच देते हैं,
वही बाजार में सत्तर अस्सी रुपए किलो तक कीमत में मिलता है। किसान फसल के लिए लिया
गया कर्ज नहीं उतार पाते। उसकी मेहनत का फल लगभग लूट लिया जाता है। किसान भी ज्यादातर
हिंदू ही हैं।
यह मान
लिया कि कांग्रेस में कई बुराइयां पैदा हो गई और वह अब वोट देने लायक पार्टी नहीं रही।
उसके अलावा धर्म निरपेक्षता पर चलने वाली दूसरी पार्टियां भी टुकड़े-टुकड़े होकर बिखरी
हुई है और वे सत्ता सौंपने लायक नहीं हैं। ऐसे में लोगों ने भाजपा को ही देखा। वह हिंदुत्व
पर आधारित पार्टी भी है और देश का भला तो सभी राजनीतिक पार्टियां चाहती हैं। हिंदुत्व
भाजपा की अतिरिक्त विशेषता है। उसकी सरकार रहने से अल्पसंख्यक तुष्टीकरण के कारण उत्पन्न
समस्याएं भी खत्म होंगी। वह देशभक्त है, राष्ट्रभक्त है, हिंदू हित चिंतक है, भारत
को विश्व गुरु के पद तक पहुंचाने का लक्ष्य है। फिर देश की प्रति व्यक्ति आय कम होने
का सिलसिला क्यों शुरू हो गया है? यह विचारणीय प्रश्न है।
हिंदुत्व
आधारित एकता में अनेकता और धार्मिक बदलाव
हिंदुत्व
शब्द से हिंदुओं के स्वभाव, व्यवहार, जीवन शैली आदि का संकेत मिलता है। वह सदियों से
लगभग समान रही है। सभी हिंदुओं की अलग-अलग जातियां हैं और इनमें आपस में जमकर विवाद
चलता रहता है। फिर भी जीवन जीने का तरीका लगभग समान है। जन्म, परण और मरण से संबंधित
रीति-रिवाजों में भिन्नता होने के बावजूद उनका वैदिक आधार बना हुआ है। ब्रह्मा, विष्णु,
शिव, हनुमान, लक्ष्मी, सरस्वती, दुर्गा, दुर्गा के अलग-अलग स्वरूप, पार्वती, गणेश आदि
हिंदुओं के जीवन के आधार हैं। इनसे जुड़ी असंख्य पौराणिक कथाएं हैं। हिंदुओं की हर
जाति में इन देवी-देवताओं के प्रति अटूट आस्था पाई जाती है। सनातन धर्म का पहला चरण
वेद है, दूसरा चरण उपनिषद और तीसरा चरण है पुराण। इस मान्यता में कोई भेदभाव नहीं है।
सारे
हिंदू सनातन धर्मी हैं। सनातन धर्म संगठित धर्म नहीं है। यह वेदों पर आधारित है और
वेदों की रचना कई ऋषियों के प्रयासों से मानी जाती है। उन पर किसी एक ऋषि विशेष का
कापीराइट नहीं है। वेदों की रचना के बाद अन्य ऋषियों ने उनकी व्याख्याएं की और उनके
भाष्य लिखे, जिसके परिणाम स्वरूप पुराणों की रचना हुई। वेद जहां सत्य की घोषणा करने
वाला साहित्य है, वहीं पुराण भक्ति ग्रंथ के रूप में रचे गए हैं। पुराणों में विषयों
की सीमा नहीं है। इसमें ब्रह्मांड विद्या, देवी-देवताओं, राजाओं, नायकों, ऋषि-मुनियों
की वंशावली, लोककथाएं, तीर्थयात्रा, मंदिर, चिकित्सा, खगोल शास्त्र, व्याकरण, खनिज
विज्ञान, हास्य, प्रेम कथाओं के साथ ही धर्मशास्त्र और दर्शन का भी विवरण है।
पुराणों
के रचनाकार अज्ञात हैं और ऐसा प्रतीत होता है कि कई रचनाकारों के माध्यम से पुराणों
को आकार लेने में सदियां लगी हैं। जैनियों के अपने अलग पुराण हैं, जिनमें रचनाकाल और
रचनाकारों के नाम स्पष्ट बताए गए हैं। पुराण प्रमाण ग्रंथ नहीं है। ये जनमानस को शिक्षा
देने के लिए रचे गए हैं। पुराणों में अलग-अलग देवी-देवताओं को केंद्र में रखकर पाप-पुण्य,
धर्म-अधर्म और कर्म-अकर्म की कथाएं रची गई हैं। पुराणों की संख्या 18 मानी जाती है।
ये हैं ब्रह्म, पद्म, विष्णु, शैव (वायु), भागवत, नारद, मार्कंडेय, अग्नि, ब्रह्मवैवर्त,
लिंग, वाराह, स्कंद, वामन, कूर्म, मत्स्य, गरुड़ और ब्रह्मांड। विष्णु पुराण में इन
18 पुराणों को महापुराण कहा गया है। पांच पुराणों, मत्स्य, वायु, विष्णु, ब्रह्मांड
और भागवत में राजाओं की वंशावली का विवरण है। भागवत पुराण के दो स्वरूप हैं, श्रीमद्भागवत
और देवी भागवत।
भारत
में ब्राह्मणों के माध्यम से लोगों को पौराणिक ज्ञान मिलता रहा है। ब्राह्मणों का गुजर-बसर
राजाओं से होता रहा है, इसलिए उन्होंने राजाओं को प्रसन्न रखने के लिए भी बहुत सा साहित्य
रचा है, जिससे वेदों के सिद्धांत अलग धरे रह गए और सनातन धर्म के बारे में गोलमोल अविश्वसनीय
लगने वाली बातें फैलने लगीं। खास तौर से महाभारत के बाद यह धांधली इतनी ज्यादा बढ़ी
कि कालांतर में कई लोगों का सनातन धर्म से भरोसा टूटने लगा। महाभारत कालीन ऋषि वेद
व्यास ने पुराणों का पुनर्लेखन किया था। इसके बाद भी कई तरह से कई रूपों में पुराणों
की व्याख्या होती रही और 18 पुराणों के अलावा अन्य नए पुराण भी रचे गए।
इस पूरी
धांधली में महादेव शिव की उपेक्षा करते हुए उनके बारे में तरह-तरह की बातें प्रचारित
की गईं। ब्रह्मा की विवादित छवि बनी और विष्णु को सर्वोच्च स्तर के भगवान बताते हुए
राजा को भगवान विष्णु का स्वरूप माना गया। राजा के विरोध की तुलना विष्णु के विरोध
से की जाने लगी, जिससे सनातन धर्म में कई नए संप्रदाय बने। पूरी भारतीय विचारधारा पर
वैष्णवों का प्रभुत्व हुआ। तुलसीदास की रामचरित मानस और श्रीमद्भागवत को प्रमाण मानते
हुए इनकी कथाएं इस तरह प्रचारित हुई कि कई लोग सिर्फ रामचरित मानस का पाठ करते हुए
महान संत घोषित हो चुके हैं और कई लोग भागवतकथा पढ़ते-पढ़ते हिंदू धर्म के स्टार प्रचारक
बने हुए हैं।
ये दोनों
ग्रंथ खास तौर पर विष्णु का महत्व प्रमाणित करते हैं। इसके बाद यह मान्यता रूढ़ हुई
है कि भारतभूमि का असुरों से उद्धार करने के लिए भगवान विष्णु समय-समय पर अवतार लेते
रहे हैं और भोले भगवान महादेव से वरदान प्राप्त असुरों के आतंक से प्रजा को मुक्ति
दिलाते रहे हैं। इस क्रम में रावण, कंस, शिशुपाल, जरासंध आदि को असुर बताया गया है
और इसका भी विस्तार से वर्णन किया गया है कि कृष्ण ने बचपन में मारने के लिए भेजे गए
विभिन्न असुरों का किस प्रकार संहार किया। इसमें बकासुर, नरकासुर आदि का उल्लेख किया
जाता है। इसी प्रकार राम चरितमानस में राम को मारने के लिए पहुंचे विभिन्न राक्षसों
के मारे जाने की बात है।
यह आश्चर्य
की बात नहीं है कि जितने भी आदिवासी और अनुसूचित जातियों से जुड़े लोग हैं, उनमें से
ज्यादातर शिव या शिव परिवार के किसी देवता के भक्त हैं। वे महादेव की आराधना करने वाले
लोग हैं। उन्हें समाज में ऊंच-नीच की भावना फैलाकर सामाजिक प्रतिष्ठा से वंचित करने
का काम हुआ है। सनातन धर्म को लेकर बनी इन धारणाओं में वेदों का वस्तुनिष्ठ ज्ञान बहुत
पीछे छूटा हुआ दिखाई देता है।
महाभारत
के बाद बौद्ध और जैन धर्म के अस्तित्व में आने तक सनातन धर्म की स्थिति काफी बदल चुकी
थी। जातिवाद और उसके आधार पर भयानक कुरीतियां फैल चुकी थीं। ब्राह्मण वर्ग पूरे समाज
पर अपना बौद्धिक आतंक स्थापित कर चुके थे। जनता में कई तरह के अंधविश्वास रूढ़ हो चले
थे। कई लोगों का झुकाव सनातन धर्म से हटकर बौद्ध और जैन धर्म की ओर होने लगा था। इस
तरह जब सनातन धर्म एक बार फिर संकट में पड़ने लगा, तब आदि शंकराचार्य का उदय हुआ।
रीति-रिवाज,
कुरीतियां और अंधविश्वास
हिंदुत्व
की अब तक की विवेचना से स्पष्ट होता है कि इसमें बहुत धांधली है। महाभारत के बाद जो
समाज का स्वरूप बना, उसमें तरह-तरह के रीति-रिवाज बने और उनका पालन करना धर्म मान लिया
गया। जो इन रीति-रिवाज का पालन नहीं करते हैं, उन्हें धर्म विरोधी मान लिया गया। इसी
काल में तंत्र-मंत्र जनित अंधविश्वासों का प्रचलन बढ़ा। समाज में तरह-तरह के टोटके
फैल गए। टोने-टोटकों के आधार पर बीमारी का उपचार होने लगा। निजी खुन्नस में दूसरों
को नुकसान पहुंचाने वाले काम हुए।
धार्मिक
समाज के निर्माण के नाम पर तमाम तरह की कुरीतियां फैल गईं, जिनमें सती प्रथा, बाल विवाह
जैसी कुरीतियां प्रमुख है। धर्म पालन को चरित्र से जोड़ दिया गया और धर्म के आधार पर
चरित्र बनाए रखने की जिम्मेदारी स्त्रियों पर छोड़ दी गई। स्त्रियों के लिए अपने पति,
रिश्तेदार और पर पुरुष में अंतर पैदा किया गया। स्त्रियों का पर पुरुष से बात करना
अपराध घोषित हुआ और यौन व्यवहार को लेकर उनके आचरण के कई नियम बना दिए गए। इसी सिलसिले
में घूंघट प्रथा प्रचलित हुई।
चरित्र
को सीधे यौन व्यवहार से जोड़ दिया गया। पति को परमेश्वर मानने वाली स्त्रियां धर्म
परायण मानी जाने लगी। इस संबंध में सत्यवान-सावित्री जैसी कथाएं रचकर पतिव्रत धर्म
का महत्व प्रतिपादित किया गया। यह सब वेदों और पुराणों की रचना हो जाने के बाद शुरू
हुआ। विवाह के लिए स्त्रियों के अपहरण की परंपरा पहले से चल रही थी। किसी राजा को कोई
सुंदर स्त्री में रुचि पैदा होने पर राजा उससे यौन संबंध स्थापित करने के बाद भूल जाते
थे। स्त्रियों के साध बलात्कार भी होते थे। जैसे राजा दुष्यंत ने शकुंतला के साथ किया
था या वृहस्पति ने अपनी भाई की पत्नी के साथ किया।
दुष्यंत
और शकुंतला के मिलन से भरत का जन्म हुआ। भरत ने शासन किया और उनके पांच पुत्र हुए।
भरत ने पहली बार अपना उत्तराधिकारी चुनने में यह समझदारी दिखाई कि राज्य का उत्तराधिकार
संभालने के लिए सिर्फ राजा का पुत्र होना आवश्यक नहीं है, उसमें योग्यता भी होनी चाहिए।
भरत ने वृहस्पति के नाजायज पुत्र विरथ को राज्य सौंपा, जिसका जन्म वृहस्पति
के भाई की पत्नी ममता के गर्भ से हुआ था। वृहस्पति ने अपने भाई की पत्नी के साथ बलात्कार
किया था, जिसके परिणाम स्वरूप विरथ का जन्म हुआ था। इस युवक को भरत ने राजा के रूप
में चुना, जो एक महान राजा साबित हुआ और उसने बुद्धिमानी से शासन किया। इसके बाद से
विश्व के इस विशेष भूभाग का नाम भारत पड़ा।
विरथ की चौदह पीढ़ी के बाद शांतनु हुए। शांतनु कौरवों और पांडवों
के परदादा थे। शांतनु एक बार शिकार पर थे तो गंगा को देखकर मोहित हो गए। उन्होंने गंगा
से विवाह कर लिया। गंगा इस शर्त पर विवाह के लिए राजी हुई कि विवाह के बाद वह जो भी
करेगी, उसमें कोई रोक-टोक नहीं होगी। शांतनु ने शर्त मंजूर कर ली। उसके बाद पुत्र जन्म
का जन्म हुआ तो गंगा ने उसे नदी में बहा दिया। वह स्त्री रूप में स्वयं गंगा ही थी।
इस तरह गंगा ने सात बच्चे नदी में बहा दिए। जब वह आठवें बच्चे को नदी में बहाने के
लिए गई तो शांतनु ने उन्हें रोक दिया और बच्चे का जीवन बचाने की प्रार्थना की।
शर्त टूटने पर गंगा यह कहते हुए चली गई कि सोलह वर्ष बाद यह बच्चा
आपको मिल जाएगा। सोलह वर्ष बाद उसने वह बालक देवव्रत शांतनु को सौंप दिया। शांतनु ने
देवव्रत को होनहार देखकर अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। देवव्रत ने भली भांति राजपाट
संभाल लिया, तब शांतनु फिर से शिकार और अन्य स्त्रियों से प्रेम करने लगे। वह सत्यवती
को देखकर उसके प्रेम में पड़े और सत्यवती के पिता के पास उसका हाथ मांगने पहुंच गए।
सत्यवती के पिता ने शर्त रखी कि सत्यवती का पुत्र ही कुरु वंश का उत्तराधिकारी बनेगा,
अन्यथा सत्यवती को भूल जाइए।
शांतनु पहले ही देवव्रत को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर चुके थे,
इसलिए वह निराश हो कर महल में लौट आए और उदास रहने लगे। देवव्रत उनका आज्ञाकारी पुत्र
थे। उसने पता लगा लिया कि शांतनु क्यों उदास हैं। तब उसने प्रतिज्ञा की कि वह कभी राजा
नहीं बनेगा और सत्यवती के पुत्र ही राजा बनेंगे। वह कभी विवाह नहीं करेगा। इसके बाद
से देवव्रत भीष्म कहलाने लगे। इसके बाद सत्यवती ने शांतनु से विवाह कर लिया।
भीष्म पिता की शादी कराने के लिए बने ब्रह्मचारी
देश में इस समय चल रही राजनीति के मद्देनजर हिंदुत्व पर विचार करना
आवश्यक है कि यह है क्या? क्या हिंदुओं को एकजुट करते हुए सांप्रदायिकता की राजनीति
करना उचित है? अगर यह उचित है तो सिर्फ एक ही संप्रदाय निशाने पर क्यों है? भारत आदिकाल
से ज्ञान का भंडार रहा है और यहां के लोग खुले दिमाग से धर्म आदि विषयों पर गंभीरता
पूर्वक विचार करते रहे हैं। सबसे पहले ऋषियों ने अध्यात्म पर शोध किया। आत्मा और परमात्मा
के संदर्भ में मनुष्य के व्यवहार की गहन समीक्षा की। वेद आधारित ज्ञान की व्याख्या
तरह-तरह से करते हुए सनातन धर्म से जुड़े ऋषियों ने ही छह दर्शन बनाए। वेद के आधार
पर पुराणों की रचना हुई और पुराणों के आधार पर कालांतर में ब्राह्मणों ने राजाओं के
हित में बहुत सा साहित्य रचकर उसे धर्म से जोड़ने का प्रयास किया और भारतीय समाज को
पूरी तरह सामंतवादी व्यवस्था में ढालने में अपने दिमाग का उपयोग किया।
वेदों को लेकर तरह-तरह के मतांतर बने और उनके बीच गहन शास्त्रार्थ
होने लगा। इसी संदर्भ में रामायण, महाभारत और गीता की रचना सामने आती है। महाभारत वेद
व्यास रचित और गणेशजी लिखित ग्रंथ माना जाता है, जिसमें विस्तार से द्वापर युग के दौरान
भारतीय समाज की झलक मिलती है। राजा भरत के नाम पर भारतवर्ष नाम प्रचलित हुआ था। भरत
ने लोकतांत्रिक तरीके से राजा का चुनाव करते हुए योग्य व्यक्ति विरथ को अपना उत्तराधिकारी
बनाया, जबकि उनके पांच पुत्र थे। परंपरागत तरीके से उनके पुत्र को शासन संभालना था।
भरत ने यह परंपरा तोड़ी तो उनके नाम पर इस भूभाग का नाम रखा गया।
विरथ के शासन संभालने के बाद फिर से वंशवादी शासन का प्रचलन शुरू
हुआ। विरथ की 14 पीढि़यों के बाद शांतनु राजा बने थे। वह शिकार के दौरान सत्यवती से
प्रेम कर बैठे थे। उन्हें सत्यवती से विवाह करना था। उससे पहले वह गंगा पुत्र देवव्रत
को उत्तराधिकारी घोषित कर चुके थे। शांतनु और गंगा के संबंधों के फलस्वरूप देवव्रत
का जन्म हुआ था। गंगा देवव्रत देवव्रत को जन्म के बाद अपने साथ ले गई थी और 16 वर्ष
बाद शांतनु को सौंप दिया। देवव्रत ने अपनी युवावस्था में पिता को कामवासना से पीडि़त
और सत्यवती के प्रति उनकी आसक्ति को देखा तो उन्होंने सत्यवती के पिता के पास जाकर
घोषणा कर दी कि वे अपने जीवन में विवाह नहीं करेंगे। उनसे किसी संतान का जन्म नहीं
होगा। वह आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करेंगे और राजवंश के संरक्षक की भूमिका निभाते रहेंगे।
यह प्रतिज्ञा करने पर वह भीष्म कहलाए।
शांतनु और सत्यवती के दो पुत्र हुए चित्रांगद और विचित्रवीर्य। उनके
बाल्यकाल में ही शांतनु का निधन हो गया। भीष्म ने चित्रांगद को राजा घोषित कर खुद राज्य
के संरक्षक की भूमिका निभाई। चित्रांगद युवा हो गए। एक बार गंधर्वों से युद्ध करते
हुए उनकी मौत हो गई। तब भीष्म ने उनके छोटे भाई विचित्रवीर्य को राजा बना दिया और उन्हें
उसकी शादी की चिंता हुई। उस समय राजाओं के परिवारों में कन्या के युवावस्था प्राप्त
करने के बाद उनका स्वयंवर आयोजित करने का चलन था। इस मौके पर तमाम अन्य राजा और राजकुमार
स्वयंवर में भाग लेने पहुंचते थे। कन्या उनमें से अपनी पसंद के राजा या राजकुमार के
गले में हार पहना देती थी। कई बार उन राजाओं में लड़ाई भी हो जाती थी। उस समय बाहुबल
और शस्त्र बल ही प्रमुख हुआ करता था।
देवव्रत को सूचना मिली कि काशीराज अपनी तीन कन्याओं का स्वयंवर आयोजित
करने वाले हैं। भीष्म तो ब्रह्मचारी हो गए थे। लेकिन उन्हें अपने सौतेले पुत्र विचित्रवीर्य
के विवाह की चिंता थी। वे स्वयंवर में चले गए और वहां मौजूद सभी राजाओं को परास्त कर
तीनों कन्याओं अंबा, अंबिका और अंबालिका का अपहरण कर लाए। इनमें से अंबा ने बताया कि
वह शाल्व से प्रेम करती है तो उन्होंने उसे शाल्व के पास भिजवा दिया। अंबिका और अंबालिका
का विवाह विचित्रवीर्य से कर दिया। उधर शाल्व ने अंबा को स्वीकार नहीं किया और उसे
वापस भेज दिया। अंबा ने भीष्म से कहा कि आप मुझे हर लाए हैं। शाल्व ने भी नहीं अपनाया।
अब आप ही मुझसे विवाह कीजिए। भीष्म अपनी प्रतिज्ञा से बंधे थे। उन्होंने अंबा से विवाह
नहीं किया। नाराज अंबा ने परशुराम के पास जाकर शिकायत की। परशुराम ने कहा, देखता हूं
देवव्रत विवाह कैसे नहीं करता।
परशुराम ने देवव्रत को बुलावा भेजा। देवव्रत नहीं गए। इसके बाद दोनों
में युद्ध हुआ। दोनों भीषण योद्धा थे। युद्ध का कोई नतीजा नहीं निकलते देख देवताओं
ने हस्तक्षेप कर युद्ध बंद करवाया। अंबा निराश हो गई और जंगल में तपस्या करने चली गई।
(बाकी अगली किस्त में)
राजवंशों के शासन में धर्म का स्वरूप
धर्म को लेकर दुनिया भर में कई जबरदस्ती की बातें समाज पर थोपी गई
हैं। धर्म कई हो गए हैं। पहले एक ही धर्म था। बाद में मनुष्य का मानसिक विकास होता
गया और उसके आचरण के आधार पर श्रेणी और वर्ग आदि विकसित होते चले गए। हिंदू हों, ईसाई
हों या मुसलमान, सबकी पैदाइश वाली जगहों की यही कहानी है। भारत में महाभारत है। पुराण
हैं। वंशवाद है। असंख्य रीति-रिवाज हैं। धर्म के नाम पर खंड-खंड पाखंड का अवलोकन भारत
भूमि पर पर भली भांति किया जा सकता है। धर्म वही है, सनातन धर्म। वेदों का ज्ञान किसी
भी तरह के भेदभाव से परे हैं, मानवहित में हैं। उनकी एक-एक पंक्ति में कई गूढ़ अर्थ
छिपे हुए हैं।
श्रुति परंपरा के तहत वेदों का ज्ञान ब्राह्मण प्राप्त करते थे और
फिर अगली पीढ़ी तक पहुंचाते थे। जब लेखन कार्य शुरू हुआ था, तब वेदों का ज्ञान बहुत
पीछे छूटा हुआ था। ब्राह्मण पुराणों से भी आगे बढ़ चुके थे और विभिन्न राजाओं के यहां
आश्रय प्राप्त करते थे। इसके फलस्वरूप चापलूसी की कला विकसित हुई। शानदार शब्दों के
माध्यम से किसी व्यक्ति की प्रशंसा प्राप्त करना चापलूसी कहलाता है। अपने स्वार्थ के
लिए कोई भी किसी की भी प्रशंसा कर सकता है और उसके सामने झुक सकता है। यह मानवीय स्वभाव
है और ब्राह्मण भी मनुष्यों जाति से अलग नहीं हैं। राजाओं के गुणगान में ब्राह्मण पुरोहितों
ने जो भूमिका निभाई है, उसके आधार पर उन्हें चापलूस शिरोमणि की संज्ञा दी जा सकती है।
ब्राह्मणों की बुद्धि से जो साहित्य रचा गया है, उसमें मनुष्यों के बीच भयंकर भेदभाव
पैदा कर भारत की आधी से ज्यादा जनसंख्या को अज्ञानी घोषित करने की विकट परंपरा शुरू
हुई।
शूद्रों को वेदों का ज्ञान प्राप्त करने की अनुमति नहीं थी। राजा
क्षत्रिय ही हो सकते थे। राजा का बेटा ही अगला राजा बनता था। इस तरह भारत में कई राजवंश
आज भी देखे जा सकते हैं। उनके अपने अंधविश्वास हैं। अपनी रूढ़ परंपराएं हैं और आम जन
को महत्व नहीं देने की परिपाटी है। उत्तर से दक्षिण तक और पूरब से पश्चिम तक, चारों
दिशाओं में कई राजवंश छोटे-छोटे क्षेत्रों पर अपना शासन स्थापित कर चुके थे। जब देश
आजाद हुआ, तब करीब 650 राजवंश थे, जिनको अंग्रेज सरकार ने प्रश्रय दे रखा था। उनमें
से कुछ राजवंश अंग्रेजों के खिलाफ थे। उनको अंग्रेजों साम, दाम, दंड, भेद से प्रभावहीन,
परास्त और समाप्त करने का प्रयास किया था।
महाभारत के बाद भारतीय समाज की जो स्थिति बनी उसमें धर्म को लेकर
कई कपोल कल्पित बातें रची गईं। व्याभिचार को गलत घोषित किया गया और स्त्रियों पर अमानवीय
तरीके से पाबंदियां लगीं। धर्म को सीधे चरित्र और स्त्री-पुरुष के यौन संबंधों से जोड़
दिया गया। जबकि धर्म और चरित्र में बहुत ही दूर का संबंध है। धर्म विचारधारा और स्वभाव
पर आधारित है, जबकि चरित्र व्यवहार पर आधारित है। मनुष्य में काम, क्रोध, लोभ, मोह,
छल, कपट आदि की भावनाएं रहती हैं। ये भावनाएं इच्छाओं और इंद्रियों की सक्रियता पर
आधारित होती हैं। इससे मन में स्वार्थ पैदा होता है और धर्म से अलग मनुष्य का अपना
स्वभाव बनता है। उसकी विचारधारा बनती है। मन के इशारे पर शरीर काम करता है। आकांक्षा
मनुष्य को गतिशील रखती है। आकांक्षाएं समाप्त होने पर मनुष्य निराशा के भंवर में फंस
जाता है। आकांक्षाएं पुरुषार्थ करने की प्रेरणा देती हैं।
दुष्यंत की आकांक्षा ने भरत को जन्म दिया। भरत के नाम पर भारतवर्ष
नाम पड़ा। उसने योग्यता के आधार पर राजा की नियुक्ति की, लेकिन वंशवाद फिर से शुरू
गया। अगली पीढि़यों में शांतनु हुए जो जीवनभर काम वासना से पीडि़त रहे। उनका पुत्र
देवव्रत पिता की हालत देखकर ब्रह्मचारी हो गया। उसने राजवंश के संरक्षक की भूमिका निभाई।
काशीराज की तीन कन्याओं अंबा, अंबिका, अंबालिका का अपहरण कर उनमें से दो का विवाह अपने
भाई विचित्रवीर्य से करवा दिया। देवव्रत गंगापुत्र थे। चित्रांगद और विचित्रवीर्य सत्यवती
के पुत्र थे। चित्रांगद का युद्ध में निधन हो गया था। तब विचित्रवीर्य राजा बने थे।
विचित्रवीर्य का विवाह अंबिका और अंबालिका से कर दिया गया। अंबा शल्य से प्रेम करती
थी। शल्य ने नहीं अपनाया। भीष्म उससे विवाह करने के लिए तैयार नहीं हुए तो वह वन में
तपस्या करने चली गई थी।
भीष्म राजपाट संभाले हुए थे। विचित्रवीर्य अत्यधिक भोग विलास में
जुटे थे। उनके कोई संतान नहीं हुई और वह क्षय रोग से पीडि़त होकर चल बसे। तब उनकी मां
सत्यवती को चिंता हुई कि राजवंश की जिम्मेदारी कौन संभालेगा? उन्होंने जब भीष्म से
कहा कि विचित्रवीर्य की रानियों से संभोग करते हुए वंश को आगे बढ़ाओ, तो वह प्रतिज्ञाबद्ध
होने से तैयार नहीं हुए। तब सत्यवती ने महर्षि वेद व्यास का स्मरण किया। कथा है कि
वेद व्यास सत्यवती के भाई थे। वेद व्यास ने सत्यवती के अनुरोध पर पहले अंबिका से संभोग
किया। अंबिका वेद व्यास के कक्ष में पहुंचने पर उनका रंग-रूप देखकर भयभीत हो गई थी
और उसने आंखें बंद कर ली थी। वेद व्यास ने सत्यवती से कहा कि पुत्र शक्तिशाली होगा,
लेकिन अंधा होगा। अंबा ने धृतराष्ट्र को जन्म दिया। तब सत्यवती ने दूसरी रानी अंबालिका
को वेद व्यास के कक्ष में भेजा। अंबालिका उन्हें देखकर भय से पीली पड़ गई। वेद व्यास
ने कहा कि अंबालिका बहुत डर गई थी, इसलिए जो पुत्र होगा, वह पांडु रोग से पीडि़त होगा।
अंबालिका ने पांडु को जन्म दिया। चिंतित सत्यवती ने एक बार फिर अंबिका को वेद व्यास
के कक्ष में जाने का आदेश दिया तो अंबिका ने सास की बात नहीं मानी और अपनी जगह एक दासी
को भेज दिया। दासी ने न तो आंख बंद की और न ही डरी, इसलिए उसने एक स्वस्थ बालक को जन्म
दिया, जो विदुर कहलाया।
इस तरह धृतराष्ट्र और पांडु का जन्म एक समझौते के तहत हुआ था और
विदुर का जन्म संयोगवश हुआ। विचित्रवीर्य की विधवा रानियों ने पति के निधन के बाद सास
के आदेश पर वेद व्यास से संबंध बनाकर धृतराष्ट्र और पांडु को जन्म दिया था। इसी तरह
अंबिका की एक दासी ने विदुर ने जन्म दे दिया था। इस तरह भविष्य में भीषण महाभारत के
लिए भूमिका बन गई थी। उन राजाओं का क्या चरित्र था? सास के आदेश पर पति के दिवंगत होने
के बाद अन्य पुरुष से संबंध बनाने वाली रानियों का और इस तरह के आदेश देने वाली सास
का क्या चरित्र था? वेद व्यास महर्षि थे, महाविद्वान थे, विकट शोधकर्ता थे। इस घटना
के बाद उन्होंने पूरे महाभारत का वर्णन समय की आवश्यकता के अनुरूप स्वयं किया और गणेशजी
की सहायता से उसे लिपिबद्ध किया गया। क्या वेद व्यास का कार्य धर्म विरुद्ध था?
हिंदुत्व, धार्मिक कर्मकांड और महाभारत की कथा
इस समय हिंदुत्व का जोर है। हिंदुत्व को महानता से जोड़ा जाता है।
महानता का संबंध व्यक्ति के चरित्र से होता है। इसलिए हमें इस पर विचार अवश्य करना
चाहिए कि इस देश में प्रजा का पालन करने वाले राजागण और उनके परिजन चरित्र की दृष्टि से कितने महान
थे। भारत में ब्राह्मणों ने जनता को विभिन्न कर्मकांडों में जकड़कर रखा है। जो लोग
इन कर्मकांडों को उचित नहीं मानते हैं, वे धर्मविरोधी मान लिए जाते हैं। इसलिए यहां
कर्मकांड का विरोध करने का उद्देश्य नहीं है। वेदों की मूल शिक्षा क्या है, यह प्रकरण
सदियों पहले बहुत पीछे छूट गया है। अब सिर्फ पौराणिक कथाओं के आधार पर ही हिंदू धर्म
को प्रचलित बनाए रखने के प्रयास हो रहे हैं।
कई लोग पौराणिक कथाओं की सत्यता पर संदेह करते हैं, लेकिन हिंदू
धर्म में आस्था रखने वाले लोग विभिन्न पौराणिक कथाओं और टोनों-टोटकों के आधार प्रचलित
त्योहारों, पर्वों को नियमित और निरंतर मनाते हुए हिंदू धर्म का अस्तित्व बनाए हुए
हैं। ऐसे लोगों को राजनीतिक उद्देश्य से एक दल विशेष का समर्थन करने के लिए बाध्य करने
का नाम ही हिंदुत्व की स्थापना है तो यह उचित है या अनुचित, समझदार और विवेकसंपन्न
लोग जानें। लेकिन तथ्य यही है कि किसी भी धार्मिक कर्मकांड का धर्म की मूल भावना से
विशेष संबंध नहीं होता है।
सार्वजनिक रूप से धर्म की स्थापना की घोषणा करने के लिए या जनमानस
को समूहबद्ध करने के लिए इस तरह के कर्मकांड रचे जाते हैं। यह कार्य राजाओं के शासन
में बहुत होता था। इस प्रकार अधिकांश कर्मकांड सामंतशाही के उत्पाद माने जा सकते हैं।
कुछ त्योहार अवश्य समाजहित में जुटे ऋषियों की प्रेरणा से प्रकृति और पर्यावरण का महत्व
जनसाधारण को समझाने के लिए रचे गए हैं, जैसे पेड़, नदी, जलस्रोत, पर्वत आदि की पूजा,
लेकिन अधिकतर त्योहार राजाओं के शासन में रचे गए प्रतीत होते हैं।
जहां
तक चरित्र की बात है तो महाभारत काल की कथाएं विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। दुष्यंत
और शकुंतला का प्रेम, भरत का जन्म, कालांतर में शांतनु का जन्म, सत्यवती के प्रति उनकी
आसक्ति, सत्यवती के पुत्र विचित्रवीर्य की रानियों के गर्भ से योग्य पुत्र का जन्म
सुनिश्चित करने के लिए सत्यवती का वेद व्यास से अनुरोध। वेद व्यास का अंबिका, अंबालिका
और अंबिका की एक दासी के साथ संभोग करना, इसके फलस्वरूप धृतराष्ट्र,
पांडु और विदुर का जन्म। इसके बाद धृतराष्ट्र का गांधारी से विवाह। पांडु का कुंती
और माद्री से विवाह। गांधारी ने पति परमेश्वर की भक्ति के वशीभूत होकर पति को दृष्टिहीन देख
स्वयं की आंखों पर भी पट्टी बांध ली थी। विचित्रवीर्य के बाद धृतराष्ट्र के नेत्रहीन होने
के कारण उनके छोटे पुत्र पांडु को राजा बनाया गया।
पांडु की पत्नी ने एक बार विवाह से पूर्व एक वर्ष तक दुर्वासा ऋषि
की सेवा की थी। इसके फलस्वरूप दुर्वासा ने उन्हें वरदान दिया था कि वह किसी भी देवता
का स्मरण और आह्वान करके उसके समान पुत्र उत्पन्न कर सकती है। उस समय कुंती का विवाह
नहीं हुआ था। उन्होंने सिर्फ वरदान की परीक्षा करने के लिए सूर्य का स्मरण और आवाहन
किया तो उन्हें सूर्य जैसे प्रतापी बालक को जन्म देना पड़ा, जिसे लोकलाज के भय से बचने
के लिए उन्होंने उसे एक पेटिका में बंद कर गंगा में प्रवाहित कर दिया था। कालांतर में
वह युवक महाबली, युद्ध निपुण, दानवीर कर्ण के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उसके बाद कुंती
का विवाह पांडु के साथ हुआ था। पांडु किसी पुत्र को जन्म नहीं दे सके। उनके वंश की
रक्षा के लिए कुंती ने यमराज का आवाहन करके धर्मराज युधिष्ठिर, वायु का आवाहन करके
बलवान भीम और इंद्र का आवाहन कर सर्वगुण संपन्न अर्जुन को जन्म दिया था। यह मंत्र उन्होंने
अपनी सौत माद्री को भी सिखा दिया था, जिससे वह अश्विनी कुमारों का आवाहन करके नकुल,
सहदेव को जन्म देने में सफल रही।
पांडु के परिवार में जन्मे इन पांच पुत्रों को पांडव नाम से जाना
गया। जब वे बच्चे थे, तब पांडु का निधन हो गया। तब धृतराष्ट्र को राजा बनाया गया और
भीष्म हस्तिनापुर राज्य के संरक्षक बने रहे। धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी ने एक भारी
मांस पिंड को जन्म दिया था, जिसके विभाजन से उनके सौ पुत्र हुए, जो बाद में कौरव कहलाए।
दुर्योधन धृतराष्ट्र का सबसे बड़ा पुत्र था और पिता के बाद स्वयं को हस्तिनापुर का
उत्तराधिकारी मानता था। उस समय द्रोणाचार्य नामक ब्राह्मण क्षत्रिय राजकुमारों को शिक्षा
देते थे। उन्होंने पांडवों और कौरवों को भी शिक्षा दी थी और हस्तिानापुर राज्य में
सम्मान और संरक्षण प्राप्त कर राजदरबार में स्थान बनाया था।
दुर्योधन की हठधर्मिता के कारण पांडवों और उनके परिवार को राज्य
से अलग करने के बहुतेरे प्रयास हुए। धृतराष्ट्र ने भी पक्षपात किया। नियम और परंपरा
के अनुसार हस्तिनापुर का राज्य युधिष्ठिर को संभालना था, लेकिन उन्हें षड्यंत्रपूर्वक
राज्य से बाहर रखने के लिए द्यूत क्रीड़ा रची गई और उसमें पांडवों को पराजित कर उन्हें
बारह बरस वनवास में व्यतीत करने के लिए विवश किया गया। इसमें गांधारी के भाई, दुर्योधन
के मामा शकुनि की महत्वपूर्ण भूमिका रही। इस द्यूत क्रीड़ा के दौरान धर्म का अत्यंत
उपहास हुआ। पांचों पांडवों की एकमात्र पत्नी द्रौपदी को दुर्योधन का भाई दुशासन उसके
आवास से पकड़कर जबरन राजदरबार में खींच लाया और उसको निर्वस्त्र करने का प्रयास किया।
तब कृष्ण ने द्रौपदी
की पुकार पर सहायता की थी और उनके वस्त्र बचाकर सम्मान की रक्षा की थी। यह एक राजा
के दरबार में परिवार की ही एक महिला को सार्वजनिक रूप से यौन प्रताड़ना देने का मामला
था।
रामायण, महाभारत, चरित्र और सर्वधर्म समभाव
हिंदुत्व पर विचार करते समय रामायण और महाभारत को नजरअंदाज नहीं
किया जा सकता। इस समय जो हिंदुत्व का ढांचा खड़ा है और जिसका राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल
किया जा रहा, वह पौराणिक कथाओं के आधार पर ही बना हुआ है। कांग्रेस ने अंग्रेजों के
जाने के बाद महात्मा गांधी के नाम पर देश का शासन संभाला था। गांधी जी की विचारधारा
भी हिंदुत्व पर ही आधारित ही थी। वह हमेशा राम का नाम जपते रहते थे और उनकी सभाओं में
जो भजन गाए जाते थे, जैसे रघुपति राघव राजा राम, ईश्वर अल्लाह तेरो नाम..... और वैष्णव
जन तो तैने कहिए, जो पीर पराई जाने रे.... वे भी हिंदुत्व पर ही आधारित थे। लेकिन गांधीजी
का हिंदुत्व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के हिंदुत्व से अलग था।
गांधीजी की विचारधारा सर्वधर्म समभाव पर आधारित थी, जिसे बाद में
कांग्रेस ने धर्म निरपेक्षता नाम दिया, जबकि संघ के हिंदुत्व में कट्टरता दिखती है।
खास तौर से मुसलमानों के खिलाफ कट्टरता ज्यादा है। इसका एक कारण यह भी है कि हिंदू
समुदाय अपने धर्म का ढोल नहीं पीटता है, जबकि मुसलमान अपने मजहब का सार्वजनिक प्रदर्शन
करने और अन्य लोगों पर इस्लाम के नाम पर धौंस-पट्टी जमाने का कोई मौका नहीं छोड़ते
हैं। भारतीय भूभाग भले ही धार्मिक विचारधारा के आधार पर कई हिस्सों में बंटा हुआ हो,
लेकिन यहां धर्म के नाम पर अलग देश बनाने का काम अंग्रेजों ने पहली बार किया था, जब
धर्म के नाम पर देश को विभाजित करते हुए भारतीय भूभाग को तोड़कर इस्लाम के आधार पर
पाकिस्तान नामक एक नया देश बना दिया गया। यही झगड़े की जड़ बनी हुई है और अंग्रेज इस
देश पर दो सदियों तक राज करने के बाद अपना सांस्कृतिक कूड़ा-कचरा यहां छोड़कर चले गए हैं।
अंग्रेजों
की बनाई शिक्षा व्यवस्था, कानून व्यवस्था और न्याय व्यवस्था अभी तक लागू है। दोनों
देशों की जेलें और पुलिस थाने अंग्रेजों की बनाई प्रणाली के अनुसार ही चलते हैं। कुल
मिलाकर मामला बहुत गड्डमड्ड है। महाभारत के मुख्य पात्रों का चरित्र और व्यवहार सामने
है। पूरे भारतीय उप महाद्वीप के तमाम राजा उस युद्ध में एकजुट हुए थे। हस्तिनापुर राजवंश
के एक परिवार के दो भागों में विभाजित होने के फलस्वरूप महायुद्ध की तैयारी हो गई थी।
आधे राजा कौरव के पक्ष में और आधे पांडवों के पक्ष में जुट गए थे। राजगद्दी पर कब्जा
बनाए रखने की इच्छा से प्रेरित होकर कई अन्याय किए गए थे, अधर्म को सार्वजनिक मान्यता
प्रदान करने का प्रयास हो रहा था, इसलिए महायुद्ध अवश्यंभावी था।
युद्ध
के दौरान पांडवों के पक्ष में कृष्ण ने राजनीतिक और कूटनीतिक भूमिका निभाई थी। युद्ध
का परिणाम क्या रहा, लिखने की जरूरत नहीं। भारी नरसंहार हुआ। महायुद्ध के बाद भी बच्चों
तक को मारा गया। जिस स्थान पर दूध की नदियां बहती थीं, वहां पहली बार लोगों ने खून
की नदियां बहती हुई देखी। धरती इस तरह लाल हुई कि एक बड़े भूभाग की मिट्टी का रंग लाल
हो गया। बड़े-बड़े अहंकारी, सूरमा, योद्धा आदि उस महायुद्ध में ध्वस्त हो गए थे। जिस
राज्य पर अधिकार के लिए पांडवों ने यह महायुद्ध लड़ा था, महायुद्ध के बाद उस राज्य
की स्थिति इतनी भीषण और वीभत्स हो चुकी थी कि किसी भी राजा के लिए वह राज्य शासन करने
लायक ही नहीं बचा था। लाशों का ढेर। बिलखते हुए बच्चे। बड़ी संख्या में रोती हुई महिलाएं।
भयंकर नुकसान। क्या उस स्थिति की कल्पना की जा सकती है। महाभारत युद्ध के बाद बने सामाजिक
वातावरण का वर्णन कहीं भी पढ़ने को नहीं मिलता। निश्चित रूप से तब राज्यों का और समाज
का नए सिरे से पुनर्गठन हुआ होगा।
महाभारत
युद्ध के लंबे समय के बाद विभिन्न राजाओं की मौजूदगी के प्रमाण हैं। उन राजाओं ने अपने
राज्यों के ब्राह्मणों से अपने पक्ष में ग्रंथ रचना शुरू करवाया। राजा जो होता है,
वह प्रजा का अभिभावक होता है और भगवान विष्णु का प्रतिरूप होता है। भगवान शंकर जो हैं,
वह भोले हैं और उन्हें संसार से कोई मतलब नहीं है, ब्रह्मा चरित्रहीन देवता थे, अपनी
ही बेटी पर आसक्त हो गए थे, उनकी पूजा कोई नहीं करता है। वगैरह-वगैरह। इस तरह की बातें
ब्राह्मणों ने रचीं। कर्मकांड तैयार किए। अपनी जीविका सुनिश्चित करने के लिए उन्होंने
राजाओं की मदद से पूरे समाज को इन कर्मकांडों और अंध विश्वासों के बेडि़यों में बुरी
तरह से जकड़ने का काम किया। आज भारतीय समाज का जो स्वरूप है, उसका विश्लेषण और विचार
मंथन करने पर ये सारी बातें स्पष्ट होती हैं।
वेदों
के ज्ञान को श्रुति परंपरा के आधार पर जनता तक पहुंचाने वाले ब्राह्मण कहलाते थे। इस
तरह शुरू से ही ज्ञान पर ब्राह्मणों का अधिकार रहा। राजाओं के राज्यों में वेद लुप्त
हो गए। ब्राह्मणों की बुद्धि प्रमुख हो गई। नीति बनाने में ब्राह्मणों की प्रमुख भूमिका
रहती थी, क्योंकि बुद्धि का ठेका उन्हीं के पास था। युग बदलने और वैज्ञानिक विकास होने
के बाद लेखन कार्य शुरू हो चुका था। ज्ञान आधारित लेखन कार्य ब्राह्मण संभालते थे।
इसके अलावा प्रशासन संबंधी अन्य लेखन कार्य के लिए एक नई कायस्थ जाति बनी। आज भी प्रशासन
में कायस्थों की महत्वपूर्ण भूमिका है। कायस्थों को ब्राह्मणों ने शूद्र बताया है,
हालांकि इस समय समाज का जो स्वरूप बन गया है। उसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र
जैसे वर्ण आधारित समाज की परिकल्पना ध्वस्त हो चुकी है। इसके बावजूद कई लोग जबरन इस
अवधारणा से चिपके हुए हैं, जिससे भारतीय समाज में बहुत उथल-पुथल है
महाभारत के बाद बने रीति-रिवाज और त्योहार
महाभारत काल के लंबे समय बाद जब राज्यों का पुनर्गठन हुआ, तब वे
सारे रीति-रिवाज बने, जो आजकल हिंदुओं में प्रचलित हैं। राम की रावण को मारने के बाद
अयोध्या वापसी, श्रीकृष्ण जन्माष्टमी,
राम नवमी आदि त्योहार उत्तर भारत में प्रचलित हुए। कई त्योहार ऋतु और तिथि के आधार
पर हैं, जैसे पित्र पक्ष, सर्वपित्र अमावस्या, शरद पूर्णिमा आदि। ये सब त्योहार ज्यादातर
हिंदू मनाते हैं। इसके अलावा दक्षिण में, पूरब में, उत्तर में, मध्यवर्ती क्षेत्रों
में जातीय और कृषि
आधारित परंपराओं के अनुसार कई त्योहार हैं, जो समाज को व्यस्त रखने के
लिए रचे गए हैं।
धर्म को लेकर हिंदुओं में शिव, विष्णु और देवी की पूजा के आधार पर
कई भेद पहले से रहे हैं, इससे उनमें अलग-अलग तरह की परंपराएं विकसित हुईं और अलग-अलग
त्योहार भी बने। लेकिन यह भारतीय भूभाग की अद्भुत सांस्कृतिक एकता रही है कि सभी एक दूसरे की धार्मिक परंपराओं
का सम्मान करते हैं। मन से भारतीय व्यक्ति कभी भी किसी अन्य धर्म के खिलाफ नहीं हो
सकता। यही कारण है कि जितनी भी विदेशी जातियां भारत में किसी भी उद्देश्य से आईं, उन्हें
यहां जगह मिली। जनता ने उन्हें अपनाया। सांस्कृतिक आदान-प्रदान का ऐसा अद्भुत उदाहरण किसी अन्य देश में दिखाई
नहीं देता है।
हिंदुओं
में पहले प्रतिमाओं और फिर तस्वीरों की पूजा करने का रिवाज बना। मंदिर बनाकर उनमें
प्रतिमाएं स्थापित होने लगीं। तमाम तरह के देवी-देवताओं, पौराणिक कथाओं से जुड़ी घटनाओं
का चित्रांकन हुआ। ये चित्र श्रेष्ठ चित्रकारों ने अपनी अद्भुत कल्पना शक्ति के आधार
पर बनाए। इनमें गीताप्रेस गोरखपुर से छपने वाली पत्रिका कल्याण और उसके विशेषांकों
में छपने वाले रंगीन चित्र और रेखाचित्र करोड़ों हिंदुओं की आस्था के केंद्र बने। मुंबई
की व्यंकटेश प्रेस ने भी धार्मिक साहित्य प्रकाशित किया और चित्र छापे। और भी कई प्रकाशन
संस्थाओं ने यह सिलसिला बनाया। धार्मिक कैलेंडरों का बाजार बना। हिंदुओं के घरों में,
दुकानों में ये कैलेंडर लगने लगे। पूजाघरों में इनकी जगह बनी।
इसके
बाद से ही अधिकांश हिंदुओं ने यह मान लिया कि अब भगवान हमारे घर में विराजमान हैं और
उनके दर्शन के लिए अतिरिक्त प्रयास करने की आवश्यकता नहीं है। वे बांस की एक लंबी पतली
तीली पर गूगल मिश्रित ज्वलनशील पदार्थ लपेटकर बनाई गई वस्तु, जिसे अगरबत्ती कहते हैं,
जलाकर उसे देवी-देवताओं की तस्वीरों के सामने घुमा देते हैं और उसे कैलेंडर के सामने
लगा देते हैं। वह धुआं छोड़ती हुई बगैर लपट के जलती रहती है। घर में उसका धुआं फैलता
रहता है। लोगों को लगता है कि धार्मिक वातावरण बन रहा है। इसके बाद वे उन सब कार्यों
को करने के तरीके खोजने में व्यस्त हो जाते हैं, जो उन्हें तात्कालिक रूप परिवार के
लिए और अपने स्वयं के लिए करने होते हैं। ईमानदारी, गलत-सलत आदि करने पर उन्हें भरोसा
रहता है कि भगवान के सामने अगरबत्ती जलाकर माफी मांग लेंगे। भगवान माफ कर देंगे। कौनसा
भगवान, कौनसी माफी......। क्या यह जीवनशैली हिंदुत्व है?
भारतीय
समाज राजाओं की सामंतवादी तानाशाही तो बहुत पहले से झेलता आया है। ब्राह्मणों की बौद्धिक
तानाशाही उन्हें अतिरिक्त रूप से झेलनी पड़ती है। वैदिक काल का जो प्राचीन ज्ञान है,
उस पर आधारित कई तंत्र-मंत्र भी हैं, जिन पर लोगों में विश्वास-अंधविश्वास है। यह माना
जाता है कि विशेष तिथियों पर मंत्रों पर आधारित तांत्रिक क्रियाएं करने से सिद्धियां
प्राप्त होती है। इन तांत्रिक क्रियाओं में पशुबलि, नरबलि जैसे जघन्य कार्य भी होते
हैं। कई तांत्रिक क्रियाएं श्मशान में भी की जाती है। इसके अलावा कई तरह के टोने-टोटके
भी भारतीय समाज में प्रचलित है, भारतीय समाज में ही नहीं, लगभग सभी धर्म आधारित समाजों
में भी किसी ने किसी तरह के टोने-टोटके चलते हैं। हिंदुओं में टोनों-टोटकों की परंपरा
शुरू करने के लिए ज्योतिषियों को जिम्मेदार माना जा सकता है। ज्योतिष का ज्ञान भी वेद
आधारित है और इस पर अधिकतर ब्राह्मणों का ही अधिकार रहा है।
पाप-पुण्य,
तंत्र-मंत्र, टोने-टोटके और मनु स्मृति
हम अनुमान
लगा सकते हैं कि महाभारत के बाद भारतीय समाज जिस ढांचे में ढला, उसमें अंधविश्वास,
कुरीतियां, धर्म के नाम पर पुराणों की कथाएं, कुछ कथाएं और कई देवी-देवता पुराणों में
नाम नहीं होने के बाद अस्तित्व में ला दी गई हैं। इनमें सत्यनारायण की कथा और संतोषी
माता जैसी कथाएं शामिल हैं। तांत्रिक क्रियाएं, टोने-टोटके, धर्म के नाम पर समाज में
जबरदस्ती का आतंक, महिलाओं को अबला मानकर उन्हें संपत्ति मानने की अवधारणा, सुंदर महिलाओं
का अपहरण कर उनके साथ बलात्कार, बलात्कार पीडि़त और विधवा महिलाओं का समाज में बहिष्कार,
देहव्यापार का प्रचलन, भयंकर जातिवाद और उसके नाम पर आतंक। यह सब इस भारत भूमि पर चल
रहा है। धर्म का लोप हो चुका है।
धर्म
के नाम पर बहुत पहले से शुद्ध कर्मकांड प्रचलित हो गए थे। पाप करने के बाद उससे मुक्त
होने की व्यवस्था बना दी गई थी। ब्राह्मणों की जीविका बनाए रखने के लिए ब्राह्मणों
का पूजन, सत्कार और धर्म के नाम पर उनको दान देने का प्रचलन स्थापित हो गया। राजपूत
अपने जातिवाद के आधार पर इस या उस राजा की सेना में शामिल हो जाते थे। समाज की आर्थिक
व्यवस्था चलाए रखने के लिए विभिन्न वस्तुओं के उत्पादन और विक्रय का प्रावधान बन चुका
था। व्यापार करने वाले वैश्य कहलाए। बाकी लोगों को शूद्र की श्रेणी में रखा गया। इनमें
मिट्टी (कुम्हार), धातु (सोना, चांदी, तांबा, पीतल, लोहा, एल्यूमीनियम आदि), लकड़ी,
कपास आदि के काम करने वाले वाले लोग शूद्रों में उच्च जाति के माने गए और सफाई कर्म,
चमड़ा आदि का काम करने वाले निम्न जाति के माने गए।
धार्मिक
पूजा-पद्धति और त्योहारों को अर्थ व्यवस्था से जोड़ा गया। धर्म के नाम पर एक बाजार
विकसित हुआ। ब्राह्मण यह तय करते कि पूजा के दौरान कौनसी सामग्री चाहिए। इसी व्यवस्था
के अंतर्गत मंदिर बने। मंदिरों के माध्यम से धर्म के नाम पर एक व्यवस्था बनी, जो सनातन
धर्म जैसी थी। लेकिन धर्म की मूल भावना से बहुत अलग। राजवंशों की सराहना, राजभक्ति,
सामंतवाद, अंधविश्वास, भयानक तंत्र-मंत्र आदि भारतीयों की जीवनशैली के आधार बने।
यह समाज
व्यवस्था मनु से प्रेरित बताई जाती है। हिंदुओं की मान्यता है कि मनु संसार के प्रथम
पुरुष थे। प्रथम मनु का नाम स्वयंभुव मनु था। प्रथम स्त्री थी शतरूपा। मनु को ब्रह्मा
ने प्रकट किया था। वह स्वयंभू थे। मनु और शतरूपा ने संतान उत्पन्न की, जिससे मनुष्यों
का अस्तित्व बना। वे मानव कहलाए। हिंदी में मानव का अर्थ है, वह जिसमें मन, जड़ और
प्राण से कहीं अधिक सक्रिय है। मनुष्य में मन की शक्ति है। विचार करने की शक्ति है।
ब्रह्मा का एक दिन कल्प कहलाता है। एक कल्प में 14 मनु हो जाते हैं। एक मनु के काल
को मन्वंतर कहते हैं। वर्तमान में वैवस्वत मनु सातवें मनु बताए जाते हैं। मनु महाकवि
जयशंकर प्रसाद की प्रसिद्ध रचना कामायनी के प्रमुख पात्र हैं। श्रीमद्भागवत में वर्तमान
वैवस्वत मनु और श्रद्धा से मानवीय सृष्टि का प्रारंभ माना जाता है।
मनु
ने समाज की व्यवस्था के लिए मनु स्मृति की रचना की थी जो अब अपने मूल स्वरूप में उपलब्ध
नहीं है। मनु स्मृति के नाम पर भारतीय समाज पर कई विचित्र पाबंदियां थोपने और ज्यादातर
मनुष्यों को दोयम दर्जे का बनाए रखने का काम हुआ है। विदेशी और विधर्मी लोगों के उपद्रव
को आतंकवाद के नाम से परिभाषित किया गया है, लेकिन सामान्य भारतीय आतंक शब्द से बहुत
पहले से परिचित हैं। अधिकतर भारतीय परिवारों की महिलाएं और बच्चे जानते हैं कि आतंक
का क्या मतलब होता है। समाज में अपनी गुजर-बसर करने वाले कई गैर ब्राह्मण, गैर राजपूत
और गैर वैश्य लोग जानते हैं कि आतंक का क्या मतलब होता है।
कई लोग
सरकार की गलत नीतियों का विरोध करने के लिए संगठित होकर सरकार को नुकसान पहुंचाने का
प्रयास करते हैं, वे सरकार की तरफ से आतंकी घोषित होते हैं। अंग्रेज सरकार ने भगत सिंह,
सुखदेव, राजगुरु, चंद्रशेखर आजाद सहित कई क्रांतिकारियों को आतंकवादी घोषित किया था।
अब प्रचार है कि आतंकवादी पाकिस्तान में पाए जाते हैं। भारत में आतंकवाद, प्रताड़ना
जैसी कोई बात नहीं है। भारत में हिंदू होने के कारण यहां के मूल निवासी इन दोषों से
अपने आप मुक्त हैं।
हिंदू
समाज में भेदभाव, बौद्ध और जैन धर्म का विस्तार
हम हिंदुत्व
पर विचार कर रहे हैं। हिंदुत्व इस समय अलग तरह से परिभाषित किया जा रहा है। इस शब्द
का आविष्कार ही करीब डेढ़ हजार साल पहले हुआ था। महाभारत के बाद भारतीय समाज की जो
स्थिति बनी, उसमें धर्म के नाम पर विष्णु को प्रमुखता देते हुए मनमाने धार्मिक नियम
और कर्मकांड रचे गए और शासकों अर्थात राजवंशों की ओर से नियुक्त ब्राह्मणों ने समाज
को इस कदर जातिवाद की ऊंच-नीच में जकड़ा कि भारतीय अब तक इससे मुक्त नहीं हो पाए हैं।
वैदिक ज्ञान में से जो काम का था, उसे अपना लिया गया। बाकी वेद के नाम पर कपोल कल्पित
बातें रची गईं।
गणना
और व्याकरण वेद से मिले हैं। शून्य का आविष्कार भारत में ही हुआ। इस बात का खंडन अब
तक नहीं हुआ है। ज्योतिष के भी दो पक्षों में से एक भविष्यवाणी वाला पक्ष ज्योतिषियों
की आमदनी का आधार बना। अब ज्योतिष की किताबें कई लोग पढ़ रहे हैं। इसी तरह हर विषय
में हो रहा है। ब्राह्मणों का एकाधिकार समाप्त है। सभी जातियों के लोग उच्च शिक्षित
हो रहे हैं। इसके बावजूद मनु स्मृति के नाम पर इतने कर्मकांड थोपे हुए हैं कि लोगों का जीना ही दूभर है।
इस परिस्थिति में बुद्ध और महावीर का जन्म हुआ। दोनों लगभग एक ही सदी में हुए।
बुद्ध
का जन्म ईसा पूर्व 563 में शाक्य गणराज्य कपिलवस्तु की राजधानी लुंबिनी में इक्ष्वाकु
वंशीय क्षत्रिय शाक्य कुल के राजा शुद्धोधन के घर सिद्धार्थ के रूप में हुआ। लुंबिनी
अब नेपाल में है। उनकी मां का नाम महामाया था। बुद्ध के जन्म के सात दिन बाद महामाया
का निधन हो गया था। सिद्धार्थ का पालन-पोषण महामाया की छोटी बहन महाप्रजावती गौतमी
ने किया। युवा होने पर सिद्धार्थ का विवाह यशोधरा से हुआ। जब उनका पहला पुत्र राहुल
नवजात स्थिति में था, तब एक दिन अचानक सिद्धार्थ को राजपाट, संसार, परिवार आदि से उच्चाटन
हो गया। एक रात वह चुपचाप सत्य की खोज में महल से निकल पड़े।
राजा शुद्धोधन ने सिद्धार्थ
की सुख-सुविधाओं में कोई कमी नहीं छोड़ी थी। सिद्धार्थ ने ऋषि विश्वामित्र से शिक्षा
प्राप्त की थी। इसके बावजूद सिद्धार्थ घर से निकल पड़े थे। इस दौरान उन्होंने योग साधना
सीखी। समाधि लगाना सीखा। उससे भी संतोष नहीं हुआ तो वह उरुवेला पहुंचकर तरह-तरह से
तपस्या करने लगे। आखिरकार बिहार के बोधगया में बैसाखी पूर्णिमा पर एक पीपल के पेड़
के नीचे उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई। उसके बाद से वह पेड़ बोधि वृक्ष कहलाने लगा।
बुद्ध की बातों का भारतीय समाज पर बड़े पैमाने पर असर हुआ। बुद्ध की शिक्षाओं के आधार
पर नया धर्म बौद्ध धर्म विकसित हुआ। उनकी शिक्षाएं भी वेद और सनातन धर्म पर आधारित
रहती थी, लेकिन उनमें कुछ अंतर होता था।
बुद्ध के जन्म के
37 साल बाद ईसा पूर्व करीब 599 में वैशाली गणतंत्र में इक्ष्वाकु वंश के क्षत्रिय राजा
सिद्धार्थ और रानी त्रिशला के यहां कुंडलपुर में महावीर का जन्म हुआ था। उनके जन्म
के बाद राज्य की उन्नति होने लगी थी, इसलिए उनका नाम वर्धमान रखा गया। वर्धमान ने तीस
वर्ष की उम्र के बाद राजपाट छोड़ दिया और सत्य की खोज में निकल पड़े। महावीर ने 12
वर्ष की कठोर साधना के बाद ज्ञान प्राप्त किया और धर्म का पालन करने के लिए पांच व्रतों,
सत्य, अहिंसा, अचौर्य, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य का महत्व बताया। इसके बाद जैन धर्म की
स्थापना हुई और जैसी कि कथाएं रचने की परंपरा थी, महावीर को लेकर भी कई कथाएं बनीं
और उन्हें सत्य मानने की बाध्यता पैदा की गई। जैन समुदाय प्रमुख रूप से दो भागों में
बंटा है, दिगंबर और श्वेतांबर। दिगंबर मानते हैं कि महावीर बाल ब्रह्मचारी थे। श्वेतांबर
मानते हैं कि महावीर दीक्षा के बाद कुछ समय निर्वस्त्र रहे थे। कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति
उन्हें दिगंबर अवस्था में ही हुई थी। श्वेतांबरों के अनुसार महावीर के जन्म के उपरांत
उनकी प्रियदर्शिनी नामक पुत्री हुई थी। युवा होने पर उसका विवाह राजकुमार जमाली के
साथ हुआ था।
बौद्ध धर्म और जैन
धर्म का कुछ ही समय में अच्छा-खासा विस्तार हुआ। बुद्ध के निर्वाण के बाद बौद्ध धर्म
के विभिन्न संप्रदाय विकसित हुए और उनके माध्यम से बौद्ध दर्शन विकसित हुआ। बाद में
पूरे एशिया में इसका विस्तार हुआ। बौद्ध दर्शन में आत्मा को मान्यता नहीं दी गई है,
इसलिए वेदांत दर्शन से इसका विरोध रहा, लेकिन उसका शून्यवाद इसे वेदांत दर्शन के निकट
ले जा जाता है। बौद्धों के अनुसार वस्तु का निरंतर परिवर्तन होता रहता है। कोई भी पदार्थ
एक क्षण से अधिक स्थायी नहीं होता है। कोई भी मनुष्य किसी भी दो क्षणों में एक सा नहीं
रह सकता, इसलिेए आत्मा भी क्षणिक है। बौद्ध धर्म में यह सिद्धांत क्षणिकवाद कहलाता
है। बौद्ध धर्म में तंत्र-मंत्र का भी उल्लेख है। देवी तारा शक्ति एवं तंत्र की देवी
मानी जाती है। तिब्बती लामा तांत्रिक क्रियाओं के माध्यम से अलौकिक शक्तियां प्राप्त
करते हैं। बुद्ध के निर्वाण के बाद बौद्ध धर्म पांच शताब्दियों के भीतर चीन, जापान,
वियतनाम, थाईलैंड, म्यांमार, भूटान, श्रीलंका, कंबोडिया, मंगोलिया, लाओस, सिंगापुर,
कोरिया तक फैल गया था।
बौद्ध दर्शन की तरह
एक अलग जैन दर्शन भी विकसित हुआ, जिसमें अलग ही बातें कही गई हैं। जैन दर्शन में कर्मकांड
की अधिकता और जड़ता होने से वेदों को मिथ्या बताया गया है। जैनियों के अनुसार जीव और
कर्मों का संबंध अनादिकाल से चला आ रहा है। जब जीव अपनी आत्मा को इन कर्मों से पूरी
तरह मुक्त कर देता है तो वह स्वयं भगवान बन जाता है। जैन धर्म में मान्यता है कि
24 तीर्थंकर समय-समय पर संसार चक्र में फंसे जीवों को कल्याण के लिए उपदेश देने इस
धरती पर आते हैं। जैन धर्म के जो पुराण रचे गए हैं, उनमें जैन धर्म को विश्व का सबसे
प्राचीन धर्म कहा गया है। इसका अर्थ यह है कि जैन समुदाय के लोग सनातन धर्म का अस्तित्व
ही नहीं मानते हैं, इसके बावजूद जैन धर्म के त्योहार, पूजा पद्धति आदि सनातन धर्मियों
के समकक्ष ही हैं और जैनी अब खुद को असली हिंदू मानने लगे हैं। कई जैन मतावलंबी विश्व
हिंदू परिषद सहित विभिन्न हिंदू संगठनों में शामिल हैं।
जैनी दो तरह के होते
हैं, दिगंबर और श्वेतांबर। दिगंबर तीन समुदायों में बंटे हुए हैं, तारणपंथ, दिगंबर
तेरापंथ और बीस पंथ। श्वेतांबर दो भागों में बंटे हुए हैं, देरावासी और स्थानकवासी।
स्थानकवासी के दो भाग हैं, बाइस पंथी और श्वेतांबर तेरापंथ। जैनी अपने धर्म को सबसे
प्राचीन बताते हुए प्रमाण स्वरूप ऋग्वेद आदि के उदाहरण पेश करते हैं, इसके बावजूद वे
वेदों को नहीं मानते। ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार महावीर के बाद जैन धर्म का विस्तार
होने लगा था और ईसा की तीसरी सदी में जैन दिगंबर और श्वेतांबर में विभाजित हो गए थे,
लेकिन जैन साहित्य में जैन धर्म के संस्थापक ऋषभ देव माने गए है, जो भारत के चक्रवर्ती
सम्राट भरत के पिता थे। इस तरह जैन मान्यता में दुष्यंत और शकुंतला से भरत के जन्म
की कथा सही नहीं मानी जाती।
इस तरह हम समझ सकते
हैं कि भारत में प्रचलित सनातन धर्म में मनुष्यों के बीच आपसी भेदभाव, ऊंच-नीच की स्थिति
इस कदर बिगाड़ दी गई थी कि बड़ी संख्या में लोग सनातन धर्म को छोड़कर बौद्ध और जैन
धर्मों की ओर मुड़ गए। इसके बाद बौद्ध और जैन धर्मावलंबियों ने आक्रामक तरीके से अपने
धर्म का विस्तार किया। भारत में इस्लाम और ईसाई धर्म के आने से बहुत पहले धार्मिक विभाजन
का सिलसिला शुरू हो चुका था।
हिंदुओं में धार्मिक
बिखराव बनाम राजनीतिक ध्रुवीकरण
जिस हिंदुत्व के नाम
पर देश के भोले-भाले लोगों को राजनीतिक रूप से संगठित करके वोट संग्रहित करने का सफल
उपक्रम हुआ है और प्रचार से संबंधित जो समाज वैज्ञानिक तकनीकें अपनाई जा रही हैं, वह
धर्म के अनुकूल है या नहीं, यह विचारणीय प्रश्न है। ऐसा इस्लाम के अनुयायी भी करते
हैं और ईसाई भी करते हैं। क्या हिंदू धर्म भी उनके ही समकक्ष है, जिसे बाकी धर्मों
से महान बताया जाता है? अमेरिका, कनाडा, पूरे यूरोप सहित विश्व के तमाम हिस्सों में
ईसाई तरीके की जीवन शैली विकसित हुई, जो मनुष्य मात्र ने अपना ली है। भारत सहित एशिया
भी इससे मुक्त नहीं है। कोट-पतलून, टाई आदि सर्वप्रचलित पोषाक बन चुकी है।
भारत में जो धर्म सबसे
पहले विकसित हुआ, उसमें न पोषाक का जिक्र था और न ही आभूषणों का। वह धर्म प्रकृति का अनुसंधान करने के बाद निकाला गया निष्कर्ष
था, जिसमें प्रकृति का संपूर्ण अध्ययन शामिल है।
प्रकृति और सृष्टि,
इनके आधारभूत पंचतत्व, मनुष्य का स्वभाव और उसका प्रकृति
से संबंध, प्रत्येक जीवधारी को स्वमेव गतिमान रखने वाली आत्मा और पूरी सृष्टि का संचालन करने वाला परमात्मा, आत्मा का प्रकृति से संबंध, मनुष्य की प्रवृत्ति और उसको चलायमान
रखने वाले तत्व, जैसे इंद्रियां, मन, बुद्धि और चित्त। इन सभी का अलग-अलग विश्लेषण।
आत्मा का परमात्मा से संबंध स्थापित करने के लिए कई शारीरिक क्रियाएं, उनसे जुड़े काम,
क्रोध, लोभ, मोह, मद, माया, मत्सर, व्यसन आदि पर अनुसंधान। शरीर को पुष्ट करने के लिए
व्यायाम और आत्मा को परमात्मा से जोड़ने की प्रक्रिया के रूप में योग। इस तरह के तमाम
कार्य सतयुग में होते थे, जिससे एक स्वस्थ मानव समाज के निर्माण का रास्ता बनता था।
जीवधारी का क्या भोजन है। मनुष्य का भोजन कैसा होना चाहिए। मनुष्य के लिए क्या उचित
है और क्या अनुचित, इस पर मतभेद रहित विचार, ये सारी बातें सनातन धर्म से जुड़ी हुई
थी।
भारत में विकसित हुए
सनातन धर्म में ऐसी बातें बिलकुल नहीं है, जिनको इन दिनों हिंदुत्व से जोड़कर तरह-तरह
का प्रोपोगंडा फैलाया जा रहा है। महाभारत के समय भी यही सनातन धर्म था और रामायण काल
में भी यही सनातन धर्म था। यह जड़ धर्म नहीं था। इस पर अनुसंधान करने वाले कई ऋषियों
के बीच भारी मतभेद भी हो जाते थे। यह धर्म मनुष्य को प्रकृति
से जोड़ता था और मनुष्य के प्रकृति के साथ
संबंधों का अध्ययन और अनुसंधान करने वाले ऋषियों की अलग-अलग राय भी सामने आती थी। उस
समय तक भारत के लोग प्रकृति को सीधे चुनौती देने
के तरीके विकसित नहीं कर पाए थे। सारा कार्य मानवीय क्षमताओं के आधार पर होता था। योग
और तंत्र-मंत्र के माध्यम से मानवीय क्षमताएं इतनी विकसित हो चुकी थी कि एक ही ज्ञानी
व्यक्ति बहुत कुछ करने की क्षमता पा जाता था। यहां कोई वैज्ञानिक आविष्कार नहीं हुए,
पशुओं का और पहियों का इस्तेमाल अवश्य हुआ, लेकिन मोटर भारत में नहीं बनी। मोटर चलाने
के लिए पेट्रोल, डीजल जैसे ईंधन भी भारत में नहीं खोजे गए।
हिंदुत्व पर गर्व करने
वाले लोग इस बात से इनकार नहीं कर सकते कि त्रेतायुग में एक राजा दशरथ थे, जिनकी तीन
रानियां थीं। दशरथ की स्त्रियों के प्रति अत्यंत आसक्ति थी। उनकी प्रिय पत्नी कैकेयी
रूठ गई थी। उसको मनाने के लिए दशरथ ने अपने उत्तराधिकारी बड़े पुत्र राम को वनवास में
भेज दिया था, जबकि हाल ही सीता से उनका विवाह हुआ था। उनके साथ लक्ष्मण भी चले गए।
राम के साथ वनवास के दौरान क्या हुआ? वन में राम-लक्ष्मण ऋषियों के आश्रमों और वनवासियों
की बस्तियों को राक्षसों के उत्पात से बचाते थे। तेरह साल इस तरह गुजरे। एक बार रावण
की बहन शूर्पणखां प्रेम प्रस्ताव लेकर लक्ष्मण के सामने उपस्थित हो गई तो लक्ष्मण ने
उसकी नाक काट दी। इससे नाराज होकर रावण साधु का वेश बनाकर राम की पत्नी सीता का अपहरण
कर ले गया। उसके पास विमान था, जिससे वह लंका पार करके इधर आ जाता था। वह सीता को विमान
से लंका ले गया। राम-लक्ष्मण परेशान हुए। स्थानीय वनवासियों सुग्रीव आदि की सहायता
की और उनसे सहायता ली। सुग्रीव को राजपाट दिलवाने के लिए बाली को मारा। हनुमान, अंगद
आदि से परिचय हुआ और एक सेना बनी। हनुमान को जिम्मेदारी सौंपी गई कि वह लंका जाकर सीता
का पता लगाकर आए। हनुमान ने यह कार्य कर दिखाया। इस दौरान उन्होंने अद्भुद पराक्रम
किए। रावण के दरबार में उनकी पेशी हुई। उन्होंने लंका में ही आग लगा दी और वापस राम
के पास पहुंच गए।
राम को पता चल गया
कि सीता कहां है? तब उन्होंने रावण से युद्ध करने के बारे में सोचा और हनुमान, सुग्रीव,
अंगद, जांबवंत, नल, नील आदि उनके प्रमुख सेनाधिकारी बने। राम अपनी छोटी सी सेना के
साथ समुद्र तट के किनारे खड़े थे और सोच रहे थे कि समुद्र पार कैसे करें। रावण से कैसे
युद्ध करें। राम पर आए संकट की सूचना अन्य क्षत्रिय राजाओं तक पहुंच गई थी। उनसे राम
की सहायता करने का अनुरोध किया गया, सबने हाथ खड़े कर दिए। इनमें उनके ससुर और सीता
के पिता जनक भी शामिल थे, जो बड़े ज्ञानी और विदेह कहलाते थे। इसके बावजूद उस समय धरती
पर मौजूद प्रत्येक क्षत्रिय सहम उठा था कि रावण से युद्ध ही कल्पना से परे है। उसका
भाई कुंभकर्ण मनुष्यों का नाश्ता करता है। रावण ने कितने ही देवताओं को अपने वश में
कर रखा है। तमाम बातें थीं। क्षत्रिय डरे हुए थे। तब राम ने पुल बनवाया और लंका तक
सेना लेकर पहुंचे। रावण को मारा। रावण के भाई विभीषण को लंका का राजपाट सौंप दिया।
यह रामकथा है। राम के जमाने में मंदिर नहीं थे। महाभारत काल में भी नहीं थे। मंदिर
बनना कब शुरू हुआ, यह रिसर्च का विषय है।
शंकरजी के मंदिर सबसे
प्राचीन हैं। शिवलिंग की स्थापना राम ने भी की थी कृष्ण
ने भी। भारत में बारह ज्योतिर्लिंग हैं। कब से हैं पता नहीं। दक्षिण और पूर्वी भारत
में जो भव्य कलाकारी वाले मंदिर बने हैं, वे शिव के हैं। विष्णु के प्रमुख अवतार रहे
राम और कृष्ण के भी आराध्य रहे शिव का भक्त रावण
भी था और दुर्योधन भी महादेव में आस्था रखता था। हिंदुओं में कई तरह की ताकतें बताई
गई हैं। देव, दानव, नाग, गंधर्व, यक्ष आदि। ये सभी वरदान प्राप्त कर मानव जाति पर अत्याचार
करने लगते हैं तो विष्णु को स्थिति संभालनी पड़ती है। हिरण्यकश्यप को मारने के लिए
खंभा फाड़कर नरसिंह अवतार के रूप में प्रकट होना पड़ता है। राम के रूप में वे धरती
पर आते हैं, कभी कृष्ण बनकर आते हैं। इसके बाद
की कथाएं इस तरह है कि राजा जो होता है, वह विष्णु के अवतार जैसा होता है। पूरे देश
का कर्ता-धर्ता वही रहता है।
भारत में दुष्ट राजाओं
के गुणगान में ब्राह्मणों ने अपनी प्रतिभा का प्रचुरता से उपयोग कर समाज में अपनी हैसियत
और रुतबे को बहुत ऊंचा बना लिया है। अब पुरोहितों ने ईमानदारी से हिंदुओं के हित में
अपना दिमाग खर्च किया है या राजाओं, अधिकारियों को खुश रखने में, यह तो वही जानें,
लेकिन इससे भारतीयता का बहुत नुकसान हुआ है। गलत बातों का प्रचार समाज के स्वास्थ्य
को कितना नुकसान पहुंचाता है, इस बात पर तथाकथित ब्राह्मणों ने बिलकुल गौर नहीं किया।
अगर ऐसा होता तो आज हिंदुत्व को एक ब्रांड बनाकर उसका जो राजनीतिक उपयोग किया जा रहा
है, वैसा नहीं हो पाता। भारत में पुरोहितों और दुष्ट राजाओं की मिलीभगत से जो समाज
बना, वह दारुण अवस्था में पहुंच गया था। भारत में धर्म बुरी तरह बिखर गया था।
विदेशियों के हमले
और राजनीतिक पुनर्गठन
महाभारत के बाद पूरे
भारतीय उपमहाद्वीप का सामाजिक जीवन तहस-नहस होने के बाद उसे वापस पटरी पर लौटने में
एक-दो शताब्दियों का समय तो लगा ही होगा। उसके बाद जो समाज सनातन धर्म के नाम से बनने
लगा, वह कुरीतियों और पाखंड से भरपूर था। भौगोलिक आधार पर विभिन्न क्षेत्र अलग-अलग
रीति-रिवाजों में बंधे और अलग-अलग राजा हो गए। सभी कुछ न कुछ मतभेदों के साथ ही सनातन
धर्म का पालन करते थे। यह भारतीय भूभाग के लोगों की आश्चर्यजनक सांस्कृतिक एकता थी। ईसा पूर्व 300 के बाद सिकंदर की
सेना यूनान से भारत में शासन करने के लिए पहुंच चुकी थी और कई इलाके सिकंदर के अधिकार
क्षेत्र में आ गए थे। तब सनातन धर्मियों का पहली बार यूनानी संस्कृति से परिचय हुआ।
यूनानियों से भारतीय
संस्कृति को बचाने का लक्ष्य लेकर विष्णुगुप्त
नामक एक ब्राह्मण मगध पहुंचे। मगध के तत्कालीन सम्राट घनानंद ने उन्हें यह कहते हुए
अपमानित किया कि तुम एक पंडित हो, अपनी चोटी का ध्यान रखो, युद्ध करना राजा का काम
है। तब विष्णुगुप्त ने संकल्प लिया था कि वह घनानंद को सबक सिखाकर मानेंगे। इसके बाद
वह मगध में ही रहने लगे और बालक चंद्रगुप्त में शासन करने की योग्यता देखते हुए उसे
अपना शिष्य बना लिया। इसके बाद विष्णुगुप्त चाणक्य कहलाने लगे। चंद्रगुप्त ने चाणक्य
के मार्गदर्शन में पहले मगध में तख्ता पलट कर घनानंद की जगह शासन संभाला, इसके बाद
सिकंदर की सेनाओं से लोहा लेने की तैयारियां की।
चाणक्य ने गुप्तचरों
का जाल फैलाया और सिकंदर के क्षत्रपों के बारे में सूचना जुटाकर उन्हें एक-एक कर परास्त
किया। चंद्रगुप्त ने सिकंदर के सेनापति सेल्यूकस को ईसा पूर्व 305 के आसपास परास्त
किया था। इसके बाद एक संधि के तहत कंधार, काबुल, हेरात और बलूचिस्तान प्रदेशों पर चंद्रगुप्त
का अधिकार हो गया। चंद्रगुप्त ने सेल्यूकस की बेटी कर्नालिया से विवाह किया। जीवन के
उत्तरार्ध में चंद्रगुप्त संन्यासी हो गया था। उसके बाद बिंदुसार ने राज्य संभाला।
बिंदुसार के बाद सम्राट अशोक भारत के चक्रवर्ती सम्राट रहे। पूरे भारत में एक राजा
का शासन होने से आर्थिक एकीकरण भी हुआ और एक अर्थव्यस्था बनी। कलिंग युद्ध के बाद सम्राट
अशोक ने बौद्ध धर्म अपना लिया और इस तरह से राजकीय मदद से बौद्ध धर्म का विस्तार हुआ।
इससे पहले ईसा से करीब
छठवीं शताब्दी पूर्व सनातन धर्म में से ही विकसित हुए 62 संप्रदाय बन चुके थे। उस समय
तक इस्लाम और ईसाई धर्म का नामोनिशान नहीं था। मौर्य साम्राज्य करीब दो शताब्दी तक
चला, फिर बिखरने लगा। उसके बाद गुप्त राजवंश ने पूरे भारत को राजनीतिक रूप से एकजुट
किया। गुप्त वंश जाटों ने चलाया, ऐसा कहा जाता है। एक ऐतिहासिक श्लोक में कहा गया है
कि एक महान सम्राट जो मथुरा के जाट परिवार का था और जिसकी माता एक वैशाली राज्य की
राजकुमारी थी, वह मगध देश का सम्राट बना। यह भारत के इतिहास की किताब आर्य मंजूसरी
मूला कल्पा का श्लोक है, जो तिब्बती और संस्कृत
भाषाओं में ईसा पूर्व आठवीं सदी में रची गई थी। और यह श्लोक सम्राट समुद्रगुप्त से
संबंधित है।
समुद्रगुप्त असाधारण
सैन्य योग्यता रखने वाला शासक था। समुद्रगुप्त ने विशाल साम्राज्य स्थापित किया, जो
उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में विंध्य पर्वत तक तथा पूर्व में बंगाल की खाड़ी
से पश्चिम में पूर्वी मालवा तक फैला हुई था। कश्मीर, पश्चिमी पंजाब, पश्चिमी राजस्थान,
सिंध और गुजरात को छोड़कर पूरा उत्तर भारत समुद्रगुप्त के शासन के अधीन आ गया था। समुद्रगुप्त
के दो पुत्र थे, रामगुप्त और चंद्रगुप्त। पहले रामगुप्त ने फिर उसके छोटे भाई चंद्रगुप्त
ने शासन संभाला। चंद्रगुप्त द्वितीय के रूप में शासन संभालने के बाद वह विक्रमादित्य
कहलाया।
कथा है कि चंद्रगुप्त
ने अपने बड़े भाई रामगुप्त की हत्या करने के बाद शासन संभाला था और उसकी पत्नी से विवाह
कर लिया था। बाद में उसने कई अन्य राजवंशों से वैवाहिक संबंध जोड़े। विक्रमादित्य के
शासन काल में भारतवर्ष में कला और साहित्य का का अद्भुत विकास हुआ। उसके कार्यकाल में
कई विद्वान और कलाकार आश्रय प्राप्त करते थे और प्रतिष्ठित हुए थे, जिनमें कालिदास,
धन्वंतरी, क्षपणक, अमर सिंह, शंकु, बेताल भट्ट, घटकर्पर, वाराहमिहिर, वररुचि, आर्यभट्ट,
विशाखदत्त, शूद्रक, ब्रह्मगुप्त, विष्णुशर्मा, भास्कराचार्य आदि प्रमुख थे। ब्रह्मगुप्त
ने ब्रह्मसिद्धांत प्रतिपादित किया था, जिसे बाद में न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण के नाम
से प्रतिपादित किया।
चंद्रगुप्त विक्रमादित्य
के बाद इस वंश में कुमारगुप्त, स्कंदगुप्त ने चक्रवर्ती साम्राज्य पर शासन कायम रखा।
इसके बाद इसके बिखरने की शुरुआत हुई। इसके बाद पुरुगुप्त, कुमारगुप्त द्वितीय, बंधुगुप्त,
नरसिंहगुप्त बालादित्य, कुमारगुप्त तृतीय, दामोदरगुप्त, महासेन गुप्त, देवगुप्त, माधवगुप्त
ने गुप्त वंश का राजसिंहासन संभाला। ईसवी सन 550 में गुप्त वंश का पतन हो गया। इसके
बाद भारत में हूणों के हमले होने लगे थे। हूण कौन थे, इस पर विद्वानों के अलग-अलग विचार
हैं।
भारत में हूण वंश का
शासन
गुप्त वंश के साम्राज्य
का पतन होने के बाद कुछ समय भारत हूणों के अधिकार क्षेत्र में रहा। हूण खानाबदोश जाति
के थे। उन्हें बंजारा कहा जाता था। उपलब्ध इतिहास के अनुसार यह जाति चीन से सटे क्षेत्र
में निवास करती थी। बाद में यह दो भागों में बंटी। एक हिस्से के हूण वोल्गा के पूर्वी
क्षेत्र में जाकर बस गए और दूसरे हिस्से के हूणों ने ईरान पर हमला किया और वहां के
सासाणी साम्राज्य को अपदस्थ कर वहां शासन करने लगे। उन्होंने ईसवी सन 370 में यूरोप
में रोमन साम्राज्य को हटाकर हूण साम्राज्य खड़ा कर लिया था। ईसवी सन 483 में फारस
के बादशाह फीरोज को हूण राजा खुशनेवाज ने हराया। फीरोज की युद्ध में ही मौत हुई।
हूणों ने फीरोज के
उत्तराधिकारी कुबाद से दो वर्ष तक कर वसूल किया और इसी दौरान हूणों ने भारत में हमले
शुरू किए। यूरोप पर हमला करने वाले हूणों का नेता अट्टिला था। हूणों ने यूरोप के रोमन
साम्राज्य को ध्वस्त कर दिया था। भारत पर हमला करने वाले हूणों को श्वेत और यूरोप पर
हमला करने वाले अश्वेत हूण कहलाते थे। भारत पर हमला करने वाले हूणों के नेताओं में
तोरमाण और मिहिरकुल या मिहिर गुल शामिल थे। तोरमाण ने स्कंदगुप्त के शासन काल में भारत
पर हमला किया था। मिहिर गुल हूण राजवंश का सबसे प्रतापी सम्राट था और महान शिवभक्त
था। मिहिर गुल ने की अगुवाई में हूणों ने पूरे उत्तर भारत में गुप्त साम्राज्य की जड़ें
हिला दी थी। आज जिसे पाकिस्तान और अफगानिस्तान कहा जाता है, तब उस क्षेत्र में हूणों
ने गुर्जर साम्राज्य की स्थापना कर ली थी। मिहिर गुल ने कश्मीर को राजधानी बनाकर पंजाब,
अफगान, कश्मीर, बलूचिस्तान, राजस्थान आदि क्षेत्रों में अपना साम्राज्य कायम रखा।
गुर्जर राजाओं की उपाधियां
होती थीं, गुर्जराधिराज, गुर्जरेश्वर, गुर्जर नरेश आदि। गुर्जर प्रतिहार राजवंश हूण
गुर्जरों की ही एक शाखा है। उस समय भारत में बौद्ध और जैन धर्म फैलने लगे थे। गुर्जर
राजाओं के शासनकाल में पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में बौद्ध धर्म का विस्तार हुआ। मिहिरकुल
किसी कारण से बौद्धों से नाराज हो गया। तब उसने बौद्ध संतों को प्रताडि़त करने और हजारों
बौद्ध मठों को नष्ट करने का सिलसिला चलाया और फिर से सनातन धर्म की स्थापना में योगदान
दिया। गुर्जर राजाओं ने हजारों शिव मंदिरों का निर्माण करवाया। जैन धर्म और बौद्ध साहित्य
में मिहिरकुल को कल्कि का अवतार भी माना जाता है।
पांचवीं शताब्दी के
मध्य ईसवी सन 450 के आसपास हूण गांधार क्षेत्र के शासक थे। तब उन्होंने समस्त सिंधु
घाटी प्रदेश को जीत लिया था। कुछ ही समय बाद उन्होंने मारवाड़ और पश्चिमी राजस्थान
के इलाके भी जीत लिए थे। ईसवी सन 495 के आसपास हूणों ने तोरमाण की अगुवाई में गुप्तों
से पूर्वी मालवा छीन लिया था। एरण और सागर जिले में वराह की प्रतिमा पर तोरमाण के अभिलेख
से इसकी पुष्टि होती है। तोरमाण गुर्जर नेता था। जैन ग्रंध कुवयमाल के अनुसार तोरमाण
चंद्रभागा नदी के किनारे स्थित पवैय्या नगरी से भारत पर शासन करता था। यह पवैय्या ग्वालियर
के पास स्थित है। उस क्षेत्र में कई लोगों का उपनाम भी पवैया है। तोरमाण के बाद मिहिरकुल
हूणों का राजा बना। मिहिरकुल ने पंजाब में सियालकोट को अपनी राजधानी बनाया था। मिहिरकुल
के करीब सौ साल बाद चीनी यात्री व्हेन सांग 629 ईसवी में भारत आया। उसने अपने संस्मरण
में मिहिरकुल का जिक्र किया है।
गांधार में मिहिरकुल
के भाई ने बगावत कर उत्तर भारत का साम्राज्य हथिया लिया। गांधार से वंचित होने के बाद
मिहिरकुल ने कश्मीर में राज्य स्थापित कर लिया।
हाडा लोगों की बहुलता
के कारण राजस्थान में कोटा-बूंदी का इलाका हाड़ोती कहलाता है। राजस्थान का यह हाड़ोती
संभाग कभी हूण प्रदेश हुआ करता था। आज भी इस इलाके में हूणों के गोत्र के कई गुर्जर
बहुल गांव हैं। हूण साम्राज्य का पतन होने के बाद वह कई शाखाओं में बंट गया था। इनमें
से गुर्जर प्रतिहार प्रमुख हैं, जिन्होंने ज्यादातर क्षेत्रों पर शासन किया। गुर्जर
प्रतिहारों को तोमर कहा जाता था। गुर्जर प्रतिहारों ने हूणों की विरासत को ही आगे बढ़ाया।
उस समय मालवा और ग्वालियर क्षेत्र में विष्णु के वाराह अवतार की पूजा शुरू हुई। मध्य
प्रदेश के सागर जिले में स्थित एरण में वाराह की विशालकाय प्रतिमा स्थापित कराई गई
थी। यह भारत में प्राप्त वाराह की पहली प्रतिमा थी।
गुर्जरों की शाखाओं
में से एक चालुक्य वंश ने नर्मदा नही के पार दक्षिणी क्षेत्रों पर शासन किया। चालुक्यों
का निशान भी वाराह था। सिक्कों पर भी वाराह अंकित रहता था। चालुक्यों ने हूण नाम के
सिक्के भी चलवाए। गुर्जरों की एक अन्य शाखा ने गुजरात में शासन स्थापित किया। चालुक्य
वंश के लोग आज भी महाराष्ट् के डोरे गुर्जर और उत्तर प्रदेश के बरेली जिले में पाए
जाते हैं। इतिहासकारों ने पाश्चात्य साहित्यकारों ने चालुक्यों को हूण मूल का गुर्जर
माना है। गुर्जरों के एक अन्य राजवंश चौहान ने राजस्थान के अजमेर इलाके में शासन किया
था। इन्हें चेची गुर्जर कहा जाता था। हूणों की शाखा के रूप में विकसित तंवर वंश ने
दिल्ली में शासन किया। इन्हें तोमर भी कहा जाता है। इस वंश के कई लोगों का वर्चस्व
दिल्ली और उसके आसपास के इलाकों में आज भी बना हुआ है। आज भी महरौली क्षेत्र में
12 गांव तोमरों के हैं। तोमरों ने 1857 में अंग्रेजों के खिलाफ जबर्दस्त लड़ाई लड़ी
थी। इसकी शुरूआत मेरठ के कोतवाल (पुलिस प्रमुख) धन सिंह गुर्जर ने की थी। उन्होंने
12 दिनों तक मैटरलहाउस पर कब्जा कर ब्रिटिश सेनाओं के लिए सभी आपूर्ति काट दी थी और
दिल्ली की स्वतंत्रता की घोषणा कर दी थी।
हूण वंश के शासन के
बाद भारत में गुर्जरों की मौजूदगी
इतिहास की गुफाओं में
से गुजरने के बाद पता चलता है कि हम कहां से कहां तक पहुंचे। इतिहास एक सुरंग है, जिसके
माध्यम से वर्तमान का इतिहास से संबंध जुड़ता है। गुफाएं बहुत लंबी और अंतहीन हैं।
कई तरह के भ्रम और भूल भुलैयाएं हैं। सीधा रास्ता तब से बनता दिखाई देता है भाषा, लिपि,
लेखन, दस्तावेजीकरण आदि की शुरूआत हुई। तब तक समुद्रपारीय यातायात भी विकसित हो चला
था और नाविकगण जहाजों से समुद्र पार कर अन्य द्वीपों, देशों तक पहुंचने लगे थे। जो
इतिहास प्रामाणिक तौर पर उपलब्ध है, उससे संकेत मिलता है कि गुप्त वंश, मौर्य वंश के
पतन के बाद हूणों ने भारत में शासन किया। बाद में हूणों के वंश की कई शाखाएं बनीं और
गुर्जरों ने भारत के विभिन्न क्षेत्रों पर शासन किया।
गुर्जरों के एक प्राचीन
राजवंश ने गुजरात पर शासन किया था। चाप, चावड़ा, छावड़ा, चपराणा, चपोत्कट, चावड़ी,
छावड़ी गुजरात के राजवंश के नाम हैं। गुजरात में ईसवी 690 और 942 के दौरान गुर्जरों
का वर्चस्व रहा। ये लोग हैरतअंगेज तीरंदाजी से विश्व प्रसिद्ध हो चुके थे। मध्य प्रदेश
के चंबल संभाग में चपराणा और हूण गुर्जर पाग-पटल भाई के रूप में माने जाते थे। आठवीं
शताब्दी के प्रारंभ में गुर्जर प्रतिहार उज्जैन के शासन थे। नाग भट प्रथम ने उज्जैन
में गुर्जरों के इस नए राजवंश की नींव रखी थी। पंवारों का उदय भी हूण गुर्जरों की एक
शाखा के रूप में माना जाता है।
राजस्थान के कोटद्वार
में बडोली का एक शिवमंदिर पंवार वंश के हूण राजा ने बनवाया था। मालवा पर लंबे समय तक
हूणों की मजबूत पकड़ थी। पंवारों सहित गुर्जरों का प्रारंभिक इतिहार अरबुदा या आबू
क्षेत्र से जुड़ा हुआ है। राजस्थान में हूण गुर्जर मुख्य रूप से अलवर, भरतपुर, दौसा,
अजमेर, सवाई माधोपुर, टोंक, बूंदी, कोटा, चित्तौड़गढ़, भीलवाड़ा जिलों में पाए जाते
हैं। अलवर जिले के सात गांव हूण गुर्जरों के गांव कहलाते हैं। अलवर जिले की तहलसील
लक्ष्मणगढ़ में बांदका हूण गुर्जरों का प्रमुख गांव है। भरतपुर जिले में डीग के पास
महमदपुर गुर्जरों का गांव है। अधावली गांव में हूण गुर्जरों के कुछ परिवार रहते हैं।
भरतपुर जिले के बसावर क्षेत्र में इटामदा और महतोली हूण गुर्जरों के गांव हैं।
दौसा जिले में सिकंदरा
के पास पीपलकी हूण गुर्जरों का प्रसिद्ध गांव है। अजमेर जिले में नारेली, लवेरा, बासेली,
घोड़दा, भेरूखेड़ा हूण गुर्जरों के प्रमुख गांव हैं। टोंक जिले में सरोली, गांवड़ी,
कल्याणपुर, बसनपुरा, चांदरी माता और रंगविलास गांवों में हूण गुर्जरों का निवास है।
पूर्व मध्य काल में कोटा-बूंदी का क्षेत्र हूण प्रदेश कहलाता था। बूंदी क्षेत्र में
रामेश्वर महादेव, भीमलत और झर महादेव मंदिर हूणों के बनवाए गए प्रसिद्ध शिव मंदिर हैं।
कोटा में हूणराज ने शिव मंदिर बनवाया था। बूंदी जिले में राणीपुरा, नरसिंहपुरा, रामपुरा,
झरबालापुरा, सुसाडिया, नीम का खेड़ा, झाल आदि गुर्जरों के प्रसिद्ध गांव हैं। हिंडोली
में नेहडी, सहसपुरिया, टरडक्या, टहला, सलावलिया और खंडिरिया हूण गुर्जरों के गांव हैं।
कोटा जिले में रोजड़ी,
राजपुरा, पीतांबरपुरा हूण गुर्जरों के मुख्य गांव हैं। चित्तौड़गढ़ की बेगू तहसील में
पारसोली हूण गुर्जरों का प्रमुख गांव है। भीलवाड़ा जिले की जहाजपुर तहसील में टिटोदा,
बरोदा, मोतीपुरा, मोहनपुरा, गांगीथला और शाहपुरा तहसील में बच्छ खेड़ा हूण गुर्जरों
के गांव हैं। भीलवाड़ा की केकड़ी तहसील के गणेशपुरा गांव में हूण गुर्जर निवास करते
हैं। छठी सदी के पूर्वार्ध में मध्य प्रदेश के ग्वालियर क्षेत्र में हूणों का आधिपत्य
था। चंबल संभाग, ग्वालियर और उसके आसपास के जिलों के कई गांवों में हूण गुर्जरों की
बिखरी हुई आबादी है। मध्य प्रदेश में हूण गुर्जर भोपाल तक पाए जाते हैं। महाराष्ट्र
के दोड़े गुर्जरों में हूण गोत्र है। खानदेश गजेटियर के मुताबिक दोड़े गुर्जरों के
41 कुल हैं, जिनमें से एक अखिलगढ़ के हूण हैं।
हूण शासक तोरमाण ने
उत्तर पश्चिमी भारत में अपना शासन स्थापित किया था। तोरमाण के बेटे मिहिरकुला का शासन
ईसवी सन 502 से 542 के दौरान बताया जाता है। तब हूण गुर्जरों की राजधानी सकाला में
थी, जो अब आधुनिक पाकिस्तानी पंजाब के सियालकोट में है। मिहिरकुल ने सकाला-सियालकोट
से पूरे भारत पर शासन किया था। तेरहवी शताब्दी में लिखे गए कल्हण के ग्रंथ राजतरंगिणी
के अनुसार मिहिरकुला हूण ने श्रीलंका के राजा पर हमला कर उसे भी परास्त कर दिया था।
मिहिरकुला ने ग्वालियर और चित्तौड़ सहित कई किले बनवाए थे।
पंजाब में लोककथा है
कि राजा शालिवाहन और उनके बेटे रिसालू की भाटी वंश के थे। शालिवाहन ने सियालकोट शहर
को फिर से स्थापित किया और रावी-चिनाब नदियों के बीच फैले क्षेत्र पर शासन किया था।
सियालकोट क्षेत्र सोलहवीं शताब्दी में गुर्जरों का गढ़ था। बाबरनामा में लिखा है-
‘अगर कोई हिंदुस्तान में जाता है तो जाट और गुर्जर हमेशा पहाड़ी से अनगिनत भीड़ में
नीचे गिरते हैं। ये बदकिस्मत लोग बेहूदा जालिम हैं। पहले उनके कर्मों ने हमारी चिंता
नहीं की क्योंकि क्षेत्र एक दुश्मन का था। लेकिन उन्होंने वही बेहूदा काम किया जिसके
बाद हमने उस पर कब्जा कर लिया। जब हम सियालकोट पहुंचे, तो उन लोगों पर झपट्टा मारा,
जो शहर से हमारे शिविर की तरफ आ रहे थे। मेरे पास बुद्धिहीन सेना थी और उनमें से कुछ
को टुकड़ों में काटने का आदेश दिया।‘
फिलहाल सियालकोट पाकिस्तान
में पंजाब प्रांत के उत्तर-पूर्व में चेनाब नदी के पास कश्मीर की पहाडि़यों की तलहटी
में लाहौर से करीब 125 किलोमीटर दूर स्थित है और गुर्जर आबादी वाले क्षेत्रों से घिरा
हुआ है और उत्तर में जम्मू, उत्तर-पश्चिम में गुजरात, पश्चिम में गुजरांवाला और दक्षिण
में नरोवाल तक फैला हुआ है। सियालकोट में ही करीब 25 फीसदी गुर्जर आबादी है। पाश्चात्य
इतिहासकारों के मुताबिक भारत में इस्लाम के अनुयायी मुसलमान अरब देशों के व्यापारी
के रूप में आने लगे थे। मान्यता है कि भारत में राम वर्मा कुलशेखर के आदेश पर पहली
मस्जिद का निर्माण ईसवी सन 629 में केरल के कोलंगालूर में हुआ था।
मुस्लिम इतिहासकार
मलिक बिन देनार ने राम वर्मा कुलशेखर को भारत का पहला मुसलमान माना है। इसके बाद भारत
में धर्म परिवर्तन का सिलसिला शुरू हो चुका था और कई लोग मुसलमान बनने लगे थे। आठवी
शताब्दी ने मोहम्मद बिन कासिम की अरब सेना ने पहली बार सिंध प्रांत (फिलहाल पाकिस्तान
में) पर हमला कर वहां शासन स्थापित किया था और सिंध उमय्यद खलीफा का पूर्वी प्रांत
बन चुका था। दसवीं शताब्दी शुरू होने के चार-पांच दशकों के दौरान गजनी के महमूद ने
पंजाब को गजनविद साम्राज्य से जोड़ा और भारत में कई जगह हमले किए। बारहवीं शताब्दी
तक मुसलमान शासक दिल्ली में सल्तनत स्थापित करने की तैयारी करने लगे थे।
इतिहास खंगालने पर
स्पष्ट होता है कि जब भारत में मुसलमानों के हमले शुरू हुए, उस समय भारत के अधिकांश
हिस्सों पर हूण गुर्जरों का शासन था। भारत के ज्यादातर हिस्सों पर मुसलमानों का शासन
स्थापित होने के बाद हिंदू शब्द का चलन शुरू हुआ था। उसके कई वर्षों के बाद हिंदुत्व
शब्द अस्तित्व में आया। अब लोकतंत्र में हिंदुत्व के आधार पर राजनीति हो रही है। सभी
गैर मुसलमानों को हिंदुत्व के नाम पर राजनीतिक रूप से संगठित करने का प्रयास किया जा
रहा है। मुसलमानों के भारत में आगमन से पहले ही भारतीय लोग कई भागों में बंट चुके थे।
इससे पहले हूणों और शकों ने भी भारत पर हमले किए थे और बौद्ध धर्म के साथ ही जैन धर्म
का भी विस्तार हो चुका था।
भारत में इस्लाम का
आगमन
हिंदुत्व के बारे में
विचार करते समय मुसलमानों का जिक्र जरूरी है। ये कैसे भारत में आए और कैसे इन्होंने
सल्तनत कायम की। मुसलमानों के आने तक इतिहास का दस्तावेजीकरण शुरू हो चुका था, जिससे
आज भी उस समय की उल्लेखनीय घटनाएं तथ्यात्मक रूप से उपलब्ध हैं।
भारत में इस्लाम का
आगमन ईसवी सन 629 में हुआ था। इस समय भारत में 2011 की जनगणना के अनुसार मुसलमानों
की संख्या 17.2 करोड़ है जो कि देश की कुल जनसंख्या का 14.2 फीसदी है। भारत दुनिया
का तीसरा देश है, जहां इंडोनेशिया और पाकिस्तान के बाद मुसलमानों की आबादी सबसे ज्यादा
है। ज्यादातर मुसलमान भारतीय हैं, लेकिन कुछ बाहर के भी हैं, जिनमें फारस और मध्य एशिया
के मुसलमान शामिल हैं। मुसलमानों के भारत में आगमन के बाद ईसवी सन 711 में मोहिम्मद
बिन कासिम ने पहली बार पश्चिमोत्तर भारत पर हमला किया था और 712 में सिंध और मुल्तान
पर कब्जा कर लिया था। उसके बाद दाहिर इन दोनों प्रांतों का शासन बना। ईसवी सन 1001
से 1027 तक महमूद गजनवी ने 11 बार भारत में हमले किए। महमूद गजनवी के हमले का पहली
बार सामना करने वाला पंजाब का राजा जयपाल था। वैहिंद के पास गजनवी से युद्ध करते हुए
पराजित होने के बाद उसने आत्महत्या कर ली थी। गजनवी ने 1025-26 में 16वें हमले में
गुजरात के सोमनाथ मंदिर को लूटा था। उसने 17वां हमला 1027 में जाटों और खोखरों पर किया
था। 30 अप्रैल 1030 को सुल्तान महमूद गजनवी की मौत हो गई।
इसके बाद भारत के विभिन्न
इलाकों में मुसलमानों के हमलों का सिलसिला जारी रहा। ईसवी सन 1175 में मोहम्मद गोरी
ने पहली बार मुल्तान पर हमला किया। 1176 में उसने उच्छी के भट्टी-राजपूतों पर दूसरा
हमला किया। तीसरा हमला उसने 1178 में गुजरात के अन्हिलवाड़ा पर किया था, जिसमें उसे
तत्कालीन राजा मूलराज द्वितीय से पराजित होकर भागना पड़ा। 1191 में मोहम्मद गोरी ने
तराइन क्षेत्र में हमला किया, जिसमें उसे अजमेर के शाकंभरी वंश के शासक पृथ्वीराज चौहान
तृतीय से बुरी तरह पराजित होना पड़ा। इतिहास में इसे तराइन का पहला युद्ध कहा गया है।
तराइन का दूसरा युद्ध 1192 में हुआ, जिसमें पृथ्वीराज चौहान को मोहम्मद गोरी ने पराजित
कर दिया। उसके बाद उसने दिल्ली और अजमेर के आसपास के इलाकों पर कब्जा करते दिल्ली में
सल्तनत कायम करने का रास्ता मजबूत किया। 1194 में उसने कन्नौज के राजपूत राजा जयचंद
को चंदावर के युद्ध में परास्त कर दिया था। इसके बाद मोहम्मद गोरी के सैन्य जनरल कुतुबुद्दीन
एबक ने गुजरात, सिरोही, कोटा, बूंदी, उज्जैन और कलिंजर पर कब्जा कर लिया। गोरी के एक
अन्य सैन्य जनरल बख्तियार खिलजी ने पूर्वी भारत पर हमले किए और बिहार की तत्कालीन राजधानी
ओदंतपुरी के साथ ही नालंदा और विक्रमशिला विश्वविद्यालयों को नष्ट कर दिया। 1199 में
बख्तियार खिलजी ने लक्ष्मण सेन को हरा कर बंगाल पर कब्जा कर लिया। 15 मार्च 1206 को
गोर लौटते समय मोहम्मद गोरी को रास्ते में खोखरों ने मार दिया था।
मोहम्मद गोरी को दिल्ली
में मुस्लिम सल्तनत की स्थापना के लिए जिम्मेदार माना जाता है। दिल्ली सल्तनत पर ईसवी
सन 1206 से लेकर 1526 तक करीब 300 वर्षों के दौरान दिल्ली सल्तनत पर पांच राजवंशों
ने शासन किया। ये थे गुलाम राजवंश (1206-90), खिलजी राजवंश (1290-1320), तुगलक राजवंश
(1320-1413), सईद राजवंश (1414-51) और लोदी राजवंश (1451-1526)। कुतुबुद्दीन एबक ने
गुलाम राजवंश की स्थापना की थी। गुलाम वंश का शासन खत्म होने के बाद 1590 में जलालुद्दीन
खिलजी ने सल्तनत संभाली। जलालुद्दीन खिलजी को उसी के भतीजे अलाउद्दीन ने मार डाला और
1296 में खुद सुल्तान बन बैठा। इसके बाद उसने खिलजी राजवंश का चौतरफा विस्तार किया।
उसने कई लड़ाइयां लड़ी और गुजरात, रणथंभौर, चित्तौड़, मालवा और दक्षिण के राजाओं को
परास्त किया। उसने मुस्लिम सल्तनत का दायरा दक्षिण भारत तक पहुंचा दिया था। उसके
20 वर्ष के शासनकाल में कई बार मंगोलों ने हमले ने किए, लेकिन उन्हें हर बार मुंह की
खानी पड़ी।
ईसवी सन 1316 में अलाउद्दीन
खिलजी की मौत होने के बाद गयासुद्दीन तुगलक ने सल्तनत संभाली और उसने 1320 से तुगलक
राजवंश का शासन स्थापित किया। अलाउद्दीन खिलजी के शासनकाल में वह पंजाब का राज्यपाल
था। गयासुद्दीन तुगलक ने सुल्तान बनने के बाद वारंगल जीता और बंगाल में बगावत की। गयासुद्दीन
के बाद उसका पुत्र मोहम्मद बिन तुगलक सुल्तान बना और उसने सल्तनत का दायरा मध्य एशिया
तक बढ़ाया। तुगलक के शासनकाल में भी मंगोलों ने हमले किए थे, लेकिन फिर हार गए। मोहम्मद
बिन तुगलक ने अपनी राजधानी को दिल्ली से हटाकर दक्षिण में देवगिरी में स्थापित कर लिया
था। दो साल बाद राजधानी फिर दिल्ली लाई गई। 1351 में मोहम्मद बिन तुगलक की मौत हुई।
उसका चचेरा भाई फिरोज तुगलक सुल्तान बना। उसने शांति से शासन किया। 1338 में फिरोज
तुगलक की मौत के बाद तुगलक राजवंश ढलान के रास्ते पर आ गया। 1398 में तैमूर लंग ने
दिल्ली पर हमला कर दिया था। तैमूर लंग के हमले के बाद तत्कालीन सुल्तान महमूद तुगलक
गुजरात भाग गया था। लड़ाई खत्म होने के बाद वह दिल्ली लौटा और फिर उसने कुछ वर्षों
तक कई लोगों की कठपुतली बनकर शासन किया। इसके बाद तुगलक साम्राज्य का अंत हुआ। तुगलक
राजवंश का अस्तित्व 1412 तक बना हुआ था।
तुगलक राजवंश के बाद
1414 से 1451 तक सैयद वंश का शासन रहा। तुर्क राजवंश से जुड़े सैयदों ने तैमूर के प्रतिनिधि
के रूप में सल्तनत संभाली थी। सैयदों के बाद 1451 से 1526 तक लोदी राजवंश की सल्तनत
रही। अफगान जनजाति का बहलुल खान लोदी दिल्ली की सल्तनत संभालने वाला पहला पश्तून था।
बहलुल खान के बाद उसके बेटे निजाम खान ने सल्तनत संभाली और खुद को सिकंदर लोदी के नाम
से मशहूर किया। सिकंदर लोदी ने कई हिंदू मंदिर नष्ट किए। मथुरा और उसके आसपास का क्षेत्र
खास तौर से उसके निशाने पर रहता था। वह अपनी राजधानी दिल्ली से आगरा ले गया था।
1517 में सिकंदर लोदी की कुदरती मौत के बाद उसका पुत्र इब्राहिम लोदी सुल्तान बना।
उसने अपने बड़े भाई जलाल खान की हत्या की। जलाल खान की मौत के बाद पंजाब का सूबेदार
दौलत खान लोदी मुगल बाबर के पास पहुंच गया और उसको दिल्ली सल्तनत पर हमला करने के लिए
उकसाया। 1526 में बाबर ने पानीपत की लड़ाई में इब्राहिम लोदी को मार दिया और उसके बाद
मुगल सल्तनत का शासन स्थापित हुआ। (बाकी अगली किस्त में)
मुगल साम्राज्य
भारत में मुगल साम्राज्य
की शुरूआत 1526 में बाबर से होती है, जब उसने पानीपत की लड़ाई में इब्राहिम लोदी को
हरा दिया था। वह तैमूर राजवंश का राजकुमार था और सबसे पहले उसने सिंधु नदी की घाटी
पर अपना शासन स्थापित किया था। तब बाबर ने पहली बार युद्ध में तोपों का इस्तेमाल किया
था। अपने नए राज्य को सुरक्षित करने के लिए उसे खानवा के युद्ध में चित्तौड़ के राणा
सांगा का मुकाबला करना पड़ा। राणा सांगा की छोटी सी सेना ने बाबर की विशाल सेना को
हरा दिया था और बाबर को राणा सांगा से संधि करनी पड़ी थी। 1530 में बाबर का बेटा नसीरुद्दीन
मोहम्मद हुमायूं उत्तराधिकारी बना लेकिन वह पख्तून राजा शेरशाह सूरी के रहते अपने राज्य
का विस्तार नहीं कर पाया। 1540 में हुमायूं निर्वासित शासक बना, हालांकि भारत में कुछ
किले और थोड़ा-बहुत क्षेत्र हुमायूं के अधिकार क्षेत्र में थे।
शेरशाह सूरी के निधन
के बाद 1555 में हुमायूं फिर सेना जुटाकर भारत पहुंचा और उसने दिल्ली पर कब्जा कर लिया।
हुमायूं के बेटे का नाम जलालुद्दीन था, जो बाद में अकबर नाम से प्रसिद्ध हुआ। अकबर
को 14 फरवरी 1556 को दिल्ली की सल्तनत के लिए सिकंदर शाह सूरी के खिलाफ युद्ध के दौरान
हुमायूं का उत्तराधिकारी नियुक्त किया गया था। अकबर ने 21-22 वर्ष की उम्र में अपनी
18वीं जीत हासिल की थी। जल्दी ही वह भारतीय वातावरण को समझने लगा था, इसलिए अपने साम्राज्य
को सुरक्षित बनाए रखने के लिए उसने धार्मिक सहिष्णुता की नीति अपनाई। उसने राजपूतों
से संबंध जोड़ा। एक राजपूत राजकुमारी जोधाबाई से विवाह किया और अपनी सेना में हिंदू
अधिकारियों के नियुक्त किया।
इस तरह अकबर ने मुगल
साम्राज्य को मजबूत किया। 1556 से 1605 के दौरान अकबर के शासन का विस्तार हुआ और उसको
काफी मजबूती मिली। 1605 से 1627 के दौरान अकबर के पुत्र नूरुद्दीन मोहम्मद जहांगीर
ने मुगल सल्तनत की कमान संभाली। जहांगीर के बारे में कहा जाता है कि वह पक्का शराबी
हो गया था और उसकी पत्नी नूरजहां पर्दे के पीछे से शासन संभालती थी। जहांगीर के बाद
शहाबुद्दीन मोहम्मद शाहजहां बादशाह बना। इससे पहले वह खुर्रम नाम से जाना जाता था।
शाहजहां को एक विशाल साम्राज्य विरासत में मिला था। उस समय विश्व में शायद यह सबसे
बड़ा साम्राज्य था। इसी दौरान शाहजहां ने अपनी पत्नी मुमताज महल के निधन के बाद उसकी
याद में 1630 से 1653 के दौरान आगरा में ताजमहल का निर्माण करवाया था, जहांगीर की मजार
बनवाई थी और लाहौर में शालिमार बाग का निर्माण करवाया था। मुमताज महल की मौत अपने
14वें बच्चे को जन्म देते समय हुई थी।
ईसवी सन 1700 तक मुगल
साम्राज्य का विस्तार चरम सीमा तक पहुंच चुका था। शाहजहां के बाद औरंगजेब बादशाह बना
था। औरंगजेब ने सल्तनत पर कब्जा करने के लिए अपने पिता शाहजहां को पद से हटाकर कैद
कर लिया था। वह अकबर की धार्मिक सहिष्णुता की नीतियों को कायम नहीं रख सका और उसने
भारत पर इस्लामी शरीया कानून थोपने की कोशिश की। दक्षिण भारत में अपने शासन का दायरा
बढ़ाने का प्रयास किया, जिसमें उसने बहुत संसाधन झोंक दिए। तब महाराष्ट्र में छत्रपति
शिवाजी ने औरंगजेब से लोहा लिया था और उनकी छापामार युद्ध तकनीक से औरंगजेब की सेनाएं
परेशान रहती थीं।
औरंगजेब की नीतियों
का मराठाओं, पंजाब के सिखों और हिंदू राजपूतों ने जमकर विरोध किया जिससे मुगल साम्राज्य
की नींव हिलने लगी थी। हिंदुओं को प्रताडि़त करने की उसकी नीतियों के कारण उसके दुश्मन
भी बहुत हो गए थे। तीन मार्च 1707 को औरंगजेब के निधन के बाद बहादुर शाह जफर प्रथम
उर्फ शाह आलम प्रथम बादशाह बना। वह फरवरी 1712 में अपने निधन तक बादशाह रहा। उसके बाद
करीब एक साल जहांदर शाह ने सल्तनत संभाली। उसके बाद फर्रूखसियर बादशाह बना। उसने अंग्रेजी
ईस्ट इंडिया कंपनी को बंगाल में शुल्क मुक्त व्यापार करने का फरमान जारी कर किया और
इस तरह अंग्रेजों के भारत में प्रवेश का रास्ता बना। फर्रूखसियर के छह साल बाद रफी
उल-दर्जात कुछ माह सल्तनत का प्रभारी रह पाया, उसके बाद रफी उद-दौलत उर्फ शाहजहां द्वितीय
बादशाह बना। कुछ ही महीनों में उसकी भी मौत हो गई और फिर निकुसियर बादशाह बना। उसने
भी 1719 में कुछ समय सल्तनत संभाली। इसके बाद कुछ समय मोहम्मद इब्राहिम बादशाह बना
रहा।
शाहजहां द्वितीय, निकुसियर
और इब्राहिम के बादशाह रहते मुगल सल्तनत पर मोहम्मद शाह का दबदबा बना रहा। शाहजहां
द्वितीय की मौत के बाद 1719-1720 में निकुसियर और इब्राहिम को तख्त से हटाकर उसने खुद
ने सल्तनत संभाल ली थी। वह 1748 तक बादशाह बना रहा। 1739 में मोहम्मद शाह के शासन काल
में ही पर्शिया के क्रूर हमलावर नादिर शाह ने दिल्ली पर हमला किया था। 1748 से
1754 तक अहमद शाह बहादुर ने सल्तनत संभाली। उसके बाद 1754 से 1759 तक आलमगीर द्वितीय
बादशाह रहा। फिर कुछ महीने शाहजहां तृतीय के तख्त संभालने के बाद 1759 में शाह आलम
द्वितीय ने सल्तनत संभाली और 1806 तक बादशाह रहा। उसी के शासनकाल में 1761 में अहमद
शाह अब्दाली ने दिल्ली पर हमला किया था। उसी के शासनकाल में बंगाल, बिहार और उड़ीसा
में ईस्ट इंडिया कंपनी को अधिकार सौंपे गए। 1803 में उसने ईस्ट इंडिया कंपनी की अधीनता
स्वीकार कर ली थी। 1806 में शाह आलम द्वितीय के निधन के बाद अकबर शाह द्वितीय 1806
से 1837 तक अंग्रेजों के अधीन दिल्ली की मुगल सल्तनत का बादशाह बना रहा। उसके बाद
1937 में बहादुर शाह जफर द्वितीय ने तख्त संभाला। 1857 में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह
भड़कने के बाद ब्रिटिश सल्तनत ने उसे तख्त से हटाकर बर्मा भेज दिया और खुद ने भारत
का शासन संभाल लिया।
यह भारत में मुगल सल्तनत
के बारे में संक्षिप्त विवरण है। मौर्य वंश, गुप्त वंश, शक, हूण आदि के शासनकाल से
गुजरते हुए इस देश में ईसवी सन 600 के बाद इस्लाम का प्रवेश हुआ। इस्लाम के अनुयायियों
को भी इस धर्म प्रधान देश में फैलने, पसरने के लिए पर्याप्त जगह मिली। ईसवी सन
1206 से लेकर 1526 तक करीब 300 वर्षों के दौरान दिल्ली सल्तनत पर पांच मुसलमान राजवंशों
गुलाम (1206-90), खिलजी (1290-1320), तुगलक (1320-1413), सईद (1414-51) और लोदी
(1451-1526) राजवंश शासन कर चुके थे। इसके बाद 1526 में तुर्की से आए तैमूर वंशीय बाबर
ने यहां शासन करना शुरू किया तो मुगल वंश का शासन तीन सदी बाद तक चला।
मुगल शासन को अंग्रेजों
ने अपनी कूटनीति से यहां के राजाओं, जमीदारों, नवाबों की कमजोरियों के आधार पर उन्हें
अपने बुद्धिबल से दबाव में लेते हुए दीमक की तरह इस देश में समाज के भीतर सेंध लगाई।
इसका नतीजा सामने है। अंग्रेज 1857 से 1947 तक दो शताब्दियों के दौरान इस देश का तिया-पांचा
करके देश को खूंखार नफरत से भरे माहौल में दो टुकड़े करने के बाद ब्रिटिश मार्गदर्शन
में लोकतांत्रिक शासन का रास्ता बनाकर चले गए हैं। इस घटना के 72 साल गुजरने के बाद
देखिए देश कहां आ पहुंचा है? निश्चित तौर पर इस देश में राजनीतिक चेतना का विकास उसी
तरह करने की जरूरत है, जैसी गांधीजी के समय थी, जब भारत के लोग अंग्रेज सरकार को उखाड़
फेंकने के जुनून से भरे हुए थे। अब हमें अपना भला बुरा सोचते हुए राजनीतिक रूप से जागरूक
होने की जरूरत है।
उथल-पुथल के बीच हिंदुत्व
की विचारधारा का प्रवाह
हम हिंदुत्व पर विचार
कर रहे हैं। इसका उद्देश्य क्या है? स्वामी विवेकानंद ने भी हिंदुत्व का उद्घोष किया
था। हिंदू धर्म को सनातन धर्म के समतुल्य बताते हुए विश्व के धर्म गुरुओं के सामने
साबित किया था कि आध्यात्मिक ज्ञान में भारत किसी भी अन्य देश से पीछे नहीं है। उन्होंने
11 सितंबर 1893 में अमेरिका के शिकागो में आयोजित विश्व धर्म सम्मेलन में जो भाषण दिया
था, वह आज भी न केवल हिंदू धर्म के संदर्भ में उल्लेखनीय है, बल्कि विश्व में उसे याद
किया जाता है। उन्होंने प्रतिपादित किया था कि वेदांत दर्शन के आधार पर सनातन धर्म
का उद्भव हुआ है और सारे सनातन धर्मी हिंदू हैं। उस समय पाकिस्तान, बांग्लादेश नहीं
बने थे और न ही इनके अलग देश बनने की कोई कल्पना थी।
समझा जा सकता है कि
विवेकानंद ने भारत भूमि के समाज की विभिन्न राजाओं के शासन में रहते हुए भी धार्मिक
विचारधारा के आधार पर एकजुटता की बात कही थी। इससे आगे चलकर नए भारत को एकजुट करने
में भी बहुत सहायता मिली। इस देश में धार्मिक आधार पर वाद-विवाद बहुत होते रहे हैं।
वाद-विवाद का सिलसिला यहां तक पहुंचा हुआ था कि कालांतर में जैन और बौद्ध नाम से दो
नए धर्म अस्तित्व में आ गए और उन्होंने धर्म की अपनी अलग शाखा का विस्तार किया। सनातन
धर्म इतना श्रेष्ठ और महत्वपूर्ण होने के बावजूद बड़ी संख्या में लोग अन्य धर्मों की
तरफ क्यों झुके? इस सवाल के जवाब खोजना कई लोगों के लिए बहुत तकलीफ भरा है। सनातन धर्म
का कभी प्रचार नहीं हुआ। इसके अलावा बाकी जितने भी धर्म हैं, उनका सबका प्रचार करने
में उस धर्म के अनुयायियों ने बहुत तन, मन, धन खर्च किया है। जो उन धर्मों के साधु-संन्यासी
बन गए, उन्होंने तो अपना जीवन ही समर्पित कर दिया है।
सनातन धर्म के अनुयायियों
के लिए मनु स्मृति के आधार पर जिस समाज की रचना की गई, उसमें ब्राह्मणों और राजपूतों
के निजी स्वार्थ का समावेश अधिक था। बाद में मनु स्मृति में उल्लेखित ज्ञान में भी
लाभ-हानि और सुविधा के आधार पर फेरबदल कर दिया गया, जिससे धार्मिक आस्था भी सवालों
के घेरे में आ गई। खास तौर से स्त्रियों के मामले में उनका आचरण और व्यवहार भेदभाव
से भरा हुआ था। कई राजा कामुक होते थे। राजवंशों से आश्रय प्राप्त कर उनकी तारीफ में
जुटे रहने वाले ब्राह्मण भी काम वासना से मुक्त नहीं थे। उस समय नीची जाति के लोगों
की स्त्रियों की इज्जत खतरे में बनी रहती थी। हम समझ सकते हैं कि इसी प्रकोप से बचने
के लिए कई लोगों ने अन्य धर्मों में शरण ली। अपने अन्य समाज गठित किए। दूसरी बात यह
कि पूजा-पाठ, कर्मकांड, तंत्र-मंत्र आदि का भी समाज में जमकर प्रचार रहा है, चाहे वह
हिंदू हों, बौद्ध हों या जैन हों। ये सारी बातें अंधविश्वास है, सिर्फ इतना कहने मात्र
से यह बात खत्म नहीं होती है।
देश में इतने राजा
और इतने राजवंश हो चुके हैं कि उनके वंशजों से पूरा भारत भरा-पड़ा है। जितने भी राजपूत
नामधारी हैं, वे सभी किसी न किसी राजवंश से जुड़े हुए हैं। इसी तरह ब्राह्मण हैं। भारत
भूमि में उपस्थित जितने ब्राह्मण है, किसी न किसी महान ऋषि से अपना वंश बताते हैं।
वेदों में वर्णित जितने भी ऋषि हैं, सभी के वंश से ब्राह्मणों की उत्पत्ति है। इन दोनों
जातियों के अलावा बाकी अन्य जातियों को इतने नीचे स्थान पर रख दिया गया है कि बाकी
सभी हिंदू जातिवाद के आधार पर जबरदस्ती की हीन भावना के शिकार बने रहते हैं। एक तरफ
हम कहते हैं सर्वे बंधु सुखिनः, सर्वे संतु निरामया, वसुधैव कुटुंबकम आदि। दूसरी तरह
सामाजिक व्यवहार में जातिगत आधार पर भयंकर भेदभाव दिखता है, जबकि आजकल कई लोग पढ़-लिख
गए हैं, ब्राह्मणों से भी ज्यादा योग्य हो गए हैं। ऐसे में सदियों पुरानी जातीय श्रेष्ठता
की डुगडुगी बजाते रहना ठीक नहीं है। लेकिन ऐसा हो रहा है तो इसके परिणाम भी सामने आ
रहे हैं।
ऐसी बात नहीं है कि
सनातन धर्म एकदम से गया गुजरा है। यहां आत्मा-परमात्मा, आध्यात्म, मनुष्य का जीवन आदि
पर जो अनुसंधान हुआ है और जो ज्ञान भारत के पास है, उसे पूरी दुनिया चमत्कार ही मानती
है। सनातन धर्म कई बार खतरे में पड़ा तो उसके उद्धार के लिए अनेक साधु, संन्यासी, संत
सामने आए। जब बौद्ध धर्म की मिथ्या धारणाओं का प्रचार ज्यादा होने लगा था, उस समय आदि
शंकराचार्य सामने आए थे। शंकराचार्य का जन्म ईसा पूर्व 508 में केरल के कालपी या काषल
गांव में हुआ था। तीन वर्ष में उनका देहांत हो गया। छह वर्ष की उम्र में वह प्रकांड
पंडित हो गए थे और आठ वर्ष की उम्र में उन्होंने संन्यास ले लिया था। उनका पूरा जीवन
वैदिक धर्म को फिर से जीवित करने के प्रति समर्पित रहा। केदारनाथ के पास ईसा पूर्व
475 में 32 वर्ष की अल्प आयु में उनका देहांत हो गया।
शंकराचार्य ने चार
पीठ स्थापित की थी, ज्योतिष्पीठ बदरिकाश्रम, श्रृंगेरी पीठ, द्वारिका शारदा पीठ और
पुरी गोवर्धन पीठ। शंकराचार्य बाद में शंकर के अवतार माने गए और इसी लिए उनका नाम शंकराचार्य
पड़ा। उन्होंने ब्रह्मसूत्रों की बड़ी ही विशद और रोचक व्याख्या की है। इसके अलावा
उन्होंने ईश, केन, कठ, प्रश्न, मंडूक, मांडूक्य, ऐतरेय, तैत्तिरीय, बृहदाकण्यक और छांदोग्योपनिषद
पर भाष्य लिखा। उन्होंने वेदों में लिखे ज्ञान को एकमात्र ईश्वर को संबोधित बताया और
उसका पूरे भारत में प्रचार किया। वह जीवन भर चार्वाक, जैन और बौद्ध मतों को शास्त्रार्थ
के माध्यम से निरस्त करने में लगे रहे और इसमें उन्हें सफलता भी मिली। शंकराचार्य के
विचार आत्मा और परमात्मा की एकता पर आधारित है। उनके अनुसार परमात्मा एक ही समय में
सगुण और निर्गुण दोनों ही स्वरूपों में रहता है।
शंकराचार्य ने वेदों
की व्याख्या करते हुए सनातन धर्म का महत्व प्रतिपादित किया था। उनके जीवन काल में जैन
और बौद्ध धर्म का काफी विस्तार हो चुका था। जैन धर्म का साहित्य ही इतना विशाल हो चुका
है कि वह हिंदुओं के सनातन धर्म के समानांतर ही है और हिंदुओं के समस्त देवी-देवताओं
पर प्रश्न चिन्ह लगाते हुए सिर्फ अपने ही तीर्थंकरों की ओर से श्रमण परंपरा के माध्यम
से प्रवर्तित बताया जाता है। जैनियों के 24 तीर्थंकर बताए गए हैं, जिनमें से महावीर
चौबीसवें और अंतिम तीर्थंकर हैं। पहले तीर्थंकर ऋषभदेव थे। हालांकि यह बात भी उतनी
ही सही है कि जैन धर्म का उद्भव महावीर के बाद से शुरू होने के ऐतिहासिक तथ्य हैं।
इसके बाद इस सीमा तक जैन साहित्य रचा गया है कि सनातन धर्मियों से जुड़ी रामायण और
महाभारत की कथाएं भी प्रकारांतर से जैन साहित्य में जैन धर्म के अंतर्गत दर्ज कर ली
गई हैं। अब जैन साहित्य सही है या सनातन धर्म से जुड़ा हिंदू साहित्य सही है, इसका
निर्णय कौन कर सकता है?
जैन धर्म की मान्यता
है कि भगवान से कण-कण स्वतंत्र है। इस सृष्टि का या किसी जीव का कोई कर्ताधर्ता नहीं
है। सभी जीव अपने कर्मों का फल भोगते हैं। जैन दर्शन के भगवान न कर्ता हैं और न ही
भोक्ता। जैन दर्शन में सृष्टिकर्ता को कोई स्थान नहीं दिया गया है। जैन धर्म में विभिन्न
देवी-देवताओं की आराधना का विशेष महत्व नहीं है। जिन्हें जिनदेव, जिनेन्द्र या भीतराग
भगवान कहा जाता है, उनकी ही आराधना का विशेष महत्व है। इन्हीं तीर्थंकरों का अनुसरण
कर आत्मबोध, ज्ञान और तन-मन पर विजय पाने का प्रयास किया जाता है। सनातन धर्मी हिंदुओं
की यह मान्यता नहीं है। उनकी धार्मिक आस्थाएं अलग हैं, जो ब्रह्मा, विष्णु, महेश, दुर्गा,
लक्ष्मी, सरस्वती और अन्य देवी-देवताओं से जुड़ी हुई हैं और उनके आधार पर भी हिंदू
कई भागों में, कई जातियों में बंटे हुए हैं।
यही कारण है कि कई
लोग, जो जैन या बौद्ध बन गए हैं, वे भी सनातन धर्म से ही निकले हुए लोग हैं, लेकिन
उनकी अलग विचारधाराएं बन गई हैं। व्यापार कर्म में जुटे कई लोग बड़ी संख्या में जैन
बन गए हैं। ज्यादातर नीची जातियों में बौद्ध धर्म में जाने का रुझान पाया जाता है।
ऐसा क्यों हुआ? इसके कारणों की पड़ताल करना कोई नहीं चाहता। यह सामाजिक उथल-पुथल से
जुड़ा हुआ मामला है। वर्ना कोई भी अपना धर्म क्यों बदलना चाहता है? एक अलग धार्मिक
संगठन बनाने की जरूरत तब पड़ती है, जब सुरक्षा की चिंता हो या आजीविका का प्रश्न सामने
हो। कम से कम भारत में सनातन धर्म से अलग होकर जो अलग-अलग धर्म सामने आए हैं, उसके
पीछे भी ये कारण ही सामने आएंगे। बौद्ध और जैन धर्म का विस्तार होने से पहले भी सनातन
धर्म के अनुयायी कई भागों में बंटे हुए थे, इसमें कोई मतभेद नहीं है।
उपलब्ध इतिहास और सामाजिक
चरित्र
इस देश में कैसे क्या
हुआ, पूरा इतिहास उपलब्ध है और उस पर तरह-तरह के शास्त्रार्थ होते रहते हैं। किस सन
में किस राजा का शासन रहा। कौन चक्रवर्ती रहा। किसका राजवंश कब तक चला। उसके बाद किस
राजवंश ने शासन किया। मौर्य वंश, गुप्त वंश, हूण वंश, शक आदि के बाद मुसलमानों के अलग-अलग
वंश। फिर मुगल वंश। उसके बाद दो साल तक अंग्रेजों का शासन। यह पूरा घटनाक्रम करीब डेढ़
हजार साल का है और यही काल विश्व में आधुनिक वैज्ञानिक विकास का भी है। इस दौरान भारत
का में क्या हुआ? कई राजाओं में आपस में लड़ाई होती रही। कत्लेआम, लाशों के ढेर, महिलाओं
का अपहरण आदि। इस माहौल में हमारा देश कहां से कहां पहुंचा? अब पूरी स्थिति सामने है।
कभी वैष्णव मतावलंबियों और शिव के मतावलंबियों के बीच झगड़ा होता रहा। कभी विदेशी हमलावरों
से भारत के राजा जूझते रहे। इस लड़ाई-झगड़े के बीच जो समाज का स्वरूप रहा, वह बड़ा
विचित्र हो गया। आम जनता के पास जैसे-तैसे जिंदगी गुजारने के अलावा और कोई उपाय नहीं
था। धर्म के प्रति उनकी आस्था बनी हुई थी। वह भी तमाम कथाओं और भजन-पूजन के रूप में।
इधर राजा युद्ध लड़ते रहे। जगह-जगह लोग देवी-देवताओं के भजन गाते हुए जीवन व्यतीत करते
रहे।
चरित्र का हिसाब पूरी
तरह बिगड़ा हुआ था, जिससे सबसे ज्यादा तकलीफ महिलाओं को हुई। महिलाओं के व्यक्तित्व
का विकास ही नहीं हो पाया। खेती-किसानी, समाज का रहन सहन, जीविकोपार्जन के साधन, फसलों
का उत्पादन और विक्रय, त्योहार मनाने की परंपरा आदि इत्यादि सामाजिक व्यवहार कैसा था,
इसका उल्लेख इतिहास में ज्यादा नहीं है। बिटविन द लाइन (पंक्तियों के बीच) जो चीजें
समझ में आती हैं, उससे यही अनुमान लगाया जा सकता है कि सामाजिक ढांचा तहस-नहस था और
महिलाएं सबसे ज्यादा असुरक्षित थीं। कब किसको घर की कोई सुंदर महिला पसंद आ जाए और
वह उसे हासिल करने के लिेए क्या कर बैठे, इसका कोई हिसाब-किताब नहीं था। कोई कानून-कायदे
नहीं थे। लोगों का जीवन असुरक्षित था और खास तौर से महिलाओं की इज्जत का कोई भरोसा
नहीं होता था।
जब भी एक राजा दूसरे
राज्य पर चढ़ाई करता था तो सैनिकों के निशाने पर महिलाएं विशेष रूप से होती थीं। इसी
परेशानी में लोग बड़े बेचैन रहते थे और सुरक्षा के लिए वे अन्य धर्म में शरण लेने लगे
थे। अगर भारत में बौद्ध धर्म और जैन धर्म का इस कदर विस्तार हुआ है तो इसका कारण यह
भी है। हमलावरों के निशाने पर यहां के शिक्षा केंद्र रहे, यहां के विश्वविद्यालय रहे।
यहां का सामाजिक जीवन उनके निशाने पर रहा। पिछले डेढ़ हजार साल में भारत में बहुत उथल-पुथल
हुई। इसका विस्तार से वर्णन करने लगें तो वह कई जन्मों में भी संभव नहीं है। यहां के
लोगों ने किस तरह जीवट के साथ जूझते हुए खुद को संभाले रखा है और आज भी अगर मुस्कुराते
हुए गर्व से भरे हुए दिखते हैं तो उसके पीछे उनका स्वाभिमान और आत्मविश्वास ही है।
भारत के लोगों ने हर तरह के जितने हमले सहन किए हैं, उतने अन्य किसी भी देश के लोगों
ने सहन नहीं किए। यह भी भारत की एक खासियत ही है।
भारत में बुद्ध हुए,
महावीर हुए और इन दोनों महात्माओं के उपदेशों से नया धर्म बन गया। उन धर्मों का इतिहास
भी इस तरह रचा गया कि आज समझना मुश्किल है कि किसकी बात सही है। बौद्धों की, जैनों
की, सनातन धर्मी हिंदुओं की या किसी अन्य मतावलंबी की। पश्चिम का वैज्ञानिक ज्ञान तर्क
के आधार पर है। पूर्व का ज्ञान आस्था और विश्वास के आधार पर है। यह दुनिया आज जहां
पहुंची हुई है, उसमें जितना पश्चिम का योगदान है, उतना ही पूर्व का भी है। इनमें भारत
प्रमुख है। वेदों का ज्ञान तो यहीं से आया और दुनियाभर में फैला। बाद में वेदों के
आधार पर ही अगर कई संप्रदाय बन गए तो यह अलग बात है। जड़ एक ही है। तना भी एक ही है।
बाकी जो अन्य धर्म हैं, वे सब शाखाएं मात्र हैं। इसे कई महात्माओं ने अपने योग आधारित
ज्ञान से साबित भी किया है।
शंकराचार्य हुए, रामकृष्ण परमहंस हुए, गुरुनानक हुए, महर्षि अरविंद हुए,
स्वामी दयानंद सरस्वती हुए और भी कई महात्मा हुए, जिन्होंने समय-समय पर आत्मज्ञान का
प्रकाश फैलाया। अब जिन ऋषियों ने वेदों की रचना की थी, उनके नाम से ब्राह्मणों के वंश
ही रह गए हैं, जो अपनी वंशानुगत श्रेष्ठता के आधार पर अभी भी समाज को अपने हिसाब से
चलाने का प्रयास करते रहते हैं। उन्हें स्वयं वेदों का कितना ज्ञान है, शायद वे भी
नहीं जानते हैं। समय गुजरने के साथ ही वास्तविक ज्ञान और अंधविश्वास से परिपूर्ण कर्मकांडों
का आपस में इतना घालमेल कर दिया गया है कि ज्यादातर लोग भ्रमित ही रहते हैं कि क्या
सही है और क्या गलत।
किसी भी देश की, उसके
समाज की तरक्की के लिए एक स्थायित्व की स्थिति आवश्यक है। अगर शासन में स्थिरता रहती
है तो कई विकास कार्य संभव हो पाते हैं, लेकिन शासन ही स्थिर नहीं है और राजाओं का
ज्यादातर समय एक-दूसरे से लड़ने में खर्च होता है तो विकास कार्य कैसे हो सकते हैं?
भारत में स्थिर शासन की आधारशिला महाभारत के बाद पहली बार चाणक्य के दिमाग से रखी गई,
जब चंद्रगुप्त मौर्य ने अपने शासन का चौतरफा विस्तार किया। मौर्य वंश, गुप्त वंश, हूण
वंश आदि के शासन काल में तमाम मंदिर बने। किले बने। सामाजिक संरचनाएं बनीं। भारत का
सांस्कृतिक विकास हुआ। नृत्य, गायन आदि कलाओं का विकास
हुआ। लेकिन इसके बाद कलिंग युद्ध में नरसंहार देखकर सम्राट अशोक ने जब धर्म
ही बदल दिया, बौद्ध धर्म अपना लिया, बौद्ध धर्म के विस्तार के लिए राजकीय सहायता का
क्रम शुरू हुआ तो इससे पूरी दुनिया में ठीक संदेश नहीं पहुंचा। बौद्ध के साथ ही जैन
धर्म का विस्तार होने लगा था, जो अहिंसा पर आधारित था।
समझा जा सकता है कि
दुनिया में जब खबर पहुंची होगी कि भारत के ज्यादातर लोग अहिंसा का पालन करने करने लगे
हैं तो उन्होंने भारत पर हमले शुरू कर दिए। और वे हमले इस कदर हुए कि एक के बाद एक।
भारतवर्ष में विदेशियों के हमलों की शुरूआत यूनानी योद्धाओं ने की थी, जब सिकंदर भारत
में राज करने आ पहुंचा था। तब चाणक्य ने पूरे देश के एकीकरण की दिशा में प्रयास किए
थे। उसके बाद हूणों के हमले हुए। मुसलमान आ गए। मुगल वंश का देश पर कब्जा हो गया। इस
बीच समुद्री यातायात शुरू हो जाने के बाद पुर्तगाली आए। उन्होंने गोवा और मुंबई के
इलाकों पर कब्जा किया। कुछ इलाकों पर फ्रांसीसियों का भी कब्जा रहा। अंग्रेजों ने पूरे
देश को दो सौ साल तक अपने कब्जे में रखा।
कभी ये सरकार, कभी
वो सरकार, कभी इसका शासन, कभी उसका शासन। इस तरह भारतीयों के जीवन में कई बदलाव हुए।
विदेशियों के भारत में आने से यहां के रोजमर्रा के व्यवहार में कई नई चीजें जुड़ीं।
जैसे आलू, टमाटर जैसी सब्जियां विदेशियों के साथ भारत में आ गईं। जिस चीनी को हम आज
इस्तेमाल करते हैं, उसका आविष्कार पुर्तगालियों ने किया था। जो चाय आज भारत के सभी
लोगों का नियमित पेय बन गई है, उसका चलन अंग्रेजों ने शुरू किया था। शुरू में पुराने
परंपरावादी लोगों ने इसका विरोध भी किया, लेकिन वह टिक नहीं पाया और लोगों के जीवन
में चाय ने अनिवार्य रूप से अपना स्थान बना लिया। बेकरी उत्पादों का चलन भारत में विदेशियों
ने शुरू किया था। आज बिस्किट, डबलरोटी आदि से किसी को परहेज नहीं है।
भारत में मुसलमान राज
करते रहे। इस दौरान बौद्ध धर्म भारत से निर्वासित हो गया, लेकिन जैन धर्म का अद्भुत
विस्तार हुआ। अब वह अपनी पूरी परंपरागत व्यवस्था, लिखित, रचित पुराणों के आधार पर एक
स्थायी धर्म का स्वरूप ले चुका है और जिस तरह का रहन-सहन और जीवन शैली जैनियों ने अपना
रखी है, उसमें कोई भी जैन पहली नजर में देखने पर बिलकुल हिंदू की तरह ही दिखता है।
जैन धर्म के अलावा और कोई धर्म ऐसा नहीं है, जो हिंदुओं के बीच में इस-तरह घुला मिला
हो।
इसी तरह भारत के त्योहार
हैं। होली, दीवाली, नवरात्रि जैसे त्योहार पंचांग की तिथियों के आधार पर मनाए जाते
हैं, लेकिन वे क्यों मनाए जाते हैं, इसको लेकर अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग परंपरागत
कथाएं हैं। दीपावली का त्योहार लक्ष्मी पूजा का त्योहार है। कुछ धर्मावलंबी इसे राम
के रावण को मारने के बाद अयोध्या लौटने के उपलक्ष्य में मनाते हैं। जैनी इस त्योहार
को महावीर भगवान के निर्वाण दिवस के रूप में मनाते हैं। शारदीय नवरात्र का त्योहार
बंगाल में सबसे बड़ा त्योहार है। वह इस उपलक्ष्य में मनाया जाता है कि इस मौके पर पार्वती
दुर्गा अपने ससुराल से अपने पुत्रों गणेश और कार्तिकेय के साथ मायके आती है। नवरात्र
के बाद उन्हें विदा किया जाता है। इसी परंपरा में दुर्गा की प्रतिमाएं स्थापित की जाती
हैं और नवमी के बाद उनका विसर्जन किया जाता है। यह बंगाल का सबसे बड़ा दुर्गा पूजा
का त्योहार है। इस दौरान उत्तर भारत में रामलीलाओं का आयोजन होता है। इसी दौरान जैनियों
के अलग त्योहार होते हैं।
इसी तरह गणेशोत्सव
है। इसकी शुरूआत कभी लोकमान्य तिलक ने धार्मिक आधार पर अंग्रेजों के शासन का विरोध
करने के लिए की थी। अब यह त्योहार महाराष्ट्र का सबसे बड़ा त्योहार है। भाद्रपद शुक्ल
चतुर्थी से अनंत चतुर्दशी तक मनाया जाने वाला यह त्योहार इन्हीं दिनों में जैनी लोग
अपनी परंपरा और मान्यता के अनुसार अलग-अलग नाम से मनाते हैं। इस तरह देश का धार्मिक
वातावरण बहुत ही गड्ड-मड्ड है। कुछ भी स्पष्ट नहीं है। सवालों के ढेर हैं। जवाब देने
वालों की कमी नहीं है। दुराग्रहों और पूर्वाग्रहों की भरमार है। ऐसे में हिंदुत्व के
नाम पर एक राजनीतिक ताकत बनाने की परिकल्पना एक सीमा तक तो लाभ पहुंचा सकती है, लेकिन
उससे क्या भारत का हित हो सकता है?
दीपावली हिंदुओं का
सबसे बड़ा त्योहार
हिंदुत्व पर शारदीय
नवरात्र से प्रारंभ हिंदुत्व की विवेचना धारावाहिक रूप से जारी है। इसी क्रम में
27 अक्टूबर 2019 को कार्तिक की अमावस्या को दीपावली का त्योहार है। यह हिंदुओं का प्रमुख
त्योहार है और विश्व में जहां कहीं भी, कोई भी हिंदू उपस्थित है, वह इस त्योहार को
याद करता है और संभव होने पर यह त्योहार मनाता है। भले ही यह त्योहार किसी भी कारण
से मनाया जाता हो। दीपावली मनाने को लेकर अलग-अलग क्षेत्रों में कई पौराणिक कथाएं हैं,
जिनके आधार पर यह त्योहार मनाया जाता है।
उत्तर भारत में दीपावली
का त्योहार रामकथा पर आधारित है। उस समय राम रावण को मारकर लंका पर विजय प्राप्त करने
के बाद अयोध्या लौटे थे। कुछ हिंदुओं की मान्यता है कि इस दिन पांडवों का 12 वर्ष का
वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास समाप्त हुआ था। कई हिंदू दीपावली को भगवान विष्णु की
पत्नी लक्ष्मी से जुड़ा मानते हैं। दीपावली का पांच दिवसीय महोत्सव देवताओं और असुरों
के सागरमंथन से जन्मी लक्ष्मी के जन्म दिवस से शुरू होता है। समुद्र मंथन के फलस्वरूप
लक्ष्मी और धन्वंतरी का जन्म हुआ था। दीपावली की रात को लक्ष्मी ने पति के रूप में
विष्णु को चुना था और उनसे विवाह किया था। कुछ हिंदू दीपावली को विष्णु की वैकुण्ठ
में वापसी के रूप में मनाते हैं। पूर्वी भारत के ओडिशा और पश्चिम बंगाल में हिंदू लक्ष्मी
की जगह काली की पूजा करते हैं और इस त्योहार को काली पूजा कहते हैं। मथुरा और उत्तर
मध्य क्षेत्रों में इसे भगवान कृष्ण से जुड़ा त्योहार
मानते हैं। इस दिन भगवान कृष्ण ने नरकासुर का वध किया था। एक पौराणिक कथा यह भी है
कि इसी दिन विष्णु ने नरसिंह रूप धारण कर हिरण्यकश्यप का वध किया था।
सिखों
के लिए दीपावली इसलिए महत्वपूर्ण है कि इसी दिन अमृतसर में 1577 में स्वर्ण मंदिर का
शिलान्यास हुआ था। ईसवी सन 1619 में दीपावली के दिन सिखों के छठे गुरु हरगोविंद सिंहजी
को जहांगीर की जेल से रिहा किया गया था। जैनियों के अनुसार इस दिन चौबीसवें जैन तीर्थंकर
भगवान महावीर को मोक्ष की प्राप्ति हुई थी। आर्य समाजियों के लिए दीपावली का महत्व
इसलिए है कि इस दिन स्वामी दयानंद सरस्वती का अजमेर के पास देहांत हुआ था। पंजाब में
जन्मे स्वामी रामतीर्थ ने इसी दिन समाधि ली थी। बौद्धों के लिए दीपावली का महत्व यह
है कि इस दिन बौद्ध धर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध 17 वर्ष बाद अनुयायियों के साथ अपने गृह नगर कपिल वस्तु लौटे थे। तब उनके स्वागत में लाखों दीप जलाकर दीपावली मनाई थी। साथ ही महात्मा बुद्ध ने 'अप्पों दीपो भव' का उपदेश दिया था।
दीपावली
हिंदुओं के लिए अलग-अलग कारणों से एक अद्भुत पर्व है। हम यह भी कह सकते हैं कि यह पर्वों
का समूह है। नवरात्र के बाद दशहरा संपन्न होने के बाद ही दीपावली की तैयारियां शुरू
हो जाती हैं। दीपावली से दो दिन पहले धनतेरस का त्योहार आता है, जिसमें अनिवार्य रूप
से कुछ न कुछ खरीदारी होती है। इसके अगले दिन नरक चतुर्दशी, रूप चतुर्दशी या छोटी दीपावली
होती है। इस दिन यम की पूजा होती है। अगले दिन अमावस्या को दीपावली का त्योहार होता
है। इसके अगले दिन गोवर्धन पूजा का त्योहार होता है। इस दिन भगवान कृष्ण ने ब्रज के
लोगों को इंद्र के कोप से बचाने के लिए गोवर्धन पर्वत को अपनी उंगली पर उठा लिया था।
इसकी याद में बैलों को सजाया जाता है और गोबर का छोटा सा पर्वत बनाकर उसकी पूजा की
जाती है। इसके अगले दिन भाई दूज का त्योहार होता है, जिसे यम द्वितीया भी कहते हैं।
दीपावली के दूसरे दिन व्यापारी अपने पुराने बहीखाते बदल देते हैं। वे दूकानों पर लक्ष्मी पूजन करते हैं। उनका मानना है कि ऐसा करने से धन की देवी लक्ष्मी की उन पर विशेष अनुकंपा रहेगी। कृषक वर्ग के लिये इस पर्व का विशेष महत्व है। खरीफ
की फसल पक कर तैयार हो जाने से कृषकों के खलिहान समृद्ध हो जाते हैं। किसान यह अपनी समृद्धि का यह पर्व उल्लासपूर्वक मनाते हैं।
नेपाल
में काठमांडो सहित सभी शहरों में दीपावरी का त्योहार पांच दिनों तक मनाया जाता है।
परंपरा भारत जैसी ही है, लेकिन थोड़ी अलग है। नेपाली लोग दीपावली का पर्व शुरू होने
पर पहले दिन कौवे को, दूसरे दिन कुत्ते को भोजन कराते हैं। तीसरे दिन लक्ष्मी पूजा
होती है। इसी दिन से नेपाल संवत शुरू होता है। चौथा दिन नेपाल के नए साल के रूप में
मनाया जाता है। इस दिन महापूजा होती है। पांचवे दिन भाई टीका का पर्व होता है, जिसमें
बहनें भाइयों का तिलक करती हैं। दीपावली का त्योहार भारत तक ही सीमित नहीं है, बल्कि
संसार के चप्पे-चप्पे में यह महापर्व धूमधाम से मनाया जाता है। सिंगापुर में दीपावली
के दिन सरकारी छुट्टी होती है। कई कार्यक्रम होते हैं। श्रीलंका, म्यांमार, थाईलैंड,
मलेशिया, सिंगापुर, इंडोनेशिया, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, फिजी, मारिशस, केन्या, तंजानिया,
दक्षिण अफ्रीका, गुयाना, सूरीनाम, त्रिनिदाद और टोबैगो, नीदरलैंड्स, कनाडा, ब्रिटेन,
अमेरिका आदि देशों में दीपावली की रात अच्छी धूमधाम रहती है।
भारतीयों
का का विश्वास है कि सत्य की सदा जीत होती है झूठ का नाश होता है। उपनिषद के वाक्य हैं असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय।
सत्य से असत्य की ओर, अंधकार से प्रकाश की ओर। दीपावली के त्योहार का संदेश यही है।
इस त्योहार का धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व है। यह हिंदुओं की धार्मिक परंपरा का प्रतीक
सर्वोच्च महत्व का त्योहार है। इसे कभी किसी तरह की राजनीति से नहीं जोड़ा गया है।
मुगल काल में भी बाबर, हुमायूं, अकबर, शाहजहां आदि के शासनकाल में भी दीपावली का त्योहार
परंपरागत उत्साह से ही मनाया जाता था। मुगलकालीन किताब तुजुक-ए-जहांगीर के मुताबिक
सन 1613 से लेकर 1626 तक जहांगीर ने अजमेर में दीपावली मनाई। मुगल शहंशाह ही नहीं,
बंगाल और अवध के नवाब भी शाही अंदाज में दीपावली मनाते थे।
इस तरह दीपावली का त्योहार सर्वमान्य रूप से हिंदुओं का सबसे बड़ा
त्योहार है और इसको लेकर आज तक किसी तरह का राजनीतिक भेदभाव नहीं देखा गया। कभी किसी
भी सम्राट, राजा, बादशाह या नवाब ने कभी भी किसी को दीपावली मनाने से नहीं रोका। उल्टे
वे भी इस त्योहार में शामिल होने लगे। इस तरह दीपावली का त्योहार सनातन धर्मी हिंदुओं
की आस्था का सबसे बड़ा प्रमाण भी है। हिंदुओं में वैचारिक आधार पर भले ही कितने ही
भेदभाव हों, लेकिन सभी हिंदू दीपावली का त्योहार समान रूप से उत्साहपूर्वक मनाते हैं।
हिंदू, हिंदुत्व और भारतीय राजनीति
हिंदू, हिंदुत्व और भारतीय राजनीति। ये तीन अलग-अलग धाराएं हैं।
धर्म को इस देश में राजनीति से अलग ही रखा गया है। लेकिन बाद में पूरे भारत को एकजुट
करने के लिए चाणक्य ने हिंदू रीतिनीति का आश्रय लेकर शासन की रीति-नीति तय करने में
महत्वपूर्ण सलाहकार की भूमिका निभाई थी। वह स्वयं कभी राजा नहीं बने। लेकिन कालांतर
में चक्रवर्ती शासन बिखरने लगा और आम जनता को राजनीति से दूर रहने के लिेए विवश रखा
गया। उस समय भारतीय समाज इस कदर रीति-रिवाजों में उलझा हुआ था कि रीति-रिवाजों का पालन
करने के चक्कर में किसी के पास और कुछ सोचने का अवकाश ही नहीं रहता था। पंचांग के आधार
पर अलग-अलग क्षेत्रों के ब्राह्मण वहां के राजाओं के मार्गदर्शन में तय कर गए हैं कि
किस माह की किस तिथि के दिन क्या पर्व होना चाहिए, उसके हिसाब से पूरे समाज की दिन
शैली तय करने का प्रयास किया गया। वह प्रयास बाद में रूढि़यों के रूप में आज हमारे
सामने है।
हर त्योहार पंचांग की किसी न किसी विशेष तिथि से जुड़ा हुआ है। पंचांग
की रचना अद्भुत ज्ञान संपन्न विद्वान ऋषियों ने की है, जिसके आधार पर सूर्य, चंद्र,
मंगल, बुध, गुरु, शुक्र शनि और राहु-केतु की गति के आधार पर जो कालगणना हुई है, वह
भारत में ही संभव हो पाया है और इस तथ्य का खंडन करने के लिए कोई भी तर्क-वितर्क किसी
भी धर्मावलंबी के पास नहीं है। पंचांग का ज्ञान और ज्योतिष का ज्ञान ब्राह्मणों को
रहा है, इसमें भी कोई मतभेद नहीं हो सकता। बड़े-बड़े राजा ज्योतिषियों से सलाह लिया
करते थे। राजा ज्योतिषियों की सलाह से नीतियां तय करते थे। ब्राह्मणों की अपनी चालाकी
होती थी और राजाओं के अपने स्वार्थ, जिससे राजा महान से महान बनते चले गए और ब्राह्मण
बुद्धिमान से बुद्धिमान घोषित होते रहे।
हर राजा का काल उस जमाने का स्वर्णिम इतिहास है और वहां का राजा
राजाधिराज, महाराजाधिराज। राजा का चरित्र भले ही दो कौड़ी का रहा हो, उसके ब्राह्मण
सलाहकार उसे महान ही बताते थे। किसी भी काल का इतिहास देख लीजिए। सभी राजा महान थे।
प्रजा का भला चाहने वाले थे। यहां तक कि भारत पर हमला करने वाले भी महान थे। हुमायूं
भी, बाबर भी, अकबर भी, जहांगीर भी, शाहजहां भी, सभी महान थे। इसी तरह जितने धर्म इस
धरती पर पैदा हुए या बाहर से आए, वे भी सब महान हैं, श्रेष्ठ हैं, सर्वश्रेष्ठ हैं।
समरथ को नहिं दोष गुसाईं। महानता का इतना बड़ा गट्ठर लादे हुए हम भारतीयों के साथ फिर
ऐसी कौनसी गड़बड़ हो गई कि आज सब कुछ न कुछ सीखकर रोबोट की तरह काम करते दिखाई देते
हैं। आज पूरी दुनिया में भारतीयों से ज्यादा कोई कार्यकुशल व्यक्ति मिल सकता है क्या?
कोई सा भी कर्म हो, व्यापार, इंजीनियरिंग, तकनीकी मजदूरी, हम्माली, सेवा कार्य आदि
इत्यादि, भारतीयों की मौजूदगी करीब-करीब हर आधुनिक देश में है। फिर भारत खुद ऐसा क्यों
है?
आज आधुनिक लोकतंत्र है। देश के स्वतंत्र होने के बाद जो राजनीति
धर्म निरपेक्षता पर आधारित थी, वह अब हिंदुत्व आधारित हो रही है। लेकिन यह हिंदुत्व
आधारित राजनीति सिर्फ सत्ता हासिल करने तक सीमित है। इससे आगे का रास्ता क्या है? दीपावली
भी हिंदुत्व के आधार पर ही मनाई जाती है। अगर किसी से पूछा जाए कि दीपावली क्यों मना
रहे हो, तो वह क्या जवाब देगा? यही कि वह हिंदू है या यह हिंदुओं का सबसे बड़ा त्योहार
है। इस त्योहार के बारे में तमाम खोजबीन करने से पता चलता है कि इस त्योहार पर कभी
कोई लड़ाई-झगड़े नहीं हुए। युद्ध भी अगर होते थे तो दीपावली के मौके पर थम जाते थे।
तमाम राजा और उनके सैनिक युद्धकर्म रोककर अपने-अपने घरों में दीपावली मनाने के लिए
पहुंच जाते थे। प्रजा के अन्य लोग भी अपनी जीविका से संबंधित कार्य रोककर दीपावली पर
सद्भावना के मोड में आ जाते थे। इसी लिए कहावत बनी है, सदा दिवाली संत की, बारह मास
बसंत। अर्थात दीपावली के त्योहार पर सभी हिंदुओं की जो मनोदशा होती है, वही मनोदशा
संत की हर समय रहती है। इसका अत्यंत गूढ़ अर्थ है, जो ज्यादा लोग नहीं समझते हैं। हालांकि
अन्य धर्मावलंबियों के भी प्रेम और भाईचारे का संदेश देने वाले अद्भुत त्योहार होते
हैं, जैसे मुसलमानों में ईद और ईसाइयों में क्रिसमस। ये त्योहार भी दीपावली की तरह
ही मनाए जाते हैं। तरीके-तरीके अलग-अलग हो सकते हैं। मनोदशा एक जैसी होती है। उमंग
और उल्लास से परिपूर्ण। त्योहारों पर रोजमर्रा के लड़ाई-झगड़े स्थगित हो जाते हैं।
जो धर्म भारत में विकसित हुए, जैसे बौद्ध, जैन और सिख, उनका सबसे
बड़ा त्योहार दीपावली ही है। धार्मिक मान्यताएं और परंपराएं, धर्मशास्त्र अलग-अलग होने
के बावजूद दीपावली सभी का सबसे बड़ा त्योहार है। त्योहार से जुड़ी कथाएं अलग-अलग हैं,
लेकिन तिथि एक ही है, कार्तिक अमावस्या। जैनियों का अलग धर्म बन गया। अलग धर्मग्रंथ
बन गए। एक अलग दर्शन बन गया। धर्म में अहिंसा भी जुड़ गई। अलग पंचांग भी बन गया और
उसके आधार पर अलग संवत की घोषणा भी हो गई। लेकिन पंचांग की रचना सबसे पहले तो किसी
न किसी ऋषि ने की थी, और जितने भी पंचांग बने हैं, सभी की तिथि गणना प्रकारांतर से
समान ही है। यह गणना इस तरह सटीक होती है कि एक लाख वर्ष बाद किस माह और तिथि में कितने
समय तक चंद्र ग्रहण या सूर्य ग्रहण होगा, उसका एकदम सही समय बताना संभव है। यह सब वैज्ञानिक
विकास के पहले की बात है।
अब समस्या यह है कि पंचांग जैसी चीज बना लेने के बाद भारतीयों को
ऐसा क्या वैराग्य हो गया जो इस भूमि पर वैज्ञानिक विकास नहीं हो पाया। यहां न मोटर
बनी और न ही पेट्रोल, डीजल जैसे ईंधन की खोज हुई। यहां लड़ाई-झगड़े बहुत होते थे। युद्ध
भी बहुत हुए, लेकिन बारूद का इस्तेमाल करके बंदूक और तोप बनाने का विचार किसी के मन
में नहीं आया। तोप भी भारत में सबसे पहले बाबर ही लेकर आया था। यहां के जन समुदाय को
इस कदर साधनहीन रखा गया कि जहां एक से एक शानदार मंदिर और किले बने, वहीं जन साधारण
के लिए सुविधाओं से युक्त बस्तियां विकसित नहीं हो पाईं। कामवासना का शमन करने के लिए
इस कदर शास्त्र रचा गया और तरह-तरह की दवाइयां खोजी गई कि इस दिशा में इतना काम और
किसी भी देश में नहीं हुआ। यहां वात्स्यायन जैसे ऋषि भी हुए, जिन्होंने कामसूत्र की
रचना की और जिससे आज करोड़ों लोग लाभान्वित हो रहे हैं। कामसूत्र नामक एक कंडोम ने
अच्छा खासा कारोबार कर जमा रखा है।
समुद्र पार करके पहली बार पुर्तगाली आए, फ्रांसीसी आए, अंग्रेज आए।
अंग्रेजों ने यहां अपनी एक अलग भाषा चला दी और उसे भौतिक विकास से जोड़ दिया। जिसको
भारत में सहूलियत से जीवन बिताना है, उसे अंग्रेजी सीखना जरूरी है। शुरू में ईसाइयों
की मिशनरी पद्धति से अंग्रेजी पाठ्यक्रम के स्कूल खुले। धीरे-धीरे उसी तरह के स्कूल
सरकार ने भी पूरे देश में खोले और भारतीयों से जुड़े ज्ञान को अंग्रेजों की ओर से प्रवर्तित
शिक्षा प्रणाली से अलग रखा गया। इस तरह शिक्षा की धारा अलग हो गई, धर्म की धारा अलग
हो गई और वह विभिन्न कर्मकांडों, रीति-रिवाजों के आधार पर घरों में जीवित रही।
आज जो भी तरक्की किए हुए लोग हैं, वे अंग्रेजों की तरफ से विकसित
शिक्षा प्रणाली से पढ़े हुए हैं और उनका दिमाग दो तरह का है। घरों में, परिवार में,
बेटे-बेटियों के लिए संबंध तय करने में उनकी पारंपरिक मान्यताएं अलग हैं, जिन्हें वे
धार्मिक मान्यताएं भी समझते हैं। वे हिंदू भी हो सकते हैं, मुसलमान भी और ईसाई भी।
सीताराम येचुरी वामपंथी विचारक के रूप में तरह-तरह की बातें कर सकते हैं, लेकिन अपने
नाम सीताराम के उद्गम से वह पीछा नहीं छुड़ा सकते हैं। इसी तरह जगन मोहन राजशेखर रेड्डी
भले ही ईसाई हों और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री बन गए हों, लेकिन उनका नाम तो जगन
मोहन और पिता का नाम राजशेखर ही है। इस तरह के कई उदाहरण हैं। हिंदू समाज के जातीय
आतंक से त्रस्त होकर, इस्लामी हमलावरों के आतंक में आकर, ईसाइयों के सामुदायिक कार्यों
से प्रभावित होकर और प्रलोभन में आकर कई लोगों ने धर्म बदला है। लेकिन इस तरह ठप्पा
बदलने से क्या मनुष्य बदल जाता है? मनुष्य का डीएनए वही रहता है। हिंदुत्व पर विचार
करते समय ये सारी बातें अपने आप दिमाग में आ जाती हैं।
हिंदुत्व की मौजूदा स्थिति
आज हिंदुत्व किस स्थिति में है और राजनीतिक कारणों से किस दशा में
पहुंचने वाला है, इस पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। अब दुनिया सिर्फ धर्म और
अध्यात्म से नहीं चलती है, जिसको लेकर हिंदू आज भी सिरमौर बने हुए हैं। हिंदू सिर्फ
नाम है। दरअसल यह सनातन धर्म से जुड़ा मामला है, जिसकी प्रगति मनुष्य की स्वार्थी प्रवृत्ति के कारण रुक गई। जब इस देश के तमाम
बुद्धिजीवी मनुष्य की बुनियादी जरूरतों को भूलकर आत्मा और परमात्मा में उलझे हुए थे,
तब पश्चिमी देशों में वैज्ञानिक विकास का सिलसिला शुरू हो चुका था।
भारत में जब आध्यात्मिक
विकास चरम सीमा पर पहुंचा हुआ था, तब पश्चिम में वैज्ञानिक विकास की शुरूआत हुई। यह
समय की जरूरत थी कि आध्यात्मिक विकास का उचित तालमेल विज्ञान के साथ होता, लेकिन आध्यात्मिक
ज्ञान के तथाकथित ठेकेदारों को लगा कि इससे उनकी दुकानदारी खत्म हो जाएगी, इसलिए उन्होंने
वैज्ञानिक विकास में हर संभव रोड़े अटकाने का काम किया। वे अंधविश्वासों पर आधारित
जिस समाज का निर्माण कर चुके थे और जिसमें उनकी हैसियत सिरमौर की बनी हुई थी, उसे जैसे-तैसे
बनाए रखने के चक्कर में उन्होंने धर्म और समाज का बहुत नुकसान किया है। आज हिंदू सहित
अनेक धर्मों के नाम पर कई अलग-अलग संप्रदाय बने हुए हैं।
हिंदुओं की यह स्थिति
क्यों हुई? इसकी भी जांच करने की जरूरत है। सनातन धर्म को राजाओं और उनके पुरोहितों
की मिलीभगत से ऐसी स्थिति में पहुंचा दिया गया था कि एक समय ऐसा भी आया, जब लोगों ने
अलग धर्म बनाकर अलग समाज के रूप में संगठित होने का सिलसिला शुरू किया। यह सिर्फ सुविधाजनक
तरीके से जीवन व्यतीत करने के लिए था। लोग धर्म से परेशान नहीं थे, लेकिन धर्म के नाम
पर जो धार्मिकता लादी जा रही थी, उससे परेशान थे। आखिर बौद्ध और जैन धर्म का इतना विस्तार
हुआ है और अग्रवाल, माहेश्वरी जैसे अलग समाज विकसित हुए हैं तो इसके कई गंभीर कारण
रहे होंगे। आज जातिवाद के आधार पर ब्राह्मण और राजपूत सबसे ऊंची जाति मानी जाती है।
वैश्य इनके बाद है, क्योंकि वे अर्थव्यवस्था से जुड़े हुए हैं। बाकी अन्य जातियों को
शिक्षित होने के बावजूद निचले दर्जे की माना जाता है।
हिंदुत्व की विचारधारा
महान है, इसमें कोई दो राय नहीं है, लेकिन बड़ी संख्या में लोग हिंदू धर्म छोड़कर अन्य
धर्मों में शामिल हो गए हैं, यह भी एक तथ्य है। अब बात हो रही है कि जिन हिंदुओं ने
धर्म बदल लिया है, उन्हें वापस हिंदू बनाना है, तो क्या यह संभव है? धर्म और अध्यात्म
के अलावा और भी कई विषय जीवन के साथ जुड़ गए हैं। विज्ञान तो पहले नंबर पर है ही, समाज
शास्त्र भी है, भूगोल भी है, राजनीति शास्त्र भी है, गणित भी, प्रौद्योगिकी भी, और
भी तमाम विषय हैं, जिनका विकास करने की सुध उन पुरोहितों को कभी नहीं आई, जो राजाओं
के साथ मिलीभगत करके समाज के रीति-रिवाज तय करने में लगे हुए थे।
साफ शब्दों में इस
पूरे जंजाल को सुलझाने के लिए कुछ कहा जाए तो यही कहा जा सकता है कि यह सब स्त्रियों
को लेकर हुआ। सबसे ज्यादा रीति-रिवाज स्त्रियों को लेकर ही बने हैं। अगर यह कहें कि
जातिगत आधार पर धर्म का पालन करने की जिम्मेदारी पूरी तरह स्त्रियों को सौंप दी गई
है तो गलत नहीं होगा। स्त्रियां पर पुरुषों से संबंध नहीं रखें। वे पुरोहित का काम
नहीं कर सकती। वे युद्ध कर्म में भाग नहीं ले सकती। उन्हें पति को परमेश्वर मानना जरूरी
है। स्त्रियों के लिए उनका पति ही परमेश्वर बताया जाता है। अन्य किसी पुरुष से यौन
संबंध बनाने वाली स्त्री कुलटा कहलाती है। चरित्रहीन बताई जाती है। पुरुषों के लिए
चरित्र का महत्व नहीं है, जितना स्त्रियों के लिए है। उन्हें कैसे वस्त्र पहनना है।
कितना हंसना है, कितना बोलना है, उनके हर कदम को ऐसे धार्मिक अनुशासन में बांधा गया
है, जिसका कोई हिसाब नहीं।
भारतीय पुरुषों को
अपना पौरुष साबित करना होता है तो वह स्त्रियों के माध्यम से ही साबित हो पाता है।
कई भारतीय पुरुष पौरुष का अर्थ ही यही समझते हैं कि वे अपने अधीन रहने वाली स्त्रियों
का किस प्रकार उपयोग करते हैं। स्त्रियों को राजाओं का मनोरंजन करने के लिए नाचने में
लगाया गया। राजाओं के रनिवास होते थे। एक राजा कई स्त्रियों से विवाह कर सकता था। कई
दासियों को अपनी सेवा में रख सकता था। इस देश में बहुत से राजा हुए हैं और वे सभी विष्णु
का अवतार नहीं थे। कई राजा अत्यंत कामुक भी हुए हैं, जिनको लेकर तरह-तरह की लोककथाएं
हैं। कई राजाओं के शासन में एक अलग विभाग होता था, जिसमें पौरुष वर्धक जड़ी-बूटियों
पर अनुसंधान करके दवाएं बनाई जाती थी। स्तंभन, वशीकरण की क्षमता का विकास करने के लिए
भारत में बहुत माथापच्ची हुई है।
खजुराहो के मंदिरों
में, अजंता-एलोरा की गुफाओं में जो स्त्री-पुरुष की विभिन्न मुद्राओं में प्रतिमाएं
गढ़ी गई हैं, वे अपने आप में इस बात का प्रमाण है कि उस काल में मूर्तिकारों की मानसिकता
कहां तक पहुंची हुई थी। मंदिरों की बाहरी दीवारों पर उकेरी गईं संभोगरत प्रतिमाओं की
व्याख्या कई तरह से की जाती है। कोई कहता है कि ये प्रतिमाएं तंत्र आधारित हैं। कोई
कहता है कि स्त्री-पुरुष के संबंधों पर आधारित है। यह भी कहा जा सकता है कि जब ये प्रतिमाएं
बनीं, उस समय ज्यादातर लोग इतने वीतराग हो चुके थे या अत्यंत कठोर रीति-रिवाजों के
कारण स्त्री-पुरुष संबंधों के प्रति इतने उदासीन हो चुके थे कि उन्हें साथ जोड़े बनाकर
वंश आगे बढ़ाने के लिए प्रेरित करने के उद्देश्य से इस तरह की प्रतिमाएं मंदिरों के
बाहर बनाई गई। कुछ भी हो सकता है, लेकिन जो है, वह साक्षात है।
यह सब हिंदुओं के अंतर्गत
ही है और मानना पड़ेगा। यहां ब्रह्मचर्य के महत्व के साथ ही कामसूत्र भी है और तरह-तरह
के जाति-आधारित रीति-रिवाज भी हैं। एक हिंदू के जीवन में इन सब बातों का उचित संतुलन
होना चाहिए। हिंदू समाज में मौजूद तरह-तरह की भ्रांतियों और स्त्री-पुरुष संबंधों को
लेकर बने कठोर रीति-रिवाज का परिणाम ही है कि आज हिंदू कई भागों में, कई पंथों में,
कई विचारधाराओं में, कई संप्रदायों में बंटा हुआ है। हिंदुत्व के नाम पर नया राजनीतिक
दर्शन बहुत बाद में सामने आया, जब अंग्रेजों ने धर्म के आधार पर इस देश को बांटने का
प्रयास शुरू किया। हिंदुत्व के नाम पर पहली बार अंग्रेजों का प्रबल विरोध 1857 में
भड़का था। उसके बाद अंग्रेजों ने अपनी नीतियां बदलकर भारत में अपनी तरह का समाज गढ़ने
के लिए अपने शासन के अनुकूल शिक्षा प्रणाली लागू की, ईसाई मिशनरियों को शिक्षा और चिकित्सा
के क्षेत्र से जोड़ा और भारत में अपने हिसाब से समाज की रचना करने के लिए भारी भरकम
निवेश किया। इस दौरान व्यापक हिंदू समाज भी कई बदलाव शुरू हुए, जो अभी तक जारी हैं।
(बाकी अगली किस्त में)
हिंदुओं के बीच कायस्थों
की भूमिका
भारत में हिंदुत्व
की मौजूदा स्थिति पर विचार करते समय यह ध्यान देना भी जरूरी है कि राजाओं और पुरोहितों
की नीतियां बहुत पहले विदा हो चुकी हैं, जिन्होंने हिंदू समाज का ढांचा खड़ा करने में
भूमिकाएं निभाई थीं। इनकी भेदभावपरक नीतियों का कुशलता से उपयोग करते हुए ब्रिटिश रणनीतिकारों
ने भारतीय मनुष्यों का जमकर इस्तेमाल किया। अंग्रेजों को दुनिया में जहां भी आदमी भेजने
की जरूरत होती थी, वे भारतीयों को भेज देते थे। राजाओं-पुरोहितों की मिलीभगत से हिंदू
समाज का ढांचा इतना जर्जर हो चुका था कि ज्ञान और संस्कार विहीन लोग कहीं भी किसी भी
तरह इस्तेमाल किए जा सकते थे। आज जो भारतीय सेना है, उसके इतिहास में यह भी शामिल है
कि अंग्रेजों के शासन में उसने कहां कितनी लड़ाइयां लड़ीं। अंग्रेजों ने सेना का गठन
करते समय रेजिमेंटों को जाति के आधार पर बांटा, जैसे जाट रेजीमेंट, सिख रेजीमेंट, राजपूत
रेजीमेंट, गोरखा रेजीमेंट आदि। इस सेना का उपयोग अंग्रेज सरकार ने कई जगह किया।
आज हिंदू जागरूक स्थिति
में हैं और किसी जाति-विशेष के मार्गदर्शन से उनका जीवन नहीं चलता है। भारतीय ज्ञान
के भंडार पर कॉपीराइट रखने वाली ब्राह्मण जाति अब पहले जैसी नहीं रही। लिखने-पढ़ने
वाले ब्राह्मणों के अलावा भी बहुत लोग हो गए हैं। जब से लेखन कार्य शुरू हुआ, तब से
ही राजाओं के प्रशासन में लेखकीय कार्य करने वालों की पूछपरख बढ़ने लगी थी। ब्राह्मणों
का शिक्षा पर अधिकार था। वे अधिकतर लेखकीय कार्य ही करते थे। लेकिन हर तरह का लेखकीय
कार्य करने के लिए ब्राह्मण पर्याप्त नहीं थे, इसलिए कायस्थों का उदय हुआ, जो चित्रगुप्त
के वंशज माने जाते हैं। दीपावली के बाद जिस दिन भाई दूज मनाई जाती है, उस दिन कायस्थ
चित्रगुप्त जयंती मनाते हैं और कलम की पूजा करते हैं।
एक मान्यता के अनुसार
कायस्थ जाति का विकास हिंदुओं की उपजाति के रूप में गुप्त काल में हुआ। पुराणों के
अनुसार कायस्थ प्रशासनिक कार्यों का निर्वहन करते हैं। हिंदू मान्यता के अनुसार कायस्थ
धर्मराज श्री चित्रगुप्त के वंशज हैं। चित्रगुप्त एक प्रमुख हिंदू देवता हैं। धर्मराज
चित्रगुप्त अपने दरबार में मनुष्यों के पाप-पुण्य का लेखा-जोखा रखकर न्याय करने वाले
बताए गए हैं। चित्रगुप्त शब्द का गंभीर अर्थ है। विज्ञान से भी साबित हुआ है कि मन
में जो भी विचार आते हैं, वे सभी चित्रों के रूप में होते हैं। भगवान चित्रगुप्त इन
सभी विचारों के चित्रों को गुप्त रूप से संचित करके रखते हैं और अंत समय में ये सभी
चित्र सामने रखते हैं। उसके आधार पर मनुष्य के अगले जन्म का फैसला होता है। भगवान चित्रगुप्त
सृष्टि के प्रथम न्यायाधीश हैं। उन्हें न्याय का देवता माना जाता है। मनुष्यों की मौत
के बाद धरती पर उनके कार्यों के आधार पर उनके लिए स्वर्ग या नरक का फैसला करने का अधिकार
चित्रगुप्त के पास है।
चित्रगुप्त की संतान
होने और देवता कुल में जन्म लेने के कारण कायस्थों को पंडित और क्षत्रिय, दोनों के
धर्म धारण करने का अधिकार है। हालांकि कई जातिवादी ब्राह्मण कायस्थों को शूद्रों की
श्रेणी में रखते हैं। वर्तमान में कायस्थों की मौजूदगी उनके उपनामों से देखी जा सकती
है। इनमें श्रीवास्तव, सिन्हा, सिंह, सक्सेना, अंबष्ट, निगम, माथुर, भटनागर, लाभ, लाल,
बसु, शास्त्री, कुलश्रेष्ठ, अस्थाना, बिसारिया, कर्ण, वर्मा, खरे, राय, सुरजध्वज, विश्वास,
सरकार, बोस, दत्त, चक्रवर्ती, श्रेष्ठ, प्रभु, ठाकरे, आडवाणी, नाग, गुप्त, रक्षित,
सेन, बक्शी, मुंशी, दत्ता, देशमुख, पटनायक, नायडू, सोम, पाल, राव, रेड्डी, दास, मंडल,
मेहता आदि शामिल हैं।
स्वामी विवेकानंद कायस्थ
थे और उन्होंने अपनी जाति के बारे में कहा है, मैं उन महापुरुषों का वंशधर हूं, जिनके
चरण कमलों पर प्रत्येक ब्राह्मण यमाय धर्मराजाय चित्रगुप्ताय वै नमः का उच्चारण करते
हुए पुष्पांजलि प्रदान करता है और जिनके वंशज विशुद्ध रूप से क्षत्रिय हैं। यदि अपने
पुराणों पर विश्वास हो तो इन समाज सुधारकों को जान लेना चाहिए कि मेरी जाति ने पुराने
जमाने में अन्य सेवाओं के अतिरिक्त कई शताब्दियों तक आधे भारत पर शासन किया था। यदि
मेरी जाति की गणना छोड़ दी जाए, तो भारत की वर्तमान सभ्यता का क्या शेष रहेगा? अकेले
बंगाल में ही मेरी जाति के सबसे बड़े कवि, इतिहासवेत्ता, दार्शनिक, लेखक और धर्म प्रचारक
हुए हैं। मेरी ही जाति ने वर्तमान समय के सबसे बड़े वैज्ञानिक (जगदीश चंद्र बसु) से
भारतवर्ष को विभूषित किया है। स्मरण करो एक समय था, जब आधे से अधिक भारत पर कायस्थों
का शासन था। कश्मीर में दुर्लभ बर्धन कायस्थ वंश, काबुल और पंजाब में जयपाल कायस्थ
वंश, गुजरात में बल्लभी कायस्थ राजवंश, दक्षिण्य में चालुक्य कायस्थ राजवंश, उत्तर
भारत में देवपाल गौड़ कायस्थ राजवंश तथा मध्य भारत में सातवाहन और परिहार कायस्थ राजवंश
सत्ता में रहे हैं। अतः हम उन राजवंशों की संतानें हैं। हम केवल बाबू बनने के लिए नहीं,
अपितु हिंदुस्तान में प्रेम, ज्ञान और शौर्य से परिपूर्ण उस हिंदू संस्कृति की स्थापना के लिए पैदा हुए हैं।
हम समझ
सकते हैं कि हिंदू समाज में कायस्थों का क्या योगदान है। न्यायाधीश, मंत्री, प्रशासनिक
अधिकारी, पुलिस अधिकारी आदि-इत्यादि कई महत्वपूर्ण पदों पर कायस्थों की मौजूदगी देखी
जा सकती है। प्रधानमंत्रियों में लाल बहादुर शास्त्री कायस्थ थे। जिस हिंदुत्व को राजनीतिक
आधार पर सत्ता में रहने का माध्यम बनाने का प्रयास हो रहा है, वह हिंदुत्व की मूल भावना
के विपरीत बात है। जातियों और वर्गों में बंटे हुए हिंदुओं को सिर्फ एक राजनीतिक दिशा
में बलपूर्वक ले जाने के प्रयास कहां तक सफल हो पाएंगे, यह तो भविष्य ही तय करेगा।
लेकिन इससे एक बगीचे की उजाड़ प्रक्रिया अवश्य शुरू हो चुकी है। जो वास्तविक हिंदू
हैं, वे अभी भी ठौर-ठिकाने की तलाश में ही रहते हैं। इस भूभाग में इतनी बार युद्ध,
विस्थापन आदि हुए हैं कि विशालकाय हो रहे शहरों में कौन कहां का है, तय करना मुश्किल
है।
इस देश
का स्वरूप अंग्रेज सरकार रीति-नीति से तय हुआ है और अंग्रेजों ने यहां के लोगों को
ही अंग्रेजी पढ़ाकर नौकरियां देकर एक अलग आभिजात्य वर्ग विकसित कर दिया है जो उस तरह
से हिंदुत्व आधारित देशभक्त नहीं हो सकता, जैसी अपेक्षा की जाती है। जो भी नौकरी करता
है, वह आदेश का पालन करता है। पहले लोग मुगल बादशाह की, फिर अंग्रेज सरकार की नौकरी
करते थे। अब भारत सरकार की नौकरी करते हैं या किसी निजी या कॉर्पोरेट कंपनी की नौकरी
करते हैं। भारत सरकार संविधान के अनुसार चलती है। सरकार चलाने वाले सर्वेसर्वा होते
हैं। हर पांच साल में चुनाव होते हैं। जनता के बहुमत से सरकार बनती है। पूरा ढांचा
अंग्रेज ही फिट करके गए हैं। अंग्रेजों के जाने के बाद जरा भी बदलाव नहीं है, लेकिन
सत्ता का दुरुपयोग करने वालों का एक भयानक वर्ग अवश्य पैदा हो गया है, जो हिंदुत्व
के प्रति आस्था रखने वालों के सामने बहुत बड़ी चुनौती है।
जातिवाद के विरोध में
हिंदुओं के सामाजिक आंदोलन
जातिवाद के दंश से
बचने की प्रक्रिया में आज हिंदू कई भागों में विभाजित हो चुके हैं। धर्म की व्याख्या
करने का एक सिलसिला देश में आदिकाल से चलता रहा है और इन व्याख्याकारों को हिंदू समाज
गुरु के रूप में मान्यता देता रहा है। गुरु शब्द का कई तरह से महिमामंडन हुआ है। परमात्मा
तक पहुंचने का रास्ता गुरु ही बताते हैं, यह मान्यता अब तक बनी हुई है। राजा-पुरोहित
मिलीभगत के कारण हिंदू समाज की जो विचित्र स्थिति बन चुकी थी, उससे बचने के हिए हिंदू
समाज के अनेक गैर राजपूत, गैर ब्राह्मण जातियों के लोगों ने धर्म का पालन करते रहने
के लिए अन्य साधुओं-संतों को मान्यता देना शुरू कर दिया। कालांतर में ऐसे कई साधु-संत
महान घोषित हुए। आज पूरा देश इस तरह के साधु-संतों से भरा हुआ है। इनमें से कुछ आध्यात्मवादी
हैं, कुछ योग और भोग का समन्यवय करने वाले हैं और बाकी भोगी हैं।
हिंदुओं का नया समाज
बनने की प्रक्रिया क्रूर जातिवाद के विरोध में शुरू हुई। इस जातिवाद के चक्कर में सबसे
ज्यादा मुसीबत स्त्रियों की रही। इसके साथ ही जातिवादी कुरीतियों के कारण लड़के-लड़कियों
के विवाह संबंध तय करने में लोगों को आज भी बहुत परेशानी होती है। इसके अलावा अगर किसी
स्त्री-पुरुष में प्रेम संबंध हो जाएं तो बहुत बड़ा उपद्रव हो जाता है। पुरुष का कुछ
नहीं बिगड़ता, स्त्री की जिंदगी बिगड़ जाती है। कई स्त्रियों को देह व्यापार में धकेल
दिया जाता है। हिंदुओं की ही कुछ जातियां ऐसी भी हैं, जिनके परिवार का जीविकोपार्जन
ही देह व्यापार से होता है। इन तमाम सामाजिक कुप्रथाओं से बचने के लिए भारत में तरह-तरह
के धार्मिक समूह बने, जो कि हिंदू ही हैं, लेकिन वे जातिवाद को त्याग चुके हैं।
बौद्ध, जैन के बाद
सिख संप्रदाय का उभार भी इसी प्रक्रिया के तहत हुआ। इसके बाद भी हिंदुओं में अलग-अलग
नए संप्रदाय बने, जिन्होंने अभी अलग धर्म का रूप नहीं लिया है। हिंदू समाज में व्याप्त
कुरीतियों की प्रतिक्रिया के रूप में भारत में कई धार्मिक आंदोलन हुए। हिंदू धर्म की
आलोचना जिन कुरीतियों के आधार होती रही, उनमें जाति प्रथा, छुआ-छूत, सती प्रथा, बाल
विवाह, अनुष्ठान और देवी-देवताओं के निमित्त बलि प्रथा, निर्दोष प्राणियों की हत्या,
मूर्ति पूजा और दहेज प्रथा प्रमुख हैं। इनमें पहले आंदोलनकारी कबीर हुए, जिन्होंने
उपनयन (जनेऊ) प्रथा का विरोध किया। कबीर भारतीय रहस्यवादी कवि और संत थे। उन्होंने
हिंदुओं के साथ ही मुसलमानों की कुरीतियों का भी जमकर विरोध किया। कबीर का जीवन काल
14वीं और 15वीं शताब्दी के दौरान बताया जाता है। जीविकोपार्जन के लिए वह जुलाहे का
काम करते थे। वह एक ही ईश्वर को मानते थे और कर्मकांड के विरोधी थे। वह अवतार, मूर्ति,
रोजा, ईद, मस्जिद, मंदिर आदि को नहीं मानते थे। बाद में उनके नाम से एक कबीर पंथ बना।
कबीर के बाद बंगाल
में सामाजिक और धार्मिक समाज सुधार आंदोलन शुरू हुआ, जिसके तहत सती प्रथा, बाल विवाह,
जाति प्रथा आदि कुरीतियों के खिलाफ 1828 में राजा राममोहन राय और द्वारिकानाथ टैगोर
ने ब्राह्म समाज की स्थापना की थी। इससे पहले राजा राममोहन राय 1815 में आत्मीय सभा
की स्थापना कर चुके थे। 1828 में यही आत्मीय सभा ब्राह्म समाज में परिवर्तित हो गई।
बाद में केशवचंद सेन ब्राह्म समाज से जुड़े। उन्होंने 1866 में भारतवर्षीय ब्रह्म समाज
की स्थापना की थी। ब्रह्म समाज के प्रमुख सिद्धांत हैं, ईश्वर एक है और वह संसार का
निर्माणकर्ता है, आत्मा अमर है, मनुष्य को अहिंसा अपनाना चाहिए और सभी मानव समान हैं।
ब्रह्म समाज के आंदोलन के फलस्वरूप 1829 में तत्कालीन वायसराय विलियम बेंटिक ने कानून
बनाकर सती प्रथा को अवैध घोषित कर दिया था।
हिंदुओं का दूसरा प्रमुख
सामाजिक सुधार आंदोलन आर्य समाज के रूप में शुरू हुआ, जिसकी स्थापना स्वामी दयानंद
सरस्वती ने 1875 में बंबई में मथुरा के स्वामी विरजानंद की प्रेरणा से की थी। आर्य
समाज मूर्ति पूजा, अवतारवाद, बलि, झूठे कर्मकांड और अंधविश्वासों को मान्यता नहीं देता
है। धुआछूत और जातिगत भेदभाव का विरोध करता है। आर्य समाज स्त्रियों और शूद्रों को
भी यज्ञोपवीत धारण करने और वेद पढ़ने का अधिकार देता है। स्वामी दयानंद सरस्वती रचित
सत्यार्थ प्रकाश आर्य समाज का मूल ग्रंथ है। आर्य समाज का आदर्श वाक्य है- कृण्वंतो विश्वमार्यम। अर्थात विश्व को आर्य बनाते चलो। आर्य
समाज के प्रमुख अनुयायियों में दयानंद सरस्वती के बाद स्वामी श्रद्धानंद, महात्मा हंसराज,
लाला लाजपत राय, भाई परमानंद, पंडित गुरुदत्त, स्वामी आनंदबोध सरस्वती, स्वामी अछूतानंद,
चौधरी चरण सिंह, पंडित वंदे मातरम रामचंद्र राव, बाबा रामदेव आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। सभी आर्य समाजी वेदों के अनुकूल चलने का प्रयास
करते हैं और दूसरों को भी उस पर चलने की प्रेरणा देते हैं।
महर्षि
दयानंद सरस्वती योगीराज थे। उन्होंने 18 घंटे समाधि में रहने के बाद करीब आठ हजार किताबों
का मंथन कर अद्भुत और क्रांतिकारी सत्यार्थ प्रकाश की रचना की थी। आर्य समाज के अन्य
माननीय ग्रंथों में वेद, उपनिषद, षड्दर्शन, गीता, वाल्मीकि रामायण आदि शामिल हैं। महर्षि
दयानंद ने सत्यार्थ प्रकाश में इन सबका सार दे दिया है। आर्य समाज की परंपराओं के तहत
ईश्वर का सर्वोत्तम और निज नाम ओम है। ईश्वर की अलग नामों से मूर्तिपूजा ठीक नहीं है।
आर्यसमाज वर्ण व्यवस्था ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र को कर्म पर आधारित मानता
है। आर्य समाज में मांस, अंडे, बीड़ी, सिगरेट, शराब चाय, मिर्च-मसाले आदि वेद विरुद्ध
माने गए हैं। आर्य समाज ने भारत में राष्ट्रवादी विचारधारा को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण
योगदान दिया है।
आर्य
समाज और ब्रह्म समाज से पहले, कबीर पंथ के बाद हिंदू समाज की कुरीतियों को दूर करने
का कार्य गुरु नानक के माध्यम से हुआ, जिनके उपदेशों से बाद में सिख संप्रदाय बना।
गुरु नानक का जन्म रावी नदी के किनारे स्थित गांव तलवंडी में कार्तिक पूर्णिमा को एक
खत्री परिवार में हुआ था। अब तलवंडी का नाम नानक के नाम पर ननकाना हो गया है। ईसवी
सन के अनुसार नानक की जन्म तिथि 15 अप्रैल, 1469 बताई जाती है। वह बचपन से ही अत्यंत
बुद्धिमान थे और उन्होंने सात-आठ वर्ष की उम्र में पढ़ना-लिखना छोड़ दिया था। जब वह
16 वर्ष के थे, तब सुलक्खनी के साथ उनका विवाह हुआ। 32 वर्ष की उम्र में उनके पहले
पुत्र श्रीचंद का जन्म हुआ। चार वर्ष बाद दूसरे पुत्र लखमीदास का जन्म होने के बाद
ईसवी सन 1507 में नानक अपने परिवार की जिम्मेदारी ससुर पर सौंपकर मरदाना, लहना, बाला
और रामदास नामक चार साथियों के साथ तीर्थयात्रा के लिए निकल पड़े थे। 1521 तक नानक
यात्राएं करते रहे। उन्होंने चार यात्रा चक्र पूरे किए, जिसके तहत भारत, अफगानिस्तान,
फारस और अरब के मुख्य स्थानों का भ्रमण किया। इन यात्राओं को पंजाबी में उदासियां कहा
जाता है।
गुरु
नानक सर्वेश्वरवादी थे और सनातन धर्म के तहत चली आ रही मूर्ति पूजा का विरोध करते थे।
उन्होंने सभी को एक परमात्मा की उपासना करने का उपदेश दिया और हिंदू धर्म में फैली
कुरीतियों का विरोध किया। उनके उपदेशों का मुसलमानों पर भी प्रभाव पड़ा। गुरु नानक
का जीवन मानवता के प्रति समर्पित रहा। आश्विन कृष्ण पक्ष दशमी, संवत 1597 ( 22 सितंबर
ईसवी सन 1539) को उनका देहांत हुआ। इससे पहले उन्होंने अपने प्रमुख शिष्य लहना को उत्तराधिकारी
घोषित कर दिया था, जो बाद में गुरु अंगद देव के नाम से जाने गए। गुरु अंगद देव के बाद
क्रमशः गुरु अमर दास, गुरु राम दास, गुरु अर्जुन देव, गुरु हरगोबिंद, गुरु हर राय,
गुरु हर किशन, गुरु तेग बहादुर, गुरु गोबिंद सिंह नानक की परंपरा के उत्तराधिकारी रहे।
उसके बाद से गुरु ग्रंथ साहिब सिख धर्म के प्रमुख धर्मग्रंथ के रूप में स्थापित हो
गया।
गुरु
ग्रंथ साहिब में प्रमुख सिख धर्मगुरुओं के साथ ही 30 अन्य हिंदू संतों और अलग धर्म
के मुस्लिम भक्तों की वाणी शामिल है। इनमें जयदेव और परमानंद जैसे ब्राह्मणों के अलावा
कबीर, रविदास, नामदेव, सैणजी, सधनाजी, पीपाजी, धन्नाजी, बैणीजी, भीखनजी, सूरदास, रामानंद
की वाणी प्रमुख है। पांचों वक्त नमाज पढ़ने वाले शेख फरीद के उपदेश भी गुरु ग्रंथ साहिब
में शामिल हैं। सिखों के पांचवें गुरु अर्जुनदेव ने ईसवी सन 1604 में गुरु वाणी का
संकलन तैयार कर इसे गुरु ग्रंथ साहिब के रूप में संपादित किया था और 16 अगस्त 1604
को हरमंदिर साहिब, अमृतसर में इसकी स्थापना की थी। गुरु ग्रंथ साहिब की स्थापना के दिन
को प्रकाश पर्व कहा जाता है। ईसवी सन 1705 में सिखों के दसवें गुरु गोबिंद सिंह ने
गुरु तेगबहादुर के 116 शब्द जोड़कर इसे पूर्ण किया। उसके बाद से इसमें कोई बदलाव नहीं
है। गुरु ग्रंथ साहिब में कुल 1430 पृष्ठ हैं और यह गुरुमुखी में लिपिबद्ध किया गया है।
इस तरह इतिहास साक्षी है कि हम हिंदू जिस धर्म का पालन करते हैं,
उसमें समय-समय पर परिवर्तन होता रहा है। इस परिवर्तन के फलस्वरूप नए धर्म और संप्रदाय
बने हैं और यह प्रक्रिया रुकी नहीं है। अभी भी यह परिवर्तन की प्रक्रिया जारी है।
(बाकी अगली किस्त में)
वीर सावरकर ने शुरू की हिंदुत्व आधारित राजनीति
हिंदुत्व आधारित राजनीति का प्रारंभ वीर सावरकर की किताब से शुरू
होता है, जिसमें उन्होंने 1857 के स्वतंत्रता आंदोलन को लिपिबद्ध किया था। उस घटनाक्रम
को ब्रिटिश लोग गदर मानते हैं, जबकि सावरकर ने उसे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम सिद्ध
किया था। उनका व्यक्तित्व बहु आयामी था। वह वकील, कवि, लेखक, राजनीतिज्ञ और नाटककार
थे। विनायक दामोदर सावरकर ने पहली बार हिंदुत्व शब्द का प्रयोग किया था। सावरकर एक
कुशल संगठन कर्ता थे। उन्होंने महाराष्ट्र में मित्र मेलों का आयोजन कर स्थानीय नवयुवकों
को संगठित कर उन्हें क्रांतिकारी बनने के लिए प्रेरित किया था। वकालत पढ़ने के लिए
लंदन पहुंचने के बाद ही उन्होंने भारत में अंग्रेजों का प्रभुत्व समाप्त करने के लिए
अपना जीवन समर्पित कर दिया था। अपनी तीक्ष्ण बुद्धि से उन्होंने अनेक क्रांतिकारी कार्य
किए और जीवन का अधिकांश हिस्सा कालापानी की सजा काटते हुए व्यतीत कर दिया। इन दिनों
सावरकर को लेकर विवाद हो रहे हैं, जो कि बिलकुल गलत है। जिसे हम स्वतंत्रता आंदोलन
कहते हैं, वह गांधी के उभरने से पहले ही सावरकर ने शुरू कर दिया था और उनकी विचारधारा
हिंदुत्व पर आधारित थी।
1857 में अंग्रेजों के खिलाफ स्वतंत्रता आंदोलन तब शुरू हुआ, जब
ईसाइयों को धर्म प्रचार की स्वतंत्रता मिली और राजदरबार की भाषा अंग्रेजी हो गई। अंग्रेजों
ने धार्मिक ग्रंथों को अंग्रेजी में अनुवाद शुरू किया और एक विधि आयोग का गठन कर नया
दंड विधान बनाने की प्रक्रिया शुरू की। अंग्रेज सरकार ने 1853 में धार्मिक स्थलों का
प्रबंधन स्थानीय समितियों को सौंप दिया। इसके अलगे साल 1854 में अदालतों में जो थोड़े-बहुत
पंडित और मौलवी बचे थे, वे भी हटा दिए गए। इस तरह देश की पुरानी धार्मिक संस्थाएं नष्ट
हो गई और हिंदुओं के साथ ही मुसलमान भी यह समझने लगे कि अंग्रेज उन्हें ईसाई बनाना
चाहते हैं। इन बदलावों से तत्कालीन भारतीय समाज भीतर ही भीतर खदबदा रहा था। उस समय
लार्ड डलहौजी भारत का वायसराय था। उसी के कार्यकाल में 1857 में अंग्रेज सरकार के सिपाहियों
ने बगावत कर दी थी।
बगावत को कुचलने के बाद अंग्रेज सरकार ने भारत में औद्योगिक विकास
की नींव रखी। दुनिया में तेजी से बदलाव शुरू हो चुके थे। कई कारखाने स्थापित होने लगे
थे। अंग्रेजों के लिए भारत की जमीन से निकलने वाला कच्चा माल महत्वपूर्ण था, जिसके
आधार पर उसने व्यावसायिक प्रगति की। भारत अंग्रेजी माल का अच्छा-खासा बाजार बनकर उभरा।
अंग्रेजी शिक्षा का प्रचार-प्रसार हुआ। लोगों की रुचियां और जीवन-शैली बदली। वेशभूषा
बदली। कारखाने लगने से भारत की कई पारंपरिक कलाएं और उद्योग समापन की स्थिति में पहुंचे।
नए बाजार बने। देश में रेलों का जाल फैला। कोलकाता, बंबई, मद्रास जैसे प्रमुख बंदरगाह
रेलमार्ग से जोड़ दिए गए। इसके साथ ही पूरे देश में सड़कों का जाल भी फैला। इस तरह
सिर्फ सौ साल के भीतर पूरा देश बदल चुका था। देश आजाद होने के बाद एक फिल्म का गाना
सुपरहिट हुआ था – छोड़ो कल की बातें, कल बात पुरानी, नए दौर में लिखेंगे, हम सब नई
कहानी।... आजाद होने के बाद से देश इसी रास्ते पर आगे बढ़ रहा है। लेकिन देश विभाजन
के फलस्वरूप जो राजनीतिक घाव भारत ने झेले हैं, उनको समय-समय पर हरे करने का कार्य
भी जारी है।
1942 तक भारत के विभाजन की रूपरेखा नहीं बनी थी। इस देश की हिंदू
और मुसलमान आबादी अंग्रेज सरकार के खिलाफ समान रूप से एकजुट थी। आजादी का आंदोलन चरम
पर पहुंचा हुआ था। हिंदुओं की राजनीतिक पार्टी हिंदू महासभा की स्थापना 1915 में हो
चुकी थी। इसके पहले अध्यक्ष वीर सावरकर थे। इससे पहले 1906 में आल इंडिया मुस्लिम लीग
की स्थापना हो चुकी थी। सर आगा खान मुस्लिम लीग के पहले अध्यक्ष चुने गए थे। मुस्लिम
लीग अपने तरीके से और हिंदू महासभा अपने तरीके से अंग्रेजों का विरोध कर रही थी। कांग्रेस
का प्रभाव इसके बाद बढ़ा, जब गांधी ने हिंदू और मुसलमानों को धार्मिक मतभेद भुलाकर
अहिंसक तरीके से अंग्रेज सरकार का विरोध करने की प्रेरणा दी थी। इसी दौरान 1925 में
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना हुई, जिसने हिंदुत्व आधारित गैर राजनीतिक संगठन
खड़ा किया।
1940 का समय गुजरते-गुजरते भारत को अंग्रेजी शासन से मुक्त कराने
की जनभावना इतनी बलवती हो चुकी थी कि अंग्रेजों के लिए भारत पर अपना शासन बनाए रखना
मुश्किल था। तब उन्होंने हिंदू-मुसलमानों के बीच परंपरागत लड़ाई को पुनर्जीवित करने
का काम किया। इस माहौल में 9 अगस्त 1942
को गांधी जी ने भारत छोड़ो आंदोलन की घोषणा कर दी। इसके साथ ही गांधी सहित प्रमुख कांग्रेस
नेता जेल भेज दिए गए और देश में अफरा-तफरी के माहौल को बढ़ावा दिया गया। दंगों की शुरूआत
हुई। इसी दौरान मोहम्मद अली जिन्ना मुसलमानों के लिए अलग देश की मांग उठाने लगे थे,
जिससे हिंदू-मुसलमानों के बीच खाई बढ़ी।
16 अगस्त 1946 को बंगाल के तत्कालीन प्रधानमंत्री हुसैन शाहिद सोहरावर्दी
ने डायरेक्ट एक्शन की घोषणा कर दी। वह कोलकाता और उसके आसपास के हिस्सों को पाकिस्तान
में मिलाना चाहता था। कोलकाता में पहली बार बड़े पैमाने पर हिंदु-मुसलमान दंगे सोहरावर्दी
ने करवाए थे। उस दौरान बड़े पैमाने पर हिंदुओं को मुसलमान बनाने की घटनाएं हुईं।
10 अक्टूबर 1946 को टिपरा और नोआखाली में भयंकर दंगे हुए। इस घटना के बाद पूरे देश
में सांप्रदायिक जहर घुलता चला गया। गांधी अपने हिसाब से हालात पर काबू करने की कोशिश
करते रहे। कांग्रेस अपने हिसाब से राजनीति करती रही। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का विस्तार
अपनी गति से जारी रहा और इस दौरान अंग्रेज सरकार लोगों को आपस में लड़वाकर इज्जत के
साथ अपने हिसाब से सत्ता हस्तांतरण करने की भूमिका बनाती रही। जिन्ना ने एक अलग देश
का सपना पाल लिया।
14 अगस्त 1947 की रात 12 बजे के बाद 15 अगस्त की तारीख शुरू होते
ही पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भारत की सत्ता संभाल ली। इससे पहले इस्लामाबाद में मोहम्मद
अली जिन्ना ने इस्लामाबाद में सत्ता संभाली। उस समय देश में भीषण सांप्रदायिक तनाव
फैला हुआ था। देश विभाजन के फलस्वरूप आपसी-लड़ाई झगड़ों में इतिहास का अब तक का सबसे
बड़ा खून-खराबा हुआ। इस तरह अंग्रेज भारत को एक बहुत बड़ा घाव देकर उसे भरने की जिम्मेदारी
नेहरू को संभलाकर चले गए। अंग्रेज सरकार के कानून-कायदे अभी भी कायम है। जिस तरह अंग्रेज
सरकार जनता के साथ व्यवहार करती थी, वैसा ही व्यवहार स्वतंत्र भारत की लोकतांत्रिक
सरकार भी करती है। देश आजाद होने के बाद क्या परिवर्तन हुआ? हिंदुओं का क्या भला हुआ
और हिंदुत्व के आधार पर कुछ लोगों को सत्ता सौंपने का क्या परिणाम निकला, इस पर गंभीर
विचार-विमर्श की जरूरत है। (बाकी अगली किस्त में)
भारत में सबसे ज्यादा हिंदू
भारत में 2011 की जनसंख्या के आंकड़ों के मुताबिक 79.80 फीसदी हिंदू,
14.2 फीसदी मुसलमान, 2.3 फीसदी ईसाई, 1.7 फीसदी सिख, 0.7 फीसदी बौद्ध, 0.4 फीसदी जैन
और 0.7 फीसदी पारसी, यहूदी, बहाई और अन्य धर्मावलंबी रहते हैं। हिंदुओं की आबादी
79.80 फीसदी हिंदू अवश्य है, लेकिन वे कई संगठनों में विभाजित हैं और उनमें सामाजिक
आधार पर कई मतभेद हैं। जैसा कि पहले स्पष्ट किया जा चुका है कि भारत में धर्म की नई
व्याख्याएं करने का सिलसिला आदिकाल से चला आ रहा है और यह अब तक नहीं रुका है। लोगों
ने अपना सामाजिक जीवन सुगम बनाने के लिए कई संतों के नाम पर धार्मिक संगठन बना लिए
हैं और नए-नए भगवान भी बने हैं, जिनमें साईं बाबा प्रमुख है। शिरडी के साईबाबा के बाद
आंध्र प्रदेश में सत्य साईं बाबा हुए, जिनके नाम पर बहुत बड़ा संगठन है।
गीताप्रेस गोरखपुर के माध्यम से वैष्णव मतावलंबियों की आस्था पुष्ट
करने का सिलसिला बना, वहीं कुछ अलग धार्मिक संगठन भी अस्तित्व में आए। कबीर पंथ, सिख
धर्म, ब्रह्म समाज, आर्य समाज आदि का हिंदुओं में अच्छा खासा प्रसार हुआ। 1950 के दशक
में पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य ने सनातन वैदिक सिद्धांतों के आधार पर अखिल विश्व गायत्री
परिवार की स्थापना की। उन्होंने धर्म और विज्ञान में तालमेल स्थापित करने वाला साहित्य
भी बड़े पैमाने पर प्रकाशित किया। उन्होंने युग निर्माण योजना के तहत समाज सुधार का
नया अभियान शुरू किया। उनकी विचारधारा पर गायत्री परिवार के अंतर्गत विवाह आदि के नए
रीति-रिवाज बने। ये सभी हिंदू हैं।
1952 में उत्तर प्रदेश के मथुरा में बाबा जय गुरुदेव ने समाज सुधार
का अभियान शुरू करते हुए नारा दिया, जय गुरुदेव, सतयुग आएगा। दीवारों पर नारे लिखकर
धार्मिक प्रचार का सिलसिला जय गुरुदेव ने शुरू किया। आज देश-विदेश में जय गुरुदेव के
करोड़ों अनुयायी हैं और वे सभी हिंदू हैं। बाबा जय गुरुदेव का 116 वर्ष की उम्र में
18 मई 2012 की रात मथुरा में निधन हुआ था। उसके बाद से उनके ट्रस्ट की संपत्ति को लेकर
विवाद चल रहा है।
हिंदुओं का एक संगठन राधास्वामी सत्संग ब्यास नाम से है, जिसकी स्थापना
1861 में बसंत पंचमी के दिन शिवदयाल साहिब ने की थी। आगरा के दयालबाग में राधास्वामी
मत का प्रमुख मंदिर है। विश्व में करीब दो करोड़ लोग राधास्वामी सत्संग की विचारधारा
का पालन करते हैं। इसका प्रमुख डेरा पंजाब में जालंधर से 25 किलोमीटर और अमृतसर से करीब 40 किलोमीटर दूर स्थित ब्यास
नामक स्थान पर है। डेरे के पास चार हजार एकड़ से ज्यादा जमीन है। डेरे की स्थापना
1891 में की गई थी। फिलहाल करीब सौ देशों के लोग डेरे से जुड़े हुए हैं। यह संस्था
किसी राजनीतिक पार्टी से जुड़ी हुई नहीं है। राधास्वामी सत्संग व्यास का उद्देश्य धार्मिक
संदेश देना है। राधा का अर्थ आत्मा है और स्वामी का अर्थ भगवान। सत्संग का अर्थ है
सच्चाई से परिचय कराना। ये सभी हिंदू हैं।
हिंदुओं में एक दादूपंथी
संप्रदाय है। हिंदी साहित्य के भक्तिकाल में दादूदयाल का नाम आता है। संत दादूदयाल
का जन्म फाल्गुन शुक्ल अष्टमी विक्रम संवत 1601 में गुजरात के अहमदाबाद में हुआ था।
उन्होंने 12 वर्ष की आयु में घर छोड़ दिया था। उन्होंने राजस्थान में आबू पर्वतमाला
और तीर्थराज पुष्कर में कठोर तपस्या की थी। संवत 1625 में उन्होंने सांभर में पहली
बार धार्मिक उपदेश देना शुरू किया। इसके बाद कई लोग उनके भक्त बनने लगे। तत्कालीन बादशाह
अकबर ने दादूदयाल को फतेहपुर सीकरी आमंत्रित किया था और उनके उपदेशों से प्रभावित होकर
पूरे राज्य में गौहत्या बंदी का फरमान लागू कर दिया था। जयपुर जिले के नरेना में दादूदयाल
ने एक खेजड़े के पेड़ के नीचे लंबी तपस्या की और यहीं उन्होंने ब्रह्मधाम दादूद्वारा
की स्थापना की थी। दादूदयाल के 52 पट्ट शिष्य थे, जिनमें गरीबदास, सुंदरदास, रज्जब
और बखना प्रमुख हैं। दादूदयाल के उपदेशों को रज्जब ने दादू अनुभव वाणी के रूप में संकलित
किया है। इसमें करीब पांच हजार दोहे हैं, जिनके आधार पर दादू पंथियों की विचारधारा
बनी है।
एक मई 1897 को कोलकाता
में रामकृष्ण परमहंस के प्रमुख शिष्य स्वामी विवेकानंद
ने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की थी। सेवा, परोपकार और वेदांत दर्शन का प्रचार-प्रसार
इस संगठन का प्रमुख उद्देश्य है। इसका ध्येयवाक्य है- आत्मनो मोक्षार्थं जगद्हिताय
च। भारत में शिक्षा के प्रचार-प्रसार में रामकृष्ण मिशन का महत्वपूर्ण योगदान है।
एक संत आसाराम हुए
हैं, जो अपनी विचारधारा पर आधारित हिंदुओं का एक नया धार्मिक संगठन बनाने के बाद फिलहाल
बलात्कार के मामले में जेल काट रहे हैं। उनका जन्म 17 अप्रैल 1941 को नवाबशाह जिले
के बेराणी गांव में हुआ था, जो अब पाकिस्तान में है। देश विभाजन के बाद उनके परिवार
को सबकुछ छोड़कर गुजरात में शरण लेनी पड़ी थी। आसाराम का पूरा नाम आसूमल थाउमल सिरुमलानी
है। उन्होंने युवावस्था में लक्ष्मीदेवी से विवाह किया, जिनसे उनका एक पुत्र नारायण
और एक पुत्री भारती है। पिता के निधन के बाद उन्होंने घर छोड़ दिया और आध्यात्मिक शिक्षा
प्राप्त की। नैनीताल में उन्होंने लीलाशाहजी महाराज से दीक्षा प्राप्त की और आसाराम
नाम से धार्मिक उपदेश देने लगे। उनकी संस्था ने कई स्कूल और आश्रम खोले। कुछ ही वर्षों
में आसाराम के भक्तों की संख्या लाखों में पहुंच गई थी।
हिंदुओं का एक अन्य
धार्मिक संगठन 1948 में डेरा सच्चा सौदा नाम से बना। एक संत शाह मस्तानाजी इसकी स्थापना
की थी। हरियाणा के सिरसा स्थित बेगू मार्ग पर इसका मुख्यालय है। वर्तमान में इसके प्रमुख
संत गुरमीत राम रहीम सिंह हैं, जो बलात्कार और हत्या के आरोप में जेल काट रहे हैं।
कृष्ण की भक्ति पर आधारित एक संगठन अंतरराष्ट्रीय श्रीकृष्ण
भावनामृत संघ (अंग्रेजी में संक्षेप में इस्कॉन) की स्थापना 1966 में न्यूयार्क
में भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद ने की थी। इसे हरे कृष्ण
आंदोलन के नाम से भी जाना जाता है। आज देश-विदेश में इस्कॉन संचालित 400 से ज्यादा
मंदिरों के अलावा, विद्यालय आदि स्थापित हो चुके हैं।
एक हिंदू
संत महर्षि महेश योगी हुए हैं, जिनका जन्म 12 जनवरी 1918 को छत्तीसगढ़ में राजिम जिले
के पांडुका गांव में हुआ था। वह जन्म से कायस्थ थे और उनका नाम महेश प्रसाद वर्मा था।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय से भौतिक शास्त्र के स्नातक होने के बाद उनका झुकाव अध्यात्म
की ओर हुआ। हिमालय में दो वर्ष मौन व्रत के बाद उन्होंने धार्मिक उपदेश देना शुरू किया।
उन्होंने अमेरिका पहुंचकर विश्व के लोगों का भारतीय योग-ध्यान से परिचय करवाया, ट्रांसेंडेंटल
मेडिटेशन अर्थात भावातीत ध्यान अपनाने की प्रेरणा दी और महर्षि मुक्त विश्वविद्यालय
स्थापित किया। उन्होंने आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति का भी प्रचार-प्रसार किया। हालैंड
में एम्सटर्डम के पास व्लोड्रॉप नामक गांव में उन्होंने आश्रम बनाया और वहीं अंतिम
सांस ली।
महर्षि
महेश योगी ने अपनी एक अलग मुद्रा राम मुद्रा का प्रचलन भी शुरू किया था, जिसे नीदरलैंड्स
में कानूनी मान्यता प्राप्त है। डच सेंट्रल बैंक के मुताबिक फिलहाल करीब राम मुद्रा
के करीब एक लाख नोट प्रचलन में हैं। अमेरिकी राज्य वाइवा में स्थापित महर्षि वैदिक
सिटी में भी राम मुद्रा चलती है। इसके अलावा 35 अमेरिकी राज्यों में राम मुद्रा आधारित
बांड्स चलते हैं। महर्षि महेश योगी पांच फरवरी 2008 को व्लोड्रॉप में ही 91 वर्ष की
आयु में ब्रह्मलीन हुए। 2008 में उनकी संस्था की एक रिपोर्ट के मुताबिक महेश योगी ने 150 देशों में करीब 500 स्कूल, चार महर्षि विश्वविद्यालय और चार देशों में वैदिक शिक्षण संस्थान खोल रखे थे। उनका संगठन लाभ अर्जित करने
वाला संगठन नहीं था, फिर भी उसके पास करीब 160 अरब रुपए की संपत्ति बताई जाती है, जिसको
लेकर विवाद जारी है।
हिंदुत्व
और धर्म पर विचार-विमर्श का सिलसिला
हम सब हिंदू हैं और हिंदुत्व का पालन किए जाने की उम्मीद हमसे की
जाती है। हिंदुत्व के साथ छद्म शब्द को जोड़ना ठीक नहीं है, इसलिए नाम बदल दिया है।
इतनी जांच-पड़ताल करने के बाद पता चला कि हिंदुत्व भारतीयों के निजी संस्कार से संबंधित
है। हिंदू लोग हिंदुत्व के आधार पर जीवन गुजारते हैं। भले ही वे कहीं भी रहते हों। जब महात्मा गांधी दक्षिण
अफ्रीका में अंग्रेज सरकार के खिलाफ संघर्ष कर रहे थे, तब वह वहां रह रहे हिंदुओं के
साथ हो रहे अन्याय का ही प्रतिकार कर रहे थे।
हिंदुओं का अपना स्वाभिमान होता है। पिछले कुछ वर्षों से इसका घोर
राजनीतिकरण शुरू हो गया है, जो कि कांग्रेस की अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की नीति की प्रतिक्रिया
के फलस्वरूप है। इस तरह पूरी ताकत से सत्ता के लिए हिंदुत्व को हथियार बनाया जा रहा
है। अगर कोई वास्तविक हिंदू है, तो वह खुले दिमाग का होगा, किसी भी राजनीतिक, धार्मिक
या सांप्रदायिक खांचे में फिट नहीं बैठेगा। उसके अपने विचार होते हैं। इसके बावजूद
सभी हिंदुओं को सिर्फ कुछ लोगों की सत्ता को चलाए रखने के लिए सिर्फ एक पार्टी के पक्ष
में मतदात करने के लिए विवश करने में क्या तुक है? यह कब तक चलेगा? एक बार हो गया,
दो बार हो गया, हमेशा तो ऐसा चल नहीं सकता। आगे क्या होगा?
भारत में धर्म पर विचार-विमर्श आदिकाल से अब तक सतत जारी है, इसलिए
भारत का सनातन धर्म एक जीवंत धर्म है, जिसे हम हिंदुत्व कहते हैं। भारत के लोगों में
वैसी राजनीतिक चेतना कभी नहीं रही, जैसी पश्चिमी देशों के लोगों में पाई जाती है। यहां
के लोग धार्मिक विषयों पर विचार ज्यादा करते हैं। राजनीति में उनका मन नहीं लगता। कई
बार वे धार्मिक उन्माद से प्रभावित होकर राजनीतिक हानि-लाभ भूल जाते हैं। दुनिया में
जितने भी धर्म हैं, उनमें धार्मिक उन्माद पैदा करने वाले तत्व हैं। सिर्फ हिंदुत्व
या सनातन धर्म ही ऐसा है, जिसमें उन्माद पैदा करने वाले तत्व नहीं है। यही कारण है
कि इसकी कई शाखाएं बनी हैं और लगातार बनती चली जा रही हैं। यहां मनुष्य और परमात्मा
के संबंधों की जांच-पड़ताल का काम कभी स्थगित नहीं रहा। यह भारत की तासीर है। क्या
इस तासीर को बदलते हुए हिंदुत्व को धार्मिक उन्माद पैदा करने का साधन बनाया जा रहा
है?
हर धर्म का एक लिखित संविधान होता है, जो किसी धर्म गुरु की ओर से
प्रवर्तित होता है। हिंदू धर्म वैदिक सिद्धांतों पर आधारित है और वैदिक सिद्धांतों
की व्याख्या अब तक जारी है। इस देश में जितने भी साधु, संत या धर्मगुरु हुए हैं, सभी
ने वैदिक सिद्धांतों की अपने तरीके से व्याख्या अवश्य की है। हिंदुओं में व्याप्त जातिवाद
के खिलाफ जितने भी धार्मिक संगठन बने हैं, वे अपनी विचारधारा का प्रचार करने के लिए
वेदों का सहारा लेते हैं। भारत में पैदा हुआ कोई भी धर्म ऐसा नहीं है, जिसने वेदों
का आश्रय नहीं लिया हो। जैन धर्म हो या बौद्ध धर्म, कबीर पंथ हो या आर्य समाज, सिख
पंथ हो या दादूपंथी, सभी वैदिक सिद्धांतों की डोर थामे हुए हैं।
धार्मिक संगठन बनाने की कोई नियमावली इस देश में नहीं है। यहां घोर
आस्तिक और अंधविश्वासी की बातें भी सुनी जाती हैं और घोर नास्तिक की भी। धर्म में परंपरागत
लीक से हटकर अपना रास्ता बनाने वाले संत सिर्फ और सिर्फ भारत में ही पाए जाते हैं।
यहां सभी धर्मों की बातें सुनने की परंपरा है। यह देश यूरोप की तरह नहीं है, जहां इस
सत्य का उद्घाटन करने पर गैलिलियों की आंखें फोड़ दी गई थी कि सूर्य धरती के आसपास
नहीं, बल्कि धरती सूर्य के आसपास घूमती है। सभी के विचारों को महत्व देने की परंपरा
के तहत भारत में धार्मिक संगठनों की भी बहुतायत है। साईं बाबा का नाम सभी हिंदू जानते
हैं, जिनका उल्लेख किसी पौराणिक ग्रंथ में नहीं है। साईं बाबा कौन थे, कहां से आए थे,
कैसे भगवान का दर्जा पा गए, कोई नहीं जानता। हालांकि कुछ स्थानों पर उनकी जन्मतिथि
15 अक्टूबर 1918 बताई जाती है। द्वारका और शृंगेरी पीठ के शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती
ने बताया था कि साईं एक मुसलमान थे, उनका नाम चांद मियां था, उनका जन्म 1838 में हुआ
था और 1908 में उनका देहांत हो गया था। वे साईं की भक्ति हिंदू धर्म को बिगाड़ने का
प्रयास मानते हैं।
हिंदू धर्म में शंकराचार्य की मान्यता है, लेकिन कोई अगर साईं बाबा
की पूजा करने लग जाए तो उसे हिंदू धर्म से बाहर नहीं निकाला जा सकता। आदि शंकराचार्य
की जो भूमिका ईसवी पूर्व पांचवीं सदी में थी, उसके बाद से शंकराचार्य की परंपरा कायम
है। शंकराचार्य ने चार पीठ स्थापित की थी। जोशीमठ में ज्योतिर्मठ, पुरी में गोवर्धन
मठ, दक्षिण भारत के शृंगेरी में शृंगेरी शारदा मठ और
पश्चिमी भारत में द्वारका में द्वारका पीठ। इसके अलावा शंकराचार्य नाम से और भी कई
पीठें बन गई हैं। फिलहाल देश में करीब दो दर्जन से ज्यादा शंकराचार्य बताए जाते हैं।
कौन असली शंकराचार्य है और कौन नकली, यह विवाद साधुओं के बीच कुंभ में भी उठा था।
शंकराचार्य ने दशनामी साधु संप्रदाय की स्थापना की थी। इन संप्रदायों
में गिरी, पर्वत, सागर, पुरी, भारती, सरस्वती, वन, अरण्य, तीर्थ और आश्रम शामिल हैं।
इन दस संप्रदायों के साधुओं को 10 भागों में बांटा गया। जो पहाड़ों में विचरते थे,
वे गिरी कहलाए। कुछ साधु वनवासी हुए। सरस्वती के तट पर धर्म प्रचार करने वाले साधु
सरस्वती कहलाए। जो जगन्नाथपुरी के आसपास के क्षेत्र में प्रचार करते थे, उनका नाम पुरी
हो गया। समुद्रतटों और तीर्थ स्थलों पर रहने वाले साधु तीर्थ कहलाने लगे। उपरोक्त चार
मठों के अलावा तमिलनाडु में कांची मठ भी शंकराचार्य की ओर से स्थापित माना जाता है।
जो शैव पंथ के आचार्य होते हैं, उन्हें शंकराचार्य, मंडलेश्वर, महामंडलेश्वर
आदि की उपाधि दी जाती है। वैष्णव पंथ के आचार्यों को रामानुजाचार्य, रामानंदाचार्य,
महंत आदि की पदवी मिलती है। नागा साधु दोनों संप्रदायों में होते हैं। साधुओं के मूल
रूप से चार संप्रदाय हैं, शैव, वैष्णव, उदासीन और शाक्त। इनके कुल 13 अखाड़े हैं। इन्हीं
के अंतर्गत साधु-संतों की शिक्षा-दीक्षा होती है। इनके अलावा स्वघोषित, स्वयंभू धर्माचार्यों
की भी कमी नहीं है। इनमें से कुछ लोगों ने हिंदुत्व के हित में काम किया जिनमें महर्षि
महेश योगी, प्रभुपाद जैसे संत शामिल हैं। जबकि कुछ ढोंगी भी हैं, जैसे आसाराम, गुरमीत
राम रहीम, निर्मल बाबा, रामपाल आदि।
सनातन धर्म में से ही निकला एक संगठन प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय
विश्वविद्यालय है, जिसने धर्म के नए मानदंडों की स्थापना की है। इसकी स्थापना दादा
लेखराज ने की थी, जो भारत विभाजन से पहले हीरों के व्यापारी थे। 1937 में उन्होंने
सिंध स्थित हैदराबाद में इस संगठन की नींव रखी थी। इस संस्था में आध्यात्मिक ज्ञान
और राजयोग की शिक्षा दी जाती है। संगठन के प्रमुख होने के नाते लेखराज को प्रजापिता
ब्रह्मा नाम दिया गया। शुरू में इस संस्था में महिलाएं ही थीं, जो ब्रह्माकुमारी कहलाती
थीं। बाद में इसमें पुरुषों का भी प्रवेश हुआ और वे ब्रह्माकुमार कहलाने लगे। फिलहाल
137 देशों में इस संस्था की 8500 से अधिक शाखाएं हैं। इन शाखाओं से करीब दस लाख विद्यार्थी
जुड़े बताए जाते हैं। इसका अंतरराष्ट्रीय मुख्यालय राजस्थान के आबू में है। इस संगठन
की विचारधारा सहभागिता, आम सहमति, सम्मान, समानता और नम्रता पर आधारित है।
इस तरह और भी कई साधु-संतों का हिंदुओं के जीवन पर गहरा प्रभाव है।
कई जातियों के अलग-अलग गुरु हैं। पंजाब, हरियाणा में साधु-संतों के कई डेरे हैं, जो
अलग-अलग साधु संभालते हैं। अलग-अलग जातियों के हिंदुओं की अलग-अलग धार्मिक व्यवस्था
है। इसके बावजूद ये सभी हिंदू ही कहलाते हैं। इस परिस्थिति में हम समझ सकते हैं कि
मनु स्मृति के नाम पर हिंदुओं का
जो सामाजिक ढांचा बनाया गया था, वह तहस-नहस हो चुका है। आजकल बाजारों में उपलब्ध जिस
मनु स्मृति पर लोग भरोसा करते हैं, वह भी असली है या नहीं, कोई नहीं जानता। मनुष्यों
के बीच भेदभाव पैदा करने वाला जो जाति आधारित हिंदू समाज बना है, उसमें कई दोष हैं।
यही कारण है हिंदू धर्म में सुधार के अभियान निरंतर चलते रहते हैं और कई ढोंगी-पाखंडी
भी धर्म का बाना पहनकर इस बहती हुई गंगा में हाथ धोकर प्रतिष्ठा और धन अर्जित करते
रहते हैं। जब उनकी पोल खुलती है, तो हिंदू ही उन्हें निबटा भी देते हैं। यही हिंदुत्व
है। (बाकी अगली किस्त में)
भाषा और देवनागरी लिपि
हिंदुत्व के संदर्भ में देश का सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक विकास
किस दिशा में हो रहा है और देश किधर जा रहा है, इस पर विचार करना जरूरी है। मनुष्य
की समस्त विचार प्रक्रिया पर पाश्चात्य विचारधारा बुरी तरह हावी है। अंग्रेज सरकार
ने इस दिशा में आगे बढ़ने का मजबूत रास्ता पहले ही बना दिया था, जिसके कारण भारतीय
आध्यात्मिक ज्ञान को शिक्षा प्रणाली में कोई जगह नहीं मिली। इसी तरह आयुर्वेदिक चिकित्सा
पद्धति का भी पाश्चात्य विचारधारा में कोई महत्व नहीं बचा है। यह हकीकत सबको समझनी
पड़ेगी कि जब अंग्रेज भारत में नहीं आए थे, तब भी यहां लोग रहते थे। शासन प्रणालियां
थीं। सामाजिक जीवन था। ज्ञान की धारा प्रवाहमान थी। महाभारत, रामचरितमानस जैसे ग्रंथ
इसी देश में रचे गए हैं। इस देश में अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली लागू होने से काफी पहले
उनकी रचना हो चुकी थी। जब चाणक्य ने भारत का राजनीतिक एकीकरण किया, तब भी अंग्रेजों
का नामोनिशान नहीं था।
मुसलमानों के आने के बाद यहां जो संस्कृति बनी, उसमें सामाजिक जीवन
में बहुत बदलाव आया। मुसलमान अपनी भाषा लेकर आए। अरबी और फारसी की जगह भारत में बनी।
भारत में विभिन्न प्रांतों में कई भाषाएं चलती हैं। उनके शब्दों का समावेश करते हुए
उर्दू का विकास हुआ। इसके साथ ही देवनागरी में लिखी जाने वाली खड़ी बोली की भाषा हिंदी
बनी। उर्दू और हिंदी में कई तरह की समानताएं हैं। हिंदी का व्याकरण वेद निर्देशित है।
उसमें संस्कृत और स्थानीय भारतीय भाषाओं के शब्दों की प्रधानता है, जबकि उर्दू में
अरबी-फारसी के शब्दों का बाहुल्य है। हिंदी देवनागरी लिपि में लिखी जाती है। बाद में
उर्दू को भी देवनागरी लिपि में लिखने का चलन बना।
भाषा
पहले सिर्फ स्वरबद्ध होती थी। भाषा को लिपि में लिखने की परंपरा भारत में शुरू हुई
और देवनागरी लिपि बनी। इसके शब्द दाएं से बाएं तरफ लिखे जाते हैं। इसमें अक्षरों को
मिलाकर ऊपर एक रेखा से मिलाने पर शब्द बनते हैं। भाषा को लिपियों में लिखना सुमेरियन,
बेबीलोनियन और यूनानी लोगों ने भारत से सीखा। संस्कृत, पाली, हिंदी, मराठी, कोंकणी,
सिंधी, कश्मीरी, डोगरी, खस, नेपाली, तामांग, गढ़वाली, बोडो, अंगिका, भोजपुरी, नागपुरी,
मैथिली, संथाली, राजस्थानी आदि भाषाएं देवनागरी लिपि में लिखी जाती हैं।
देवनागरी
का विकास ब्राह्मी लिपि से हुआ, जो कि ध्वनि पर आधारित थी। अन्य भारतीय भाषाएं भी देवनागरी
से मिलती-जुलती हैं। यह जैसी बोली जाती है, वैसी ही लिखी जाती है। इस तरह उच्चारण आधारित
सर्वाधिक उपयुक्त भाषा देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली हिंदी ही है। इतिहासकारों
के मुताबिक सातवीं शताब्दी के बाद से कई राजाओं के शिलालेखों, सिक्कों में देवनागरी
लिपि का उपयोग मिलता है। मेहमूद गजनवी ने जो चांदी के सिक्के चलाए थे, उन पर देवनागरी
लिपि में संस्कृत लिखा है। कई मुस्लिम शासकों ने जो सिक्के चलाए, उन पर देवनागरी लिपि
ही देखी जाती है। अकबर के सिक्कों पर देवनागरी में राम सिया लिखा गया था।
बताया
जाता है कि ब्राह्मी लिपि 10 हजार साल पुरानी है। यह लिपि उससे भी पुरानी हो सकती है।
सम्राट अशोक ने ब्राह्मी लिपि को धम्मलिपि नाम दिया था। यह देवनागरी से भी पुरानी लिपि
है। संस्कृत भाषा भी ब्राह्मी लिपि में लिखी जाती थी। ब्राह्मी लिपि भावचित्रात्मक
होती थी। देवनागरी अक्षरात्मक लिपि है, लेकिन वह मूल रूप से ध्वनि पर आधारित है। देवनागरी
की वर्णमाला में 12 स्वर और 34 व्यंजन हैं। तालू से बोलने वाले अक्षर कखगघ, जीभ और
तालू से बोलने वाले अक्षर चछजझ, तथदधन, होठों से बोले जाने वाले अक्षर पफबभम, अन्य
अक्षर यरलवशषसह आदि। यह हिंदुओं की भाषा है। लिपि का अर्थ है लीपना या पोतना। विचारों
को लीपना ही लिपि कहलाता है। फिलहाल यह लीपने का काम बहुत हो रहा है।
आजकल
इस देश में जितने लोग भी राजनीति कर रहे हैं, वे विचारों के आधार पर ही राजनीति कर
रहे हैं और सभी हिंदू ही हैं। एक-दो को छोड़ दें तो सभी पार्टियों के समस्त नेता हिंदू
ही हैं। धर्म के आधार पर कुछ मुस्लिम या ईसाई हो सकते हैं, लेकिन उनकी राजनीतिक विचारधारा
तो हिंदुओं पर आधारित ही है। इस देश को अंग्रेजों ने एक स्वरूप दिया है और हिंदुओं
ने अपनी विश्वबंधुत्व की विचारधारा के आधार पर उसे अपनाया है। भारत से अंग्रेज सरकार
ने अपना कारोबार समेट लिया है। अब भारतीयों पर ही जिम्मेदारी है कि इस देश को किस स्थिति
में रखना है।
स्कूल-कॉलेज
ऐसे ही चलेंगे, जैसे चल रहे हैं। उनके पाठ्यक्रमों में बदलाव हो सकता है। आर्थिक विकास
की धारा भी विश्व की परिस्थितियों के आधार पर अर्थशास्त्र के सिद्धांतों से ही तय होगी।
वैज्ञानिक विकास भी प्राचीन ज्ञान का सिर्फ ढोल बजाते रहने से होने वाला नहीं है। तकनीकी
ज्ञान कहां से कहां पहुंच गया है। इन तमाम परिस्थितियों में तरह-तरह के प्रयोग हर दिशा
में, हर क्षेत्र में हो रहे हैं। और यह सत्य है कि कोई भी प्रयोग मनुष्य पर ही केंद्रित
होता है। बड़े स्तर पर कारोबार के विकास के लिए या सत्ता बनाए रखने के लिए समाज के
साथ प्रयोग किए जाते हैं।
क्या
हिंदू प्रयोग किए जाने के लिए हैं कि कोई भी आएगा उन्हें भेड़ों के समूह की तरह हांक
लेगा? कम से कम डेढ़ हजार साल से तो यही दिख रहा है। यहां यूनानियों ने शासन कर लिया,
मुसलमानों ने कर लिया, पुर्तगालियों ने कर लिया, फ्रांसीसियों ने कर लिया, अंग्रेजों
ने कर लिया, अंग्रेजों के जाने के बाद कांग्रेस ने एक अस्थायी धर्म निरपेक्षता की विचारधारा
के आधार पर शासन कर लिया। अब इस देश को हिंदू राष्ट्र बनाने की दिशा में कुछ लोग प्रयोग
कर रहे हैं। क्या इस तरह भारत विश्व शक्ति बने देशों की कतार में आ जाएगा? क्या सिर्फ
एक पार्टी को जिता देने से यह हो सकता है? जब तक इस देश के हिंदुओं को अपनी प्रतिभा
और योग्यता के अनुसार काम करने के मौके नहीं मिलेंगे, तब तक क्या भारत की प्रगति हो
सकती है? (बाकी अगली किस्त में)
हिंदुत्व
के नाम पर ठहरी हुई है भारतीय राजनीति
पिछले
दो सौ सालों में दुनिया बहुत बदल गई है। भारत के पास आध्यात्मिक ज्ञान है, जिसे कोई
छीन नहीं सकता। आज भी बड़ी संख्या में लोग मंत्रों का जाप कर-करके जिंदगी काट रहे हैं।
साधारण लोग जैसे-तैसे जीविकोपार्जन करते हैं और किसी भी तरह की विपत्ति की आशंका में
भगवान को याद करते हैं। हिंदुओं के भगवान तस्वीरों और प्रतिमाओं में बसे हुए हैं। आर्य
समाज सहित कई अन्य संप्रदाय निराकार परमात्मा की पूजा करते हैं, लेकिन उनका आधार भी
कोई न कोई चित्र है। भले ही उस धर्म को प्रचलन में लाने वाले गुरुओं की तस्वीर या अक्षर
ही क्यों न हो। हिंदुओं के कई देवी-देवता हैं। महादेव शिव, विष्णु, राम, कृष्ण, हनुमान,
लक्ष्मी, दुर्गा, सरस्वती, गणेश आदि की बड़े पैमाने पर पूजा होती है। इनके तरह-तरह
के चित्र हिंदुओं के घरों में देखे जा सकते हैं। कई त्योहार विभिन्न देवी-देवताओं के
प्रति समर्पित है। देवी-देवताओं के स्तोत्र हैं, सहस्रनाम हैं, चालीसाएं हैं, श्लोक
हैं, जिनका स्मरण करते हुए लोग समझते हैं कि वे परमात्मा को याद कर रहे हैं।
जब तक
मुसलमान नहीं आए थे, तब तक भारतीय जीवन शैली अलग थी। सिले हुए कपड़े नहीं पहने जाते
थे। मुसलमानों के आने के बाद दर्जियों को रोजगार मिला। कपड़ों की बुनाई और सिलाई का
सिलसिला शुरू हुआ। चूड़ीदार पायजामे, पायजामे, कुर्ते, अंगरखे जैसे वस्त्र प्रचलन में
आने लगे। भवन निर्माण शैलियों में काफी परिवर्तन हुआ। मुगलकाल में ताजमहल का निर्माण
सर्वोत्तम वास्तुकला का एक अनुपम उदाहरण है। सत्ता और जनता के बीच संपर्क बनाए रखने
में प्रचार तंत्र की अपनी भूमिका हमेशा से रही है। सत्ताएं अपनी विचारधारा जनता तक
पहुंचाने के लिए प्रचार तंत्र का उपयोग करती रही हैं। बाद में जनता की बात सत्ता तक
पहुंचाने के माध्यम भी बने।
मुगल
काल में कलात्मक शिलालेख, सजावट के सामान, रंगीन सरमरमर, रंग-रोगन, प्लास्टर, टाइल्स
आदि का इस्तेमाल शुरू हुआ। इतिहास की किताबों के अनुसार दिल्ली में कुतुबमीनार का निर्माण
ईसवी सन 1192 में हुआ था। यह मीनार अफगानिस्तान के मोहम्मद गोरी के सिपहसालार कुतुबुद्दीन
एबक ने स्थानीय राजपूत राजा को हराने के बाद बनवाई थी। भारतीय वास्तुकला में सीधे क्रम
में निर्माण होते थे। मुसलमानों ने धनुषाकार या मेहराबदार प्रवेश द्वार और गुंबद बनवाने
शुरू किए। भारत में पाषाण कालीन कारीगरी पहले से थी। मुसलमानों की नई वास्तु शैली जुड़ने
से भारतीय स्थापत्य को नए आयाम मिले। इसके बाद अंग्रेजों की सरकार बनने के बाद भारत
में और भी कई बदलाव हुए। अंग्रेजों का शासन चले जाने के बाद भारत में जो लोकतंत्र स्थापित
हुआ, वह धर्म निरपेक्षता की विचारधारा पर आधारित था। उसके बाद भी भारत ने कम विकास
नहीं किया है।
यह देश
जैसा भी है, यहां रहने वाले लोगों की मेहनत से बना है। आज जो भी ऐतिहासिक स्मारक दिखाई
देते हैं, उनके निर्माण में भारतीयों का ही खून-पसीना लगा है। राजनीति कैसी भी हो,
लोग जीविकोपार्जन से जुड़े अपने नियमित कार्य आस्था और विश्वास के साथ करते हैं। विज्ञान
का छात्र भी परीक्षा देने जाता है तो भगवान से प्रार्थना करने के बाद जाता है। आस्था
किसी में भी हो सकती है, राम, कृष्ण, हनुमान, गणेश, देवी आदि। यही हिंदुत्व है। हिंदुओं
की जीवन शैली के देखते हुए यहां कई मनोवैज्ञानिक प्रयोग किए गए हैं। अंग्रेजों ने हिंदुओं
के धर्म को असंगठित और जातिवाद, वर्णभेद के शिकंजे में जकड़ा हुआ देखकर आबादी का वर्गीकरण
करते हुए उनमें फूट डाली और शासन किया। इसके साथ ही शिक्षा और चिकित्सा व्यवस्था के
माध्यम से भारतीयों के धार्मिक विश्वास को नकारने का प्रयास हुआ।
अंग्रेजों
के जाने के बाद देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भारतीयों के मनोविज्ञान
को समझते हुए खुद को एक प्रधानमंत्री के रूप में प्रस्तुत किया और अपनी एक छवि बनाई।
उन्होंने गांधी के साथ अपनी तस्वीरें बड़े पैमाने पर हर जगह लगवाई। हर कांग्रेसी के
घर गांधी और नेहरू की तस्वीरें अनिवार्य रूप से लगने लगीं। कांग्रेस ने अपनी सत्ता
बनाए रखने के लिए तस्वीरों का जमकर इस्तेमाल किया। कांग्रेस के एकछत्र नेता नेहरू हुए,
बाद में उनके परिवार की सत्ता स्थापित हो गई। अब उनके वंश में कोई भी ऐसा नहीं बचा
है, जो इस देश की राजनीति को ढंग से संभाल सके, इसलिए जनता ने कांग्रेस को कोने में
समेट दिया है।
कांग्रेस
पर हिंदुत्व की उपेक्षा करने का आरोप सही है। उसकी वोट बैंक आधारित राजनीति अब फेल
हो चुकी है। समाजवादी विचारधारा से जुड़ी अन्य पार्टियां भी किसी न किसी नेता विशेष
के भरोसे चल रही है। किसी भी पार्टी की कार्यप्रणाली सिर्फ दिखावे के लिए लोकतंत्र
पर आधारित है, लेकिन उसके पीछे व्यक्ति विशेष की भूमिका ही ज्यादा दिखती है। हम कह
सकते हैं कि भारतीय राजनीति इस समय हिंदुत्व के नाम पर ठहरी हुई है और सरकार की तरफ
से सारे बौद्धिक प्रयास लोगों को राजनीतिक विमर्श से दूर रखने के लिए हैं। यह एक खतरनाक
स्थिति है। इस समय जब आर्थिक ताकतें लोकतांत्रिक व्यवस्था पर काबू करने में लगी हुई
हैं, तब आगे क्या होगा कोई नहीं जानता। क्या हिंदुओं का जीवन सिर्फ भगवान पर आस्था
के आधार पर वैसा ही चलता रहेगा, जैसा पिछले सैकड़ों वर्षों से चला आ रहा है? क्रांतिकारी
बदलाव जरूरी है। (बाकी अगली किस्त में)
सरकार
बनाम हिंदुत्व
आज हिंदुत्व
की क्या स्थिति है? जो भी हिंदू हैं, वे हिंदुत्व का पालन करते हैं। यह सनातन धर्म
आत्मा और परमात्मा के संबंधों पर आधारित है, वेद निर्देशित है, जो आज कई समूहों में
बंट चुका है, और हर समूह के लोग हिंदू हैं। इन सभी समूहों के कारोबार, जीवन-शैली, आजीविका
आदि हिंदुत्व आधारित है। सभी अपने-अपने घरों में, कुटुंब में अपनी श्रद्धा से पूजा-आराधना
करते हुए बाकी अन्य लोगों से साथ समभाव के साथ रहते हैं और एक-दूसरे के सुख-दुख में
भागीदार बनते हैं। यह देश इसी तरह सदियों से चल रहा है। राजनीति अपनी जगह है, सामाजिक
जीवन अपनी जगह। सामाजिक जीवन को गतिशील बनाए रखने के लिए अर्थव्यवस्था का सुचारु बने
रहना अत्यंत आवश्यक है, इस तथ्य को समझते हुए कभी भी किसी भी राजा ने या अंग्रेज सरकार
ने अर्थव्यवस्था में या लोगों के धार्मिक मामलों में सीधे दखल देने का दुस्साहस नहीं
किया। अंग्रेजों के शासन में एक बार वायसराय डलहौजी ने ऐसा दुस्साहस किया था, लेकिन
इसका नतीजा यह निकला स्वतंत्रता आंदोलन की शुरूआत हो गई। इसके बाद ही अंग्रेजों ने
हिंदू समाज में फूट डालना शुरू किया।
शासन
को टैक्स लगाने और गलत कारोबार को रोकने के अधिकार हैं, लेकिन इस देश में किसी को अपने
दम पर जीविकोपार्जन के लिए काम-धंधा करने से किसी ने नहीं रोका। इसी वातावरण में हिंदुत्व
फलाफूला है। इसमें राजनीति का स्थान नहीं है। हालांकि राजनीति हमेशा से रही है। सभी
सरकारों ने जनता को अपने हिसाब से हांकने के प्रयास किए हैं। लेकिन निजी व्यापार लोगों
ने अपने हिसाब से किया है। अंग्रेज सरकार ने लोगों को ज्यादा पैसे कमाने से रोकने के
लिए कई नियम बनाए, जो देश आजाद होने के बाद खत्म होने चाहिए थे, लेकिन इसका उलटा हुआ।
ऐसे-ऐसे नियम बन गए कि लोगों का सुविधाजनक तरीके से आमदनी बढ़ाना ही मुश्किल हो गया।
गांधी ने नमक पर टैक्स के खिलाफ दांडी यात्रा की थी। देश आजाद होने के बाद नमक पर कई
गुना टैक्स बढ़ चुका है। लोगों को जबरन प्रोसेस्ड नमक खाने के लिए विवश करने की नीति
अपनाई गई है। पिछले सत्तर सालों से इस देश की लोकतांत्रिक सरकारें जिस तरह चली हैं,
उसमें हिंदुओं को क्या लाभ हुआ? अंग्रेजों की फूट डालो, राज करो की नीति हर पार्टी
ने अपनाई। हिंदुओं में आपस में फूट, हिंदू-मुसलमान में फूट, प्राचीन ज्ञान का जबरन
गुणगान करते हुए अपनी बड़ाई खुद करने की आदत, धर्म पर आधारित अंधविश्वास... यह सब भारतीय
राजनीति में कूट-कूटकर भरा हुआ है।
यह सत्य
है कि हिंदू आम तौर पर ईमानदार होते हैं, लेकिन व्यवस्था उन्हें भ्रष्ट बनने के लिेए
विवश करती है। कोई भी सौ रुपए कमाएगा तो उसमें से कितने पैसे सरकार को दे सकता है?
अगर लोगों के काम करने में, रोजगार चलाने में ही सरकारी अड़ंगेबाजी रहेगी तो देश का
विकास कैसे हो सकता है? भारत का अब तक का इतिहास यही रहा है कि सरकार ने तो लोगों को
हमेशा ही खूब परेशान किया, लेकिन फिर भी देश अगर विश्व शक्ति के रूप में खड़ा है, तो
इसमें देशवासियों की मेहनत ही है। ये सभी वोट देने वाले हिंदू ही हैं। क्या इन लोगों
का इस्तेमाल वोट बैंक के रूप में करने से देश का विकास होगा? और क्या एक ही पार्टी
का समर्थन करने वाले देशभक्त कहलाएंगे? यह बहुत बड़ी विडंबना है। जैसी देशभक्ति अमेरिका
के लोगों में है, वैसी भारत में बिलकुल नहीं है और इसके लिए राजनीतिक पार्टियां जिम्मेदार
हैं।
जैसे
ही अंग्रेज तामझाम समेट कर गए, नेहरू एंड कंपनी ने सत्ता अपने कब्जे में ले ली। उन्होंने
शासन की भाषा वही रखी अंग्रेजी, जिसमें अंग्रेज काम करते थे और जो भारतीय भाषा बिलकुल
नहीं है। हिंदू लोग हिंदी के ज्यादा निकट हैं। हिंदी को भारत की प्रमुख भाषा होना चाहिए,
लेकिन उसमें भी राजनीति। हिंसक आंदोलन। कांग्रेस ने छल-कपट से उसी तरह शासन चलाया,
जैसा अंग्रेज छोड़ गए थे। कोई बदलाव नहीं। गांधीजी की हत्या हुई तो गोडसे की जाति के
लोगों के खिलाफ दंगे और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर पाबंदी। धर्म निरपेक्षता के नाम
पर एक आततायी किस्म की राजनीति। पहले जो कांग्रेसी थे, वे देशभक्त कहलाते थे। आजकल
भाजपा के लोग देशभक्त कहलाते हैं। इतिहास की किताबों में पाठ बदले जा रहे हैं। तमाम
स्वतंत्रता सेनानियों को लेकर एक अजीबोगरीब राजनीतिक खुन्नस देख्रने में आ रही है।
दलितों
ने अलग पार्टी बना ली है। पिछड़ी जातियों के लोगों की अलग पार्टियां हैं। मुसलमान कांग्रेस
के समर्थक हैं, इसलिए कांग्रेस नेता भाजपा की आलोचना करते हैं तो पाकिस्तान की भाषा
बोलने वाले कहलाते हैं। पाकिस्तान अपने देश में एक जबरदस्ती का राजनीतिक मुद्दा बना
हुआ है। जो लोग हिंदुओं की भलाई के लिए कुछ नहीं कर पाते, वे पाकिस्तान के विरोध के
नाम पर राजनीति करने लगते हैं। क्या मुसलमानों से लड़ाई-झगड़े पालना ही हिंदुओं का
काम है? भारतीय लोकतंत्र की राजनीति सर्वधर्म समभाव के आधार पर चलनी चाहिए। सर्वधर्म
समभाव ही हिंदुत्व है। राजनीति विचारधारा के आधार पर होनी चाहिए। देशभक्त सभी हैं।
किसी को भी देशभक्ति के खिलाफ घोषित करना ठीक नहीं। यह आपस में मतभेद रखने वालों का
देश है। भाइयों में मतभेद होते हैं। बहनों में मतभेद होते हैं। पति-पत्नी में मतभेद
होते हैं। पिता-पुत्र में मतभेद होते हैं। फिर भी सभी आपस में एक-दूसरे के विचारों
का सम्मान करते हैं। हिंदुओं में आपसी मतभेद हो सकते हैं, लेकिन मनभेद नहीं होता। यह
विडंबना ही है कि राजनीतिक पार्टियां इस रास्ते पर नहीं चल रही है। यह राजनीतिक वातावरण
हिंदुत्व के अनुकूल नहीं है। (बाकी अगली किस्त में)
हिंदुओं
की आस्था
संगीत,
साहित्य और कला हिंदुत्व के आधार हैं। सनातन धर्म से जुड़ी तमाम कथाएं रची जाती रही
हैं और देश के हर कोने में आरती, स्तुति, पूजा के माध्यम से संगीत गूंजता रहता है।
यह परंपरा हिंदी फिल्मों के विकास से भी बहुत पहले की है। इस देश में धार्मिक और सामाजिक
आधार पर कई गीत, भजन और नृत्य रचे गए हैं। संगीत
सुनकर मंत्रमुग्ध होने वाले लोग भारत के अलावा और किसी देश में नहीं पाए जाते हैं।
यहां तो राज दरबारों में भी संगीत और नृत्य की परंपरा
रही है। कांग्रेस की सरकार ने इस परंपरा को धर्म से अलग हटकर जारी रखने की कोशिश की,
जिससे शास्त्रीय कला का काफी विकास हुआ है, लेकिन इसे कभी भी हिंदुत्व से अलग नहीं
किया जा सकता, क्योंकि इन सबका आविष्कार ही हिंदुओं ने किया है।
मनुष्य अपने शरीर से अपनी बुद्धि
से जो कुछ कर सकता है, वह सब करने की योग्यता भारत में विदेशी शासकों के आने से पहले
ही विकसित हो चुकी है। सिर्फ तकनीकी विकास ही ऐसा था, जो भारत में नहीं हो पाया। भारत
में मोटर नहीं बनी, पेट्रोल, डीजल, गैस जैसे ईंधन नहीं बने, इसलिए तकनीकी विकास की
दौड़ में भी भारत पिछड़ गया, लेकिन पाश्चात्य यंत्रों का अपने हिसाब से उपयोग करने
में हिंदू अपनी बुद्धि का चमत्कारी उपयोग कर लेते हैं। वे मोटर साइकिल के इंजन को पानी
की मोटर से जोड़कर कुएं में से पानी निकाल लेते हैं। वाशिंग मशीन का उपयोग लस्सी बनाने
में कर लेते हैं। पेट्रोल में घासलेट मिलाकर काम चला लेते हैं।
भारत में बुद्धि का विकास इस सीमा
तक हुआ है कि जितनी कलाकारी और ठगी के तरीके भारतीयों के दिमाग से विकसित हुए हैं,
विदेशी लोग उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। जीविकोपार्जन के लिए अर्थ की उपयोगिता
के कारण भारतीयों ने पैसे कमाने के लिए ऐसे-ऐसे तरीके विकसित कर लिए हैं कि जिनसे कई
जगह मनुष्यों का जीवन तक खतरे में पड़ जाता है। चालाकी, चतुराई, चापलूसी हर जगह दिख
जाती है। कई लोग दूसरों से अपना काम निकलवाने के लिए इन गुणों का उपयोग करते हैं। ज्यादा
से लोग इस धतकरम में लग गए हैं, जिससे हिंदुत्व और उससे जुड़ी धार्मिक भावना बहुत पीछे
छूटी हुई प्रतीत होता है। कई लोगों का जीवन पाखंड से भरा हुआ मालूम पड़ता है। वे कहीं
भी पत्थर गाड़कर उस पर पानी डालने लगते हैं और उसे शिवलिंग कहते हैं। पत्थर पर सिंदूर
पोतकर उसके चारों तरफ एक घेरा बना देने से वह मंदिर हो जाता है, वहां पूजा-पाठ शुरू
हो जाता है।
जो हिंदू लोग खुद को धार्मिक बताते
हैं, उनका सोने-जागने, रहने का हिसाब-किताब आर्थिक आवश्यकताओं से प्रेरित होता है।
शादी हो जाती है, रहने के लिए पर्याप्त जगह नहीं होती। एक-एक कमरे में कई-कई लोगों
के परिवार रहते हुए देखे जा सकते हैं। वे सभी हिंदू हैं और अपनी पूरी धार्मिक आस्था
के साथ हैं। रोज सुबह काम शुरू करने से पहले स्नान करके किसी तस्वीर पर अगरबत्ती लगा
देते हैं, कुछ लोग अगरबत्ती लगाने के साथ कोई चालीसा, श्लोक, स्तोत्र, गीता के कुछ
अध्याय, किसी धर्मग्रंथ के अंश का पाठ भी कर लेते हैं। इतने मात्र से धर्म का पालन
पूरा हो जाता है। उसके बाद धंधा शुरू होता है। धर्म के नाम पर भारत में इतनी लंबी-चौड़ी
अर्थव्यवस्था विकसित हो चुकी है कि यहां कोई भी अर्थव्यवस्था कभी भी शून्य पर नहीं
पहुंच सकती है। इतने पर्व, त्योहार और रीति-रिवाज स्थापित हो गए हैं कि उनमें समाज
के जिम्मेदार लोगों को अनिवार्य रूप से कुछ-न-कुछ खर्च करना ही पड़ता है।
आजकल सारे मंदिर, मठ और धार्मिक
संगठन श्रद्धालुओं के चढ़ावे से चल रहे हैं और उनके पास इतनी संपदा सदियों से इकट्ठा
हो रही है, जिसका कोई हिसाब नहीं लगा सकता। इतिहास साक्षी है कि सोमनाथ मंदिर को लूटने
के लिए मेहमूद गजनवी ने 17 बार हमला किया था। लूट वहीं होती है, जहां भौतिक संपदा होती
है। देश में धर्म गुरुओं के तमाम आश्रम राजमहलों से कम नहीं है। जनता को त्याग का उपदेश
देने वाले साधु-संतों का धन-संपदा और संपत्ति के प्रति इतना आकर्षण आश्चर्यजनक है।
हम मान सकते हैं कि हिंदुत्व के नाम पर भोले-भाले धर्म प्रेमियों को ठगने का धंधा भी
इस देश में बहुत चलता है। क्या करने से विपत्तियां दूर होती हैं, इसका विधिवत प्रचार
किया जाता है।
इस विकट रूप से उलझे हुए सामाजिक,
धार्मिक, आर्थिक और राजनीतिक वातावरण में हिंदू बुरी तरह उलझे हुए हैं और जन साधारण
को उलझाए रखना ही राजनीति है। भारतवासी हिंदू सदियों से इस उलझन में फंसे हुए हैं।
क्या धर्म है, क्या अधर्म? क्या उचित है, क्या अनुचित? हिंदू लोग अक्सर यही सोचते रहते
हैं कि ईश्वर किस तरह प्रसन्न होंगे, जिससे उनकी तकलीफें दूर हों। ऐसे में हिंदुत्व
के नाम पर सिर्फ गिने-चुने लोगों का राजनीतिक समर्थन करने से तकलीफें कैसे दूर हो सकती
हैं? प्रश्न विचारणीय है।
हिंदुत्व की विचारधारा कसौटी पर
आज हिंदुत्व की विचारधारा कसौटी
पर है। आने वाले समय में जो इतिहास लिखा जाएगा, उसमें उल्लेख किया जाएगा कि हिंदुत्व
के आधार पर राजनीति करने के क्या परिणाम रहे। हिंदुत्व एक जीवनशैली है। सदियों से कायम
हैं। सरकारें आती-जाती रही हैं, हिंदुत्व की धारा गंगा की तरह सतत प्रवाहमान है। हिंदुत्व
की विचारधारा में आधुनिक परिवर्तन को लेकर कट्टरता नहीं है। हिंदू लोग समय के अनुसार
अपने रहन-सहन को बदल लेते हैं। उनके जीवन में कर्म प्रधान होता है। कोई नृप होए, हमें
का हानी.....यह कहावत हिंदुओं के जीवन में अक्षरशः चरितार्थ होती है।
भारत में मनुष्य को अपनी योग्यता
का विकास करने का पूरा अवसर मिलता है और यहां के लोग विभिन्न क्षेत्रों में चरम ऊंचाई
तक पहुंचे हैं, जिसके कई प्रमाण है। सभी का जीवन धर्म पर आधारित रहा है। इतने सारे
ऋषि-मुनि, महात्मा, बुद्ध, महावीर जैसे वैचारिक क्रांति करने वाले लोग और किसी देश
में जन्म लेते हुए नहीं देखे गए हैं। यहां भले ही औद्योगिक मशीनीकरण नहीं हुआ हो, लेकिन
मनुष्य का रहन-सहन, विचारधारा, व्यवहार आदि में कोई कमी नहीं है। आज देश की परिस्थिति
देखकर हम अनुमान लगा सकते हैं कि दुनिया जिस रास्ते पर आगे बढ़ रही है, उसमें लोगों
की जीविकोपार्जन के लिए सरकार पर निर्भरता बढ़ाने का काम प्रमुखता से हुआ है।
राजाओं के शासन में जनता को कपोल-कल्पित
पौराणिक कथाओं के आधार पर उलझाने के प्रयास होते थे। अंग्रेजों के शासन में यह विचारधारा
बनी कि भौतिक प्रगति के लिए हिंदुत्व की विचारधारा अनुकूल नहीं है। उन्होंने भारत में
कई सामाजिक प्रयोग किए। अपनी सरकार की मजबूती के लिए उन्होंने हिंदुओं को एकजुट होने
से रोकने के पूरे प्रयास किए। उनमें पहले से व्याप्त जातिवाद को बढ़ावा दिया। जातियों
के आधार पर हिंदुओं का वर्गीकरण करते हुए, उन्हें छोटे-छोटे हिस्सों में बांट कर एक-दूसरे
के खिलाफ खड़ा किया गया। कुछ लोगों को दलितों के नाम पर तो कुछ लोगों को धर्मनिरपेक्षता
के नाम पर बढ़ावा दिया और जब अंग्रेज भारत छोड़कर गए तो भारत की राजनीति पूरी तरह चूं-चूं
का मुरब्बा बन चुकी थी।
इस तथ्य को नहीं भूला जा सकता कि
1857 में अंग्रेज सरकार के खिलाफ पहला आंदोलन धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप करने के
बाद शुरू हुआ था। इससे पहले मुगलों के शासन का विरोध भी धार्मिक स्वतंत्रता में बाधा
डालने के बाद शुरू हुआ। इस देश में कोई भी व्यक्ति अपने धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप
पसंद नहीं करता। वह सरकारी नियमों के अनुसार जीविकोपार्जन कर सकता है, लेकिन निजी रहन-सहन
में वह अपने ही धर्म का पालन करता है। गौरतलब है कि कुछ हजार अंग्रेजों ने जब इतने
बड़े देश पर शासन किया तो यहीं के लोगों के दम पर किया। उन्होंने अंग्रेजी पढ़ाकर लोगों
को नौकरी देना शुरू किया और सिर्फ सौ साल में स्थिति यह हो गई कि अंग्रेजी का प्रभुत्व
इस देश में बनने लगा और अंग्रेजी के नाम पर नई तरह का भ्रष्टाचार शुरू हुआ।
अंग्रेजी पढ़ने से सरकारी नौकरी
मिलती है। यह बात समाज में स्थापित होने के बाद अब देश राष्ट्रीय स्तर पर अपनी स्वयं
की भाषा से भी वंचित है। इस देश में जो भी शासन करने आया, उसने अपनी राजमुद्राओं में
देवनागरी लिपि का इस्तेमाल किया। अंग्रेजों ने इस देश के हिंदुओं के भाषाई संस्कार
ही बदल दिए। अंग्रेजों के बाद जिस कांग्रेस ने शासन संभाला और अंग्रेजी शासन प्रणाली
हूबहू वैसे ही जारी रखने दी, जैसी अंग्रेज छोड़ गए थे, उस कांग्रेस के ज्यादातर नेता
इंग्लैंड में अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त करने के बाद भारत की राजनीति में आए थे।
वीर सावरकर हों या महात्मा गांधी,
जवाहर लाल नेहरू हों यो मोहम्मद अली जिन्ना, बाबा साहेब अंबेडकर हो या वल्लभभाई पटेल,
ये सभी लंदन का पानी पी चुके थे। इनमें सावरकर तो कट्टर हिंदू होने के नाते अंग्रेजों
के कट्टर विरोधी हुए और जवाहरलाल नेहरू अंग्रेजों के समर्थन से उनके अनुकूल सरकार चलाने
वाले बने। अब देश में दो बड़े राजनीतिक गुट बने हुए हैं। एक सावरकर का समर्थन करता
है, दूसरा सावरकर का विरोध करता है। सरकार वैसी ही है, जैसी अंग्रेज छोड़ गए थे और
इन दोनों का राजनीतिक भेदभाव लोगों की जान पर आफत बना हुआ है।
मौजूदा राजनीतिक परिस्थितियों में
यह भ्रम बनाने का प्रयास चल रहा है कि देश अब हिंदुत्व के आधार पर चलेगा। लेकिन इसके
पीछे जो खतरनाक नीतियां दिख रही हैं, वे भी समझ में आ रही हैं। आज सबकुछ आर्थिक ताकत
के आधार पर चलता है। जो सरकार इस देश में अंग्रेज छोड़ गए थे, उसकी आर्थिक नीतियां
अंतराराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक से निर्देशित हैं और ये नीतियां भारतीय हिसाब
से नहीं है, हिंदुत्व से भी उनका कोई संबंध नहीं है। ये नीतियां अमेरिका और ब्रिटेन
के राजनीतिक हितों के ज्यादा अनुकूल है। क्या उन्हीं के हितों को पूरा करने के लिए
हिंदुत्व के नाम से इस देश में भेड़चाल शुरू हो रही है?
सभी हिंदुओं को यह समझना चाहिए।
हिंदू अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्षधर हैं और धर्म को लेकर उनकी अपनी-अपनी विचारधाराएं
हैं। हिंदुत्व उनके जीने का तरीका है। क्या हिंदुत्व पर भेड़चाल में शामिल होने का
ठप्पा लगना उचित है? हिंदुओं ने पिछले एक हजार साल से भी ज्यादा समय से इतनी तरह के
शासन देख रखे हैं कि अगर भविष्य में कोई नई तरह की शासन व्यवस्था बनी तो वह भी भारत
में ही बनेगी। यहां यूनानियों ने शासन किया, मुसलमानों ने शासन किया, मुगलों ने किया,
पुर्तगालियों ने किया, फ्रांसीसियों ने किया, अंग्रेजों ने किया। अंग्रेजों के बाद
धर्म निरपेक्षता के नाम पर कांग्रेस का साम्राज्य चला। अब हिंदुत्व के नाम पर भाजपा
का शासन चल रहा है।
हिंदुत्व के नाम पर शासन एक अलग
बात है और शासन पर कब्जा बनाए रखने के लिए हिंदुत्व का हथियार की तरह इस्तेमाल करना
दूसरी बात। 2014 के लोकसभा चुनाव में हिंदुत्व के नाम पर लोगों ने कांग्रेस को विदा
कर दिया। 2019 में फिर भाजपा की सरकार बन गई। इसके बाद क्या होगा? हिंदुत्व के नाम
पर राजनीतिक ईमानदारी कहां है? अगर सिर्फ एक पार्टी को जिताते रहना ही हिंदुत्व मान
लिया गया है तो बात अलग है।
सिर्फ एक जनसमूह नहीं हैं हिंदू
जिन लोगों की जीवनशैली हिंदुत्व
पर आधारित है, वे यह कैसे स्वीकार कर सकते हैं कि कोई भी उन्हें अपनी मर्जी से एक जनसमूह
के रूप में इस्तेमाल कर सकता है। मुसलमान शासकों ने ऐसा किया, उनकी सत्ता चली गई। अंग्रेजों
ने ऐसा किया, उनको भी यहां से जाना पड़ा। अंग्रेज तो चले गए, लेकिन उनके शासन के जो
अवशेष यहां रह गए हैं, वे भी कभी न कभी विदा हो जाएंगे। भारत में वैचारिक प्रवाह सनातन
धर्म पर ही आधारित रहेगा, जिसका मूल वेदांत दर्शन है। सनातन धर्म में कट्टरता बिलकुल
नहीं है। इस धर्म का पालन करने वालों को अपनी आस्था के बारे में स्पष्ट विचार व्यक्त
करने की पूरी स्वतंत्रता है। इस देश में शास्त्रार्थ और वाद-विवाद का एक लंबा सिलसिला
है, जो रुकना नहीं चाहिए। अगर कोई इसे रोकने का प्रयास करता है और उसकी नीति और नीयत
पर संदेह किया जा सकता है।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लोकतंत्र
के लिए अनिवार्य होनी चाहिए। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर पाबंदी लगाने या रोकने के
कोई भी प्रयास ज्यादा दिन नहीं चल सकता। चालाकी और चतुराई में भारतीयों का मुकाबला
कोई नहीं कर सकता। लोकतंत्र की राजनीति में भी यह चालाकी और चतुराई कदम-कदम पर देखी
जा सकती है। चालाकी और चतुराई के आधार पर ही नेहरू ने अपनी तरह से शासन चलाया। यही
इंदिरा गांधी ने किया और जितने भी प्रधानमंत्री हुए हैं, वे सब अपनी राजनीतिक चतुराई
और चालाकी से ही बने हैं। कौन कितना हिंदुत्व के प्रति समर्पित है, यह अलग बात है लेकिन
इस देश पर जो भी शासन करता है, वह हिंदुओं के समर्थन के बगैर नहीं कर सकता। कांग्रेस
ने अल्पसंख्यक और जाति आधारित तुष्टिकरण की नीति अपनाई। हिंदुओं ने उसे पूरी तरह नकार
दिया। अब यह देखा जा रहा है कि कांग्रेस के निबटने के बाद जो लोग शासन संभाले हुए हैं,
वे हिंदुओं का कितना हित कर रहे हैं।
सरकार से भारत के लोगों की उम्मीदें
ज्यादा बढ़ी-चढ़ी नहीं होती है। वे मन लगाकर ईश्वर को साक्षी मानकर कर्म करते हैं और
ज्यादातर लोगों का लक्ष्य यही रहता है कि उनका सामाजिक जीवन सुविधाजनक तरीके से चलता
रहे, उनकी आजीविका चलती रहे। भारतीयों की इस प्रवृत्ति का अंग्रेजों ने जमकर फायदा उठाया। उन्होंने अपने हिसाब
से लिखा-पढ़ाकर बड़े पैमाने पर सरकारी नौकरियां बांटी। अंग्रेज सरकार की सेना के तमाम
सैनिक भारतीय ही होते थे और ज्यादातर लोग जीविकोपार्जन के लिए सेना में भर्ती होते
थे। अंग्रेज सरकार के तमाम भारतीय अधिकारी और कर्मचारी ऐसे ही थे। यही पूरा ढांचा देश
स्वतंत्र होने के बाद भी वैसा का वैसा ही बरकरार रहा। यही कारण है कि भारत इतना बड़ा
अखंड राष्ट्र बन जाने के बाद भी काफी पिछड़ा हुआ है।
लोकतंत्र
स्थापित होने के बाद भी सरकार वही है, जो अंग्रेज सरकार चलती हुई छोड़ गए थे। उसी को
कांग्रेस संभालने लगी थी और आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू हुए, जिन्होंने
जनता की धार्मिक भावनाओं का अध्ययन करते हुए खुद की महानता स्थापित करने के नाटकीय
प्रयास किए और देश को एक धर्म निरपेक्ष स्वरूप
में ढालने की कोशिश की। स्वतंत्रता आंदोलन में गांधी की भूमिका महत्वपूर्ण थी। उन्होंने
अंग्रेजों को पहले दक्षिण अफ्रीका में, उसके बाद भारत में चुनौती दी थी, जिससे वह जनता
में पूजनीय बने। पूरी कांग्रेस पार्टी उनके अनुयायी की तरह चली।
नेहरू
ने स्वयं को गांधी के प्रथम शिष्य के रूप में प्रचारित किया। अपनी विशेष वेशभूषा, धर्म
निरपेक्ष विचारधारा, प्रचार के माध्यम से एक आदर्श के रूप में अपनी छवि स्थापित करने
का प्रयास किया, जबकि हकीकत यह थी सरकार अपने अधीन आ जाने के बाद उन्होंने गांधी की
विचारधारा को लाल कपड़े में बांधकर उस पर महात्मा का लेबल लगाकर उसे पुरातत्व की श्रेणी
में डाल दिया था। गांधी की आड़ में उन्होंने खुद का जमकर प्रचार किया। उनकी सुंदर तस्वीरें
अनिवार्य रूप से सरकारी कार्यालयों में लगने लगी।
कांग्रेस
के प्रचार में नेहरू के नाम और उनकी तस्वीरों का उपयोग होने लगा। इस तरह अंग्रेजों
की बनाई खटारा हो चुकी सरकार चलाते हुए 14 साल बाद वह पर्याप्त रूप से महान हो चुके
थे। उनकी हैसियत इतनी हो चुकी थी कि उनके वंशज इस देश पर अपना अधिकार बनाए रख सकें।
गांधी भारत में अंग्रेजी शासन की प्रताड़ना से भारतीयों को बचाने के लिए जीवनभर सच्चे
मन से, पूरी ताकत और ईमानदारी से जुटे रहे। इसी लिए भारतीय लोग उन्हें सच्चा संत मानते
हैं, जिनके जीवन में कोई भी अतिरिक्त आडंबर नहीं देखा गया। जिनका हर शब्द, हर कार्य
मिसाल बना।
भारत
में यह अंतर साफ देखा जा सकता है। कुछ लोग अपनी योग्यता और प्रतिभा से स्वतः ही समाज
में अपना महत्वपूर्ण स्थान बना लेते हैं, जैसे बुद्ध, महावीर, शंकराचार्य, रामकृष्ण
परमहंस, स्वामी विवेकानंद, स्वामी दयानंद सरस्वती, गुरु नानक, सावरकर, गांधी आदि। कुछ
लोग ऐसे भी होते हैं जो प्रचार तंत्र का उपयोग करते हुए महान बनने का प्रयास करते हैं।
इतिहास सभी को दर्ज करता रहता है कि कौन ईमानदारी से समाज के हित में काम करता रहा
और किसने खुद का प्रचार करते हुए महान बनने की कोशिश की। इतिहास अपना काम करता है,
लेकिन वर्तमान हमेशा समाज की जिम्मेदारी संभालने वालों की करनी से प्रभावित होता रहता
है। जो लोग हिंदुत्व के प्रति आस्था रखते हैं, उन्हें इस तथ्य की तरफ अवश्य ध्यान देना
चाहिए।
हिंदुत्व
का आधार कण-कण में भगवान
भारत
में जब भी लोगों की धार्मिक आस्था के साथ छेड़छाड़ हुई है, शासन करने वालों को इसका
खामियाजा भुगतना पड़ा है। यहां के लोगों का जीवन धर्म के आधार पर चलता है। इस देश के
लोगों की मान्यता रही है कि कण-कण में भगवान समाए हुए हैं। हर परमाणु ईश्वर का अंश
है। जब भी यहां धर्म परिवर्तन या लोगों की धार्मिक आस्था को बदलने के प्रयास हुए, उसका
तीखा प्रतिकार हुआ है। और यह काम इस देश में बहुत हुआ है। सम्राट अशोक ने सनातन धर्म
छोड़कर बौद्ध धर्म को बढ़ावा दिया, देश में विरोध शुरू हो गया। शंकराचार्य ने बौद्धों
की धार्मिक रीति-नीति का विरोध करते हुए सनातन धर्म के मूल्यों की स्थापना की और बौद्ध
धर्म भारत से बाहर चला गया।
आज विश्व
में बौद्ध धर्म मानने वालों की संख्या बहुत
है, जबकि भारत में बौद्ध अल्पसंख्यक हो गए हैं। बौद्ध धर्म के अनुयायी सबसे ज्यादा
चीन, जापान, हांगकांग, कोरिया, ताइवान, मकाउ, वियतनाम, कंबोडिया, लाओस, म्यांमार, थाईलैंड,
सिंगापुर, श्रीलंका, मलेशिया, ब्रुनेई, इंडोनेशिया, तिमोर, फिलीपींस, तिब्बत, भूटान,
हिमालय क्षेत्र, मंगोलिया, रूस आदि देशों में पाए जाते हैं। 2010 में किए गए एक अध्ययन
के मुताबिक उस समय विश्व में विश्व की जनसंख्या के 32 फीसदी (2.2 अरब) ईसाई, 23 फीसदी
(1.6 अरब) मुस्लिम, 15 फीसदी (एक अरब) हिंदू, सात फीसदी (करीब 50 करोड़) बौद्ध,
0.2 फीसदी (1.4 करोड़) यहूदी धर्म के अनुयायी थे। इसके अलावा अफ्रीका, चीन, अमेरिका
और आस्ट्रेलिया के कई पारंपरिक पंथ-धर्म मानने वालों की संख्या 40 करोड़ से ज्यादा
थी।
यह एक
प्रमाण है कि भारत में सनातन धर्म से अलग किसी अन्य धर्म को मान्य नहीं किया जाता है
और सनातन धर्म की मान्यताओं के खिलाफ धार्मिक नीतियां बनाने वाले शासक यहां ठीक से
शासन नहीं कर सकते। सनातन धर्म या हिंदू धर्म अपने आप में बहुआयामी है। यह कई तरह के
फूलों के गुलदस्ते की तरह, एक बगीचे के समान है। यहां सभी धर्मों को शरण मिलती है,
लेकिन जब भी राजनीतिक कारणों से धर्म परिवर्तन के या कट्टरता फैलाने के प्रयास होते
हैं, उसका तीखा विरोध भी होता है। अंग्रेजों ने के यहां लोगों की भाषा बदल दी, उनके
जीने के तौर-तरीके बदल दिए। धर्म परिवर्तन करने के लिए ईसाई मिशनरियों को भी खूब बढ़ावा
दिया, लेकिन वे बड़े पैमाने पर हिंदुओं की आस्था को नहीं बदल पाए। हिंदुओं की धार्मिक
आस्था स्वतंत्र होती है।
इस सिलसिले
में जिद्दु कृष्णमूर्ति का उल्लेख आवश्यक है। थियोसोफिकल सोसायटी ने जिद्दु कृष्णमूर्ति
को विश्वगुरु घोषित करने के लिए प्रशिक्षित किया था। उनका जन्म तमिलनाडु में 12 मई
1895 को अपने माता-पिता की आठवीं संतान के रूप में हुआ था। कृष्ण भी वसुदेव और देवकी
की आठवीं संतान थे, इसलिए उनका नाम कृष्णमूर्ति रखा गया। कृष्णमूर्ति के पिता थियोसोफिकल
सोसायटी से जुड़े हुए थे। थियोसोफिकल सोसायटी की स्थापना रूस की हैलेना पैत्रोवना ब्लैवेतस्की
और अमेरिका के कर्नल हेनरी स्टील आल्कार ने 17 नवंबर 1875 में की थी। विश्व में एक
नए धार्मिक पंथ की स्थापना इस सोसायटी का उद्देश्य था। नए पंथ की स्थापना के लिए भारत
सबसे अनुकूल स्थान होने से 1879 में इस सोसायटी का मुख्यालय मुंबई में स्थापित किया
गया। 1882 में इसका प्रधान कार्यालय अद्यार (चेन्नै) स्थानांतरित कर दिया गया।
1895 में इसका मुख्यालय वाराणसी ले जाया गया। शुरू में थियोसोफिकल सोसायटी ने आर्य
समाज के साथ मिलकर अपनी गतिविधियां शुरू की। बाद में वह स्वतंत्र रूप से आध्यात्मिक
गतिविधियां चलाने लगी।
फिलहाल
थियोसोफिकल सोसायटी की अद्यार स्थित शाखा के पास 266 एकड़ जमीन, कई भवन और कार्यालय
हैं। यहां का पुस्तकालय विश्व के सर्वोच्च स्तर के पुस्तकालयों में शामिल है, जिसमें
12 हजार तालपत्र की पांडुलिपियां, छह हजार अन्य प्राचीन हस्तलिखित पांडुलिपियां और
60 हजार से ज्यादा पुस्तकें हैं, जो पाश्चात्य एवं भारतीय धर्म, दर्शन और विज्ञान से
संबंधित हैं। इस सोसायटी की मान्यता थी कि विश्व में एक नए धर्मगुरु का अवतरण होने
वाला है। एक बार 1909 में सोसायटी के वरिष्ठ पदाधिकारी चार्ल्स वेब्स्टर लीडबीटर मद्रास
के अड्यार तट पर टहल रहे थे। तब उन्होंने अपने में गुमसुम एक 13 वर्षीय दुबले-पतले
बालक को देखा, जो कि जिद्दु कृष्णमूर्ति थे। उन्होंने कृष्णमूर्ति को इनके माता-पिता
की अनुमति से अपने संरक्षण में ले लिया। थियोसोफिकल सोसायटी की तत्कालीन प्रमुख एनी
बेसेंट ने कृष्णमूर्ति को शिक्षा-दीक्षा के लिए इंग्लैंड भेज दिया। जब वह 1921 में
लौटे तो एनी बेसेंट ने उन्हें विश्व गुरु घोषित करने का प्रयास किया।
कृष्णमूर्ति
ने अपने पहले ही संबोधन में घोषणा कर दी कि वे न तो कोई विश्व गुरु हैं और न ही उनका
कोई अनुयायी है। उन्होंने 1929 में ऑर्डर ऑफ द ईस्ट का खिताब वापस करते हुए थियोसोफिकल
सोसायटी से अपना संबंध तोड़ लिया। उनका मानना था कि गुरु एक सत्ता होती है और किसी
भी प्रकार की सत्ता का अनुयायी कभी भी अपने चेतन-अचेतन को उसके वास्तविक स्वरूप में
नहीं समझ सकता। उन्होंने विश्व के सभी संगठित धर्मों के खिलाफ अपने विचार व्यक्त करने
शुरू किए। उन्होंने कहा, किसी भी धर्म, दर्शन, विचार या संप्रदाय के मार्ग पर चलकर
सत्य को हासिल नहीं किया जा सकता। वह मानते थे कि सत्य एक मार्ग रहित भूमि है और सत्य
की खोज के लिए मनुष्य का सभी बंधनों से मुक्त होना जरूरी है। उनका कहना था कि लोग एक
धर्म त्यागकर दूसरा अपना लेते हैं, एक राजनीतिक पार्टी छोड़कर दूसरी पकड़ लेते हैं,
यह सतत बदलाव उस अवस्था को दर्शाता है, जिसमें बुद्धिमत्ता नहीं है।
आज भारत
में कृष्णमूर्ति के विचारों का बहुत सम्मान है और वह भी एक संत की श्रेणी में माने
जाते हैं। कृष्ण ने जो उपदेश गीता में दिए थे, कृष्णमूर्ति के विचारों में भी उसकी
झलक देखी जा सकती है। इस उदाहरण से भारत में सनातन धर्म या हिंदुत्व का महत्व समझा
जा सकता है। तमिलनाडु में जन्मे कृष्णमूर्ति ने इंग्लैंड में पूरे ऐशो आराम के साथ
धार्मिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद घोषणा की कि वह खुद को विश्व गुरु नहीं मान सकते।
गीता में भी कृष्ण ने कहा है कि जो व्यक्ति परमात्मा को छोड़कर किसी अन्य व्यक्ति के
प्रति आस्था रखता है, वह धर्म के अनुकूल नहीं है। कृष्णमूर्ति विश्वगुरु घोषित कर दिए
गए थे और वह अपनी अलग धार्मिक सत्ता कायम कर सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया।
(बाकी अगली किस्त में)
संतों
की भूमि पर वैचारिक प्रदूषण की शुरुआत
भारत
संतों की भूमि है। यहां जन्म लेने वालों की मानसिकता विचित्र है। इस पर पूरी दुनिया
को आश्चर्य है। यहां के हिंदू धर्म परिवर्तन करने के बाद भी हिंदू ही बने रहते हैं।
हिंदुओं का मानसिकता का मनोवैज्ञानिक उपयोग करते हुए यहां ईसाई धर्मावलंबियों के साथ
ही अंग्रेजी परस्त लोगों ने हिंदुओं की जीवनशैली बदलने के भरसक प्रयास किए और एक हद
तक सफल रहे। अब ईसाई धर्म प्रचारकों ने अपने धर्म के साथ वेद शब्द भी जोड़ दिया है
और अंग्रेजी नहीं जानने वाले पिछड़े हुए हिंदुओं का धर्म परिवर्तन करने के उद्देश्य
से वे बाइबल की शिक्षाओं का प्रचार सत्यवेद के नाम से कर रहे हैं। वेद शब्द हिंदुओं
की रग-रग में बसा हुआ है और उनकी आस्था धर्म परिवर्तन के बाद भी वैसी ही रहती है, जैसी
धर्म परिवर्तन से पहले थी। वे हिंदू देवी-देवता की तस्वीर की जगह ईसा मसीह या किसी
मजार की तस्वीर की पूजा करने लगते हैं। गीता, रामायण, हिंदू कथाएं छोड़कर बाइबिल, कुरान
आदि से संबंधित साहित्य पढ़ने लगते हैं। इस पूरे धतकरम में धर्म बहुत पीछे छूट जाता
है।
भारत
के लोगों ने अपनी बुद्धि का सबसे ज्यादा उपयोग जीने की कला सीखने में किया। वे विज्ञान
और तकनीक से दूर रहे, लेकिन शरीर और बुद्धि का बेहतर प्रयोग कैसे किया जा सकता है,
इसके तरीके उन्होंने पर्याप्त रूप से विकसित किए। योग, ध्यान, तंत्र-मंत्र, जप-तप आदि
भारत में ही विकसित हुए हैं। इससे आगे बढ़कर संगीत और साहित्य में भी भारत की तुलना
नहीं हो सकती। संगीत की धारा इस देश में कब से प्रवाहमान है, कोई नहीं जानता। सात स्वर,
उनके आयाम, ताल आदि के आधार पर गीत-संगीत की रचना भारत में ही संभव हो सकी है। यहां
जानवरों की आवाजों जैसा संगीत रचने का प्रयास कभी नहीं हुआ। पुरुष के पौरुष और स्त्री
के स्त्रीत्व को निखारने की कलाएं भारत में ही विकसित हुई हैं। इतनी गायन शैलियां,
इतनी नृत्य शैलियां, गजलें आदि भारत के अलावा विश्व के
और किस हिस्से में देखी जा सकती हैं। इसका विकास मनुष्य की लगन से हुआ है। कोई भी महान
रचना व्यापार के उद्देश्य से नहीं रची जा सकती। हिंदुओं के जीवन में व्यापार का स्थान
काफी पीछे रहा है, जिसका खामियाजा आज हिंदू भुगत रहे हैं।
अमेरिकी लेखक एल्विन टॉफ्लर ने
1950-60 में तहलका मचाने वाली तीन किताबें लिखी थीं, थर्ड वेव, फ्यूटर शॉक और पॉवर
शिफ्ट। इन किताबों में उन्होंने तकनीकी क्रांति की वजह से भविष्य की बदलने वाली तस्वीर
दिखाने का प्रयास किया था। उन्होंने लिखा था, संगीत, खेल और मनोरंजन जैसे साधनों का
व्यापारीकरण हो जाएगा, संगठन खत्म होंगे, भीड़ बढ़ेगी, कई लोग एकसाथ एक ही परिसर में
रहेंगे, लेकिन उनका एक-दूसरे से संपर्क नहीं रहेगा। उन्होंने और भी बहुत सी खतरनाक
बातें लिखी थीं। उनकी किताब फ्यूटर शॉक की विश्व में 60 लाख से ज्यादा प्रतियां बिकी
थीं। जैसा उन्होंने लिखा था, वैसा हम आज होता हुआ देख सकते हैं।
पहले दुनिया बाहुबल प्रधान थी। मोहल्ले
का दादा मोहल्ले का नेता होता था। उसके बाद आर्थिक ताकतों का वर्चस्व बढ़ा। बड़े कारोबारी,
धंधेबाज शासन को प्रभावित करने लगे। अगला चरण बुद्धिबल प्रधान रहेगा। अपराधों में भी हम इस सिलसिले
का क्रमिक विकास देख सकते हैं। घोटालों का बढ़ना अपराधों में बुद्धिबल का प्रयोग होने
का प्रतीक है। समझा जा सकता है कि स्वार्थ के कारण बुद्धि का दुरुपयोग करने के मामले
भी बढ़ रहे हैं। यह पूरा सिलसिला अंग्रेजों ने इस देश में शुरू किया है। भारत की दशा
बिगाड़ने के लिए अंग्रेजों की तरफ से लॉर्ड थॉमस बैबिंग्टन मैकाले ने अपनी बुद्धि का
दुरुपयोग किया था। वह 1834 तक से 1838 तक भारत की सुप्रीम काउंसिल में लॉ मेंबर और
लॉ कमीशन का प्रमुख रहा था।
मैकाले
ने दो फरवरी 1835 में ब्रिटिश संसद में भाषण दिया था, जिसके एक अंश का हिंदी अनुवाद
इस तरह है – “मैं भारत में काफी घूमा हूं। दाएं-बाएं, इधर-उधर मैंने यह देश छान मारा
और मुझे एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं दिखा, जो भिखारी हो, जो चोर हो। इस देश में मैंने इतनी
धन दौलत देखी है, इतने ऊंचे चारित्रिक आदर्श और इतने गुणवान मनुष्य देखे हैं कि मैं
नहीं समझता कि हम कभी भी इस देश को जीत पाएंगे, जब तक इसकी रीढ़ की हड्डी को तोड़ नहीं
देते जो इसकी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत है और मैं इसलिए यह प्रस्ताव रखता हूं
कि हम इसकी पुरानी और पुरातन शिक्षा व्यवस्था, उसकी संस्कृति को बदल डालें, क्योंकि
अगर भारतीय सोचने लग गए कि जो भी विदेशी और अंग्रेजी है, वह अच्छा है और उनकी निजी
चीजों से बेहतर हैं, तो वे अपने आत्म गौरव, आत्म सम्मान और अपनी ही संस्कृति को भुलाने
लगेंगे और वैसे बन जाएंगे, जैसा हम चाहते हैं। एक पूर्ण रूप से गुलाम भारत।“
मैकाले
ने यह भाषण 1835 में लंदन में दिया था। उसके 181 साल बाद आज की इस स्थिति में देख सकते
हैं कि ज्यादातर हिंदू किस कदर मानसिक गुलामी की स्थिति में पहुंचे हुए हैं। जिन हिंदुओं
को अंग्रेजों ने गुलाम बनाया था, वे देश आजाद होने के बाद भी गुलामी की दशा में है।
हर चीज को व्यापार से जोड़ने से जो परिस्थिति बन गई है, उसने भारतीयों का पूरा जीवन
बदल दिया है। परिवार है, घर चलाना है और उसके लिए जो पैसे की जरूरत बन गई है, उसके
कारण अधिकांश साधारण लोग किसी न किसी के लिए मनमानी शर्तों पर काम कर रहे हैं। क्या
यह गुलामी की दशा नहीं है? जब सरकार की नीतियां भी जनता की जेब से पैसे निकालकर अपना
खजाना भरने की हो जाए तो जो हो सकता है, वह हो रहा है।
अंग्रेजी
शिक्षा प्रणाली के कारण बदलात हिंदुत्व का स्वरूप
हिंदुत्व
की सामाजिक धारा को अस्त-व्यस्त करने में लॉर्ड मैकाले की महत्वपूर्ण भूमिका रही। द
इंडियन पीनल कोड (भारतीय दंड विधान) की रूपरेखा उसी ने तैयार की थी। उसने अंग्रेजी
को भारत की सरकारी भाषा बनाया। यूरोपीय साहित्य, दर्शन और विज्ञान की शिक्षा की रूपरेखा
तैयार की। उसने भारत में अंग्रेजों के नौकर पैदा करने का कारखाना खोला, जो कि आज भी
अंग्रेजी स्कूल, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के रूप में विद्यमान है और आज नौकरी करना
सम्मानित पेशा माना जाता है। मैकाले का दर्शन लागू होने से पहले हिंदू इस कहावत पर
अमल करते थे- उत्तम खेती, मध्यम बान। अधम चाकरी, भीख निदान। अंग्रेजों की इस इस शिक्षा प्रणाली से पारंपरिक कुटीर उद्योग, हस्तशिल्प
आदि का सिलसिला थमा और बेरोजगारों की संख्या बढ़ी। सत्ता की राजनीति अपनी जगह चलती
रही और इससे हिंदुओं का पूरा सामाजिक जीवन प्रभावित हुआ।
गौरतलब
है कि अंग्रेजों ने व्यापार करने के लिए भारत में कदम रखा था और यहां के लोगों का भोलापन
देखकर उन्हें अंग्रेजी के मायाजाल में फंसा लिया। यहां के राजाओं की कमजोरियों के आधार
पर तरह-तरह का दबाव बनाया। जो राजा अनुकूल नहीं थे, उन्हें परेशान किया और जो अनुकूल
थे, उन्हें तरह-तरह की उपाधियों से नवाजा। इस प्रक्रिया में कुछ राजा अंग्रेजों के
समर्थक बने और कुछ विरोधी। अंग्रेजी स्कूलों, कॉलेजों से पढ़कर नवयुवकों की जो फौज
तैयार हुई, उनमें भी ज्यादातर अंग्रेजों के समर्थक हो गए। इस तरह इस देश में हिंदुत्व
की धारा को प्रदूषित और कमजोर करने का प्रयास हुआ, जिसमें अंग्रेज काफी हद तक सफल रहे।
अंग्रेजों
की व्यापार नीति के कारण अर्थव्यवस्था का स्वरूप ऐसा बना कि लोगों को जीविकोपार्जन
के लिए पैसे कमाना जरूरी हो गया। इस तरह देश में पैसे कमाने की परंपरा बनी और आज कई
लोग थोड़े से पैसे कमाने के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार दिखते हैं। पैसे कमाने की
इस सख्त जरूरत के कारण आज मनुष्य की योग्यता,
क्षमता आदि बाजार में बिकने के लिए तैयार है। जो जितना ज्यादा पैसे कमाता है, वह उतना
ही श्रेष्ठ माना जाता है। आज कोई स्वामी विवेकानंद नहीं है, जो कांचन (धन) और कामिनी
(स्त्री) से दूर रहते हुए हिंदुत्व का महत्व प्रतिपादित करता हो। भारत में योग्य मनुष्यों
का सम्मान होता रहा है। लेकिन अब वह बात नहीं रही। आज कोई भी प्रचार तंत्र पर पैसे
खर्च कर आडंबर और तामझाम के जरिए समाज में अपना सिक्का चला सकता है।
अंग्रेज
सरकार ने एक खतरनाक काम यह किया कि इस देश के प्राकृतिक संसाधनों का असीमित दोहन करते
हुए अपने व्यापार का विस्तार किया और अपनी सत्ता बनाए रखने के लिए आर्थिक ताकत का सूझबूझ
से इस्तेमाल किया। उन्होंने इस देश के हिंदुओं का भी प्राकृतिक संसाधन के रूप में इस्तेमाल
कर लिया। उन्हें अपने तरीके से पढ़ाया-लिखाया, उनके दिमाग से वे सारी पुरानी बातें
मिटा दीं, जिनके आधार पर हिंदू अपने हिंदुत्व पर गर्व किया करते थे। रामायण, महाभारत
की जगह शेक्सपियर लोगों के दिमाग पर छाने लगा और अपने ही वजूद पर सवाल उठाने वाले हिंदुओं
की एक बड़ी फौज तैयार हो गई। शासन चलाने वाले अफसरों का एक ऐसा सिलसिला कायम हुआ, जिसमें
भारतीय प्रतिभा के समुचित उपयोग की संभावनाएं नगण्य होती चली गईं और एक ऐसे लिजलिजे
तंत्र का निर्माण हुआ, जिसके माध्यम से मानवीय ऊर्जा व्यर्थ के कार्यों में नष्ट होने
लगी।
आज शहरीकरण
हो रहा है। आर्थिक शक्ति के दुरुपयोग से विकास के नाम पर देश की एक ऐसी तस्वीर बनाई
जा रही है, जिसमें आगे चलकर हिंदुओं का जीवन दूभर हो जाने वाला है। लोगों की दिनचर्या
बदल गई है। बैठने-उठने के तरीके बदल गए हैं। खान-पान बदल गया है। रहने की जगह अत्यंत
हास्यास्पद होती जा रही है। गांवों की हालत दयनीय है। शहरों में रहना मुश्किल। सौ फीसदी
आबादी में से सिर्फ दस फीसदी लोग संपन्न हैं, बाकी जैसे-तैसे गुजर-बसर कर रहे हैं।
शहरों में जिन लोगों की आमदनी एक लाख रुपए प्रति माह नहीं है, वे इंसानों की तरह नहीं
रह सकते। उन्हें जानवरों की तरह जगह का जुगाड़ करके रहना पड़ता है। एक समाज को भेड़ों
के झुंड के रूप में कैसे तब्दील किया जाता है, यह अंग्रेजों ने भारत को सिखाया है और
उनके जाने के बाद जो भी नेता देश को संभालते रहे हैं, वे भी अंग्रेजों की सीख पर अक्षरशः
अमल कर रहे हैं।
कांग्रेस
ने अंग्रेजों की सरकार वैसी-की-वैसी बनाए रखी, जिससे उसके शासन में भ्रष्टाचार बढ़ता
गया। लोगों ने दो-तीन बार कांग्रेस से पीछा छुड़ाने की कोशिश की, लेकिन सफल नहीं हुए।
अब एक हिंदुत्व आधारित पार्टी भारतीय जनता पार्टी को समर्थन देकर हिंदुओं ने कांग्रेस
को राष्ट्रीय राजनीति से विदा करने का प्रयास किया है, लेकिन देश की क्या स्थिति है?
क्या सुधार के नाम पर आम जनजीवन पर विपरीत असर नहीं हो रहा है? सरकार उसी तरह चल रही
है, जिस तरह अंग्रेज चलाते थे। जिस कानून के आधार पर भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरु सहित
कई क्रांतिकारियों को फांसी दी गई, वे अभी भी कायम हैं। अधिकांश सरकारी साहित्य अंग्रेजी
में लिपिबद्ध होता है, जिसका अनुवाद बाद में हिंदी में होता है। क्या हिंदू इतने गए
गुजरे हो गए कि उनके ही देश में उनकी अपनी भाषा नहीं चल सकती? क्या हिंदी इतनी रद्दी
भाषा है कि काम की बातें पहले अंग्रेजी में लिखनी पड़ती है? क्या यह सूरज को एक तंबू
से ढंककर उसमें हिंदुओं के दिमाग को कैद करने का प्रयास नहीं है?
हिंदू
कहां पहुंचेंगे और हिंदुत्व की क्या स्थिति होगी, इसकी कल्पना भयावह है। भारतीय मानसिकता
का कचूमर निकल चुका है और अन्य तरह-तरह की मानसिकताएं लोगों के दिमाग पर हावी है। समग्र
रूप से समाज की भलाई सोचने की बजाय टुच्चे विषयों को मुद्दा बनाकर राजनीति हो रही है।
कहीं जातिवाद, कहीं अल्पसंख्यक तुष्टिकरण तो कहीं बहुसंख्यक तुष्टिकरण। उद्देश्य क्या
है? देशभक्ति कहां है? हर पार्टी किसी भी तरह अपना जनाधार बढ़ाना चाहती है और पार्टियों
के नेता राजा की तरह रहना चाहते हैं। यह सब करने के लिए वे कुछ भी करने के लिए तैयार
हैं। यही हाल धार्मिक संगठनों का है। जनता को बरगलाकर अपने स्वार्थ पूरे करने का कार्य
हर जगह चल रहा है। हर एक के मन में यह भावना मजबूती से घर कर रही है कि धन है तो सबकुछ
है। इस भेड़चाल में समाज में अच्छे शिक्षक, विचारक, मार्गदर्शक, वैज्ञानिक, शोधकर्ता
आदि के उभरने की संभावनाएं समाप्त होती जा रही है। जो साधु-संत हैं, उनका हाल भी सबको
पता है। उनमें से कई छल-कपट से भरे हुए हैं। धर्म के नाम पर लोगों को ठग रहे हैं और
अपनी संपत्ति का विस्तार कर रहे हैं। ऐसे कुछ लोग तो बलात्कार, हत्या, गुंडागर्दी जैसे
आरोपों में जेल पहुंच गए हैं। यह सोचने की बाद है कि हिंदुओं का जीवन किस रास्ते पर
है।
जाति,
कुटुंब, परिवार और हिंदुत्व
हिंदुओं
का जीवन जाति, कुटुंब और परिवार पर निर्भर है। एक परिवार होता है, पति-पत्नी और बच्चे।
उसके बाद पोते-पोती-नाती। इस तरह परिवार का विस्तार होता है। हरेक की अपनी जातीय परंपराएं
हैं, जिनके आधार पर वे अपने बच्चों के विवाह करते हैं। विवाह के बाद और बच्चे पैदा
होते हैं, इस तरह समाज का विस्तार होता चला जाता है। भारत एक स्वतंत्र लोकतांत्रिक
गणराज्य बना, उसके बाद पहली जनगणना 1951 में हुई थी, तब जनसंख्या 36 करोड़ थी। अब
125 करोड़ के करीब जनसंख्या है। 2022 में भारत दुनिया का सबसे बड़ी जनसंख्या वाला देश
बन जाएगा। भारत का भौगोलिक क्षेत्र स्थिर होने के कारण जनसंख्या में लगातार बढ़ोतरी
चिंताजनक समस्याएं पैदा कर रही हैं। अमेरिका में प्रति वर्ग किलोमीटर 35, चीन में प्रति
वर्ग किलोमीटर 146 और भारत में 441 लोग रहते हैं। इस तरह भारत दुनिया में सबसे सघन
आबादी वाला देश बनता जा रहा है। आजादी के समय जितने लोग थे, उनसे ज्यादा तो आज गरीबी
की रेखा के नीचे रह रहे हैं।
एक बार
उद्योगपति जेआरडी टाटा ने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से कहा था कि जनसंख्या
पर नियंत्रण के उपाय शुरू होने चाहिए। उनकी बात पर नेहरू ने गौर नहीं किया था। जनसंख्या
बढ़ती है तो परिवारों की संख्या बढ़ती है। हर परिवार के सामने अपने बड़े हो रहे बच्चों की शादी करने की समस्या होती है। प्राचीन काल से
ही जन्म, परण और मरण से संबंधित परंपरागत रीति-रिवाज हिंदुओं को इस कदर बांधे हुए हैं
कि उन्हीं के आधार पर उनका सामाजिक जीवन चलता है। ज्यादातर लोग शादियां अपनी जाति में
ही करते हैं। अब यह कट्टरता टूट रही है। सामाजिक-आर्थिक हैसियत के आधार पर भी संबंध
तय होने लगे हैं। कई लोग प्रेम विवाह भी करने लगे हैं।
स्त्री-पुरुष
के आपसी प्रेम और स्वतंत्रता पर हमेशा से ही कड़ी निगरानी रही है। परिवार बनने के बाद
पति-पत्नी विवाहेतर संबंध नहीं जोड़ सकते। कई कारणों से आसानी से शादियां नहीं होती।
इन समस्याओं को हल करने के लिए हिंदुओं के कई अन्य पंथ विकसित हुए हैं और उनमें आसानी
से वैवाहिक संबंध तय होने लगे हैं। स्त्रियों को लेकर जितना अनुसंधान भारतीय पुरुषों
ने किया है, वह अद्वितीय है। स्त्रियों के सौंदर्य के आधार पर विशाल साहित्य की रचना
हुई है। स्त्रियों को लेकर बड़े-बड़े लड़ाई-झगड़े हुए हैं। पुरुषों ने स्त्रियों की
देह और उनकी कमनीयता का हर तरह से उपयोग करते हुए उन्हें घरों में इस तरह कैद करने
की कोशिश की है कि भारतीय स्त्रियां अब तक अपनी स्वतंत्रता के लिए छटपटाती हुई दिखती
हैं। स्त्रियों का व्यावसायिक उपयोग भी बहुत होता है, जिससे एक काम वासना प्रधान समाज
बन रहा है। मनुष्य की ऊर्जा को व्यर्थ नष्ट करने का पूरा इंतजाम है जिससे सामर्थ्यहीन
होगों की फौज बन गई है, जो कि लोकतांत्रिक शासन में बहुमत में है।
हिंदुओं
के जीवन में बुद्धि के दुरुपयोग की पराकाष्ठा है। यहां लोग आर्थिक लाभ के लिए कुछ भी
करते हैं। किसी को भी नुकसान पहुंचाने के लिए तैयार रहते हैं। यूरिया मिला कर दूध बना
लिया जाता है और लीद मिलाकर पिसा हुआ धनिया बेच दिया जाता है। गुटखों के नाम पर पता
नहीं क्या-क्या बेचा जा रहा है। कई सरकारी अधिकारी सरकार से मिलने वाले वेतन को मुफ्त
समझकर असली कमाई रिश्वत के माध्यम से करते हैं। वे रिश्वत देने वाले का काम ईमानदारी
से कर देते हैं, यह उनकी चारित्रिक विशेषता है। सरकार चलाने के लिए चुनाव जीतना जरूरी
है, इसलिए राजनीतिक पार्टियों के पास लुभावने वादों की भरमार है। कई लोग जनता के हित
के नाम पर अपना हित कर रहे हैं। यह इस समय देश की तस्वीर है। भारत हमेशा की तरह प्रयोगशाला
बना हुआ है। यहां की जनता के साथ राजनीतिक प्रयोग करने का सिलसिला लंबा है।
अपराधों
का भी आधुनिकीकरण हुआ है। तरह-तरह के अपराध होने लगे हैं। कोई भी तकनीकी विकास होते
ही अपराधी भी उसे हाथोंहाथ लेते हैं। पैसे लेकर अपराध करने का एक नया सिलसिला बना है।
कई माफिया संगठन विकसित हो गए हैं, जो महानगरों के भीड़भरे इलाकों में सक्रिय हैं।
जीवन गुजारने के लिए पैसे की सख्त जरूरत होने से कई लोग सिर्फ पैसे कमाने के लिए अपराध
करते हैं। आम आदमी की मेहनत को हड़पने के ऐसे-ऐसे उपाय विकसित हो गए हैं कि लार्ड मैकाले
ने भी नहीं सोचा होगा कि उनके चलाए सिलसिले से आगे चलकर भारत की ऐसी हालत हो जाएगी।
अंग्रेज
भारत से चले जाने के बाद भी मार्गदर्शक की भूमिका हैं और हिंदू-मुसलमानों के बीच पैदा
हुई सदियों पुरानी खाई, जिसे धर्म के आधार पर देश के विभाजन के बाद धर्म निरपेक्षता
के मलबे से भरने का निरर्थक प्रयास किया जा रहा था, वह फिर गहरी होने लगी है। राजनीतिक
कारणों से हिंदुत्व की विचारधारा सांप्रदायिक उन्माद में बदलती दिख रही है, जिसका इस्तेमाल
करते हुए गिनती के लोग सत्ता पर नियंत्रण बनाए रखने का प्रयास कर रहे हैं। कोई भी उन्माद
अस्थायी होता है। इससे समाज का जीवन स्तर नहीं सुधरता। जीवन स्तर सुधारने के लिए हिलमिलकर
आजीविका चलाने लायक सामाजिक-आर्थिक वातावरण बनाने की जरूरत होती है। आजीविका चलाने
के लिए पैसे कमाना जरूरी है और पैसे की उपलब्धता के रास्ते सीमित करने के लिए सरकार
ने कई नीतियां बना रखी हैं, नियम बना रखे हैं। इस तरह न तो हिंदुओं का जीवन स्तर सुधर
सकता है और न ही उनका सामाजिक विकास हो सकता है।